सोमवार, 12 सितंबर 2011

गूंज अभी बांकी है

किसी की उम्र 16 साल थी तो किसी की बीस। नौजवानों की टोली थी वह। कोई सात-आठ रहे होंगे। सन 1988-89 के आसपास की बात है। दौर लघु पत्रिकाओं था। महानगरों और कस्बों से कई स्तरीय लघु पत्रिकाएं निकला करती थीं। इस टोली में ज्यादतर ऐसे थे  जिन्होंने स्कूली मंचों पर तालियां बटोरी थी और अब स्कूल के बाहर भी कुछ अच्छा करने की इच्छा रखते थे। इस टोली ने भी एक लघु-पत्रिका निकालने का ख्वाब देखा। संसाधन तो थे नहीं और उम्र भी ऐसी नहीं थी कि कोई सहसा विश्वास कर ले। तब भी टोली ने इन सब की परवाह किए बिना अपना काम शुरू कर दिया। यह काम एक ऐसे कस्बे में शुरू हुआ, जहां इस तरह की गतिविधियों का कोई समृद्ध इतिहास नहीं था। छत्तीसगढ़ के बिलकुल आखिरी छोर पर, लोहे की खदानों वाले शहर बचेली में। तय हुआ कि पत्रिका का नाम प्रतिध्वनि होगा और इसे साइकलोस्टाइल में प्रिंट किया जाएगा। खदानों के एडमिनिस्ट्रेटिव आफिस में काम करने वाले कुछ लोगों ने बच्चों  पर भरोसा किया और प्रिंटिग में मदद का आश्वासन दिया। अब टीम ने रचनाएं जुटानी शुरू की। साहस इतना कि दिग्गज साहित्यकारों के पास पहुंच गए हाथ पसारे। दिग्गजों ने भी झोलियां भरने में कंजूसी नहीं की। जो मांगा वह मिला, रचनाएं मांगी तो रचनाएं मिलीं। साक्षात्कार मांगा तो साक्षात्कार मिला। लाला जगदलपुरी, रउफ परवेज, विजय सिंह, योगेंद्र मोतीवाला, मदन आचार्य, डा.जी.आर.साक्षी, अभिलाष दवे समेत अनेक लोगों ने टीम की पीठ थपथपाई। पत्रिका के पन्ने तैयार हो गए। मुखपृष्ठ इसी टीम के एक चित्रकार ने रेखांकन से तैयार किया। धरती पर खड़ा एक किसान आसमान छू रहा था और उसकी मुट्ठी में चांद-सितारे थे। मुखपृष्ठ छपकर आया तो टीम के किसी एक सदस्य के घर पर बैठकर बाइंडिंग शुरू हुई। सुई और धागे से पन्ने सिले गए। आंटे की लई से मुखपृष्ठ चिपका दिया गया। पहला अंक अब हाथ में था। टीम के ही एक सदस्य को संपादक बना दिया, कुछ और पद तैयार किए गए जिनमें दूसरे सदस्य थे। पहला अंक खूब सराहा गया। इन बच्चों की टोली में थे राजीव रंजन, रूपेश सिंगारे, प्रीति शर्मा, संगीता मिश्रा, अजय डे, आदि। एक सदस्य मैं भी था। राजीव को संपादक बनाया गया। ये वही राजीव हैं जो इस वक्त साहित्य शिल्पी नाम के वेबपेज का संपादन कर रहे हैं। इस पत्रिका के दो अंक निकले, दूसरे अंक में जब पैसों का टोटा हुआ तब मुखपृष्ठ फोटोस्टेट से तैयार किया गया। पत्रिका की ओर से अनेक गतिविधियां भी की गईं। नाटकों का मंचन, चित्रकला प्रदर्शनी, गोष्ठी आदि। बाद में टीम बिखर गई। आगे की पढ़ाई के लिए किसी ने कहीं का रुख किया तो किसी ने कहीं का। प्रतिध्वनि का प्रकाशन बंद हो गया। लेकिन वह अब भी मेरे भीतर ध्वनित हो रही है। 

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