पिछली पोस्ट गूंज अभी बांकी में मैंने बचेली से निकली पहली अव्यवसायिक और अनियतकालीन पत्रिका प्रतिध्वानि का उल्लेख किया था। यह कम उम्र के नौजवानों का संयुक्त प्रयास था। इसके जितने भी अंक प्रकाशित हुए उनमें काफी महत्वपूर्ण सामग्री थी। कुछ तो ऐतिहासिक महत्व की भी थीं। लाला जगदलपुरी से तब लिया गया साक्षात्कार भी इनमें से एक है। वर्ष 1988-89 के आसपास प्रतिध्वनि की टीम द्वारा लिए गए इस साक्षात्कार में लालाजी ने जो कुछ कहा वो बस्तर के रंगमंच और साहित्य के इतिहास का एक हिस्सा भी था। इस साक्षात्कार के लिए जगदलपुर के साहित्यकार हिमांशु शेखर झा ने प्रतिध्वनि की मदद की थी। पुराने दस्तावेजों में प्रतिध्वनि के कुछ पन्ने मिले, उन्हीं में यह भी था। प्रस्तुत हैः
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लाला जगदलपुरी से साक्षात्कार
सर्जन के विभिन्न आयामों का आवलोकन करना हो तो यह कार्य प्रख्यात साहित्य मनीषी, चिंतक श्री लाला जगदलपुरी की रचनाधर्मिता के माध्यम से सहज संभव हो सकता है. लालाजी वरिष्ठ कवि, समर्थ लेखक, प्रखर समालोचक, भाषा विज्ञानी, इतिहास एवं पुराविद, रंगकर्मी सभी रूपों में जाने जाते हैं। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व में पूरा साम्य है। द्वैत नहीं है। संभतः लालाजी की रचनाओं की मुख्य विशेषता पारदर्शिता है और इस पारदर्शिता को साहित्य की विशिष्ट उपलब्धि कहा जा सकता है।
साक्षात्कारः-
प्रतिध्वनिः- आप मूलतः कवि हैं-हिंदी साहित्य में छायावादोत्तर काल में काव्य को लेकर विभिन्न आंदोलनों की चर्चा की जाती है-मसलन प्रयोगधर्मी काव्य, नवगीत, हिंदी गजल और प्रगतिशील आदि। बीच के दौर में दलित कविता नाम से रचनाएं लिखी गईं थीं। कथ्य और शिल्प की बुनावट को लेकर आप काव्य धाराओं के वर्गीकरण पर टिप्पणी दें।
लाला जगदलपुरीः- कोई भी रचना तब प्रभावित करती है, जब कला और शिल्प में एक संतुलन होता है। जब कला पक्ष को अधिक बल दिया जाता है तो केवल एक पक्षीय रचना सामने आती है। अर्थात विचार के अभाव में रचना-शिल्प ही सामने आता है। और केवल विचार पक्ष ही सबकुछ नहीं होता। जब विचार को अभिव्यक्ति दी जाए और रचना में कला का पुट न हो तो वह भी शुष्क रचना हो जाती है। इस प्रकार कला पक्ष एवं भाव पक्ष दोनों में संतुलित सामंजस्य हो ही। तभी एक सशक्त रचना मूर्त होती है।
काव्यांदोलनों से कविता की अस्मिता नहीं रह जाती। किसी भी चौखट से कविता को बांध देने पर कविता का अस्तित्व पराधीन हो जाता है। प्रतिबद्धता बेमानी होती है। कविता केवल मानव संवेदना से प्रतिबद्ध होती है। प्रलेस एक राजनैतिक संगठन है जो एक तरह की रचनाओं का सृजन पाठकों को दे रहा है। गीत विधा को तो प्रलेस ने एकदम नकार दिया है, जबकि प्रगतिशील गीतकारों एवं शायरों के पास भी जनचेतना से जुड़े कथ्य हैं। गीतों की अपनी शैली भी है। नवगीत जो अभी चल रहा है, उसमें कुछ गीत बहुत अच्छे आए हैं। युगबोध उनके कथ्य में आता है। पिछले समय में भूखी पीढ़ी, नंगी पीढ़ी, कविता, अकविता, अगीत, प्रगीत आदि आंदलोन भी चलते रहे थे। आंदोलनों से साहित्य का विकास नहीं, ह्रास होता है। प्रत्येक आंदोलन से एक मसीहा सामने आता है और समकालीन लेखक उसी से बंधे होते हैं।
प्रतिध्वनिः- आपने लोक साहित्य में विशिष्ट कार्य किया है। आधुनिक साहित्य में लोक साहित्य को प्रतिष्ठा नहीं मिल पाई है। जिसकी अपेक्षा स्वभाविक भी है।
लाला जगदलपुरीः- लोक साहित्य तो बुनियादी साहित्य है। लोक साहित्य पर शुरू से ही काम होता आ रहा है। अखिल भारतीय स्तर पर लोगों का ध्यान आकृष्ट हुआ है। बच्चन ने बहुत पूर्व ही लोक गीतों से भाव लेकर अपने स्वतंत्र गीतों में अभिव्यक्ति दी थी।
आज का माहौल लोक-कथाओं का है। लोक कथाओं पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ने विशेषांक निकाले हैं। यही नहीं उनका प्रसारण दूरदर्शन पर भी होता रहा है। लोक गीत काफी पीछे चल रहे हैं। लोक गीतों को म्यूजिक डायरेक्टर्स फिल्मों में ले रहे हैं।
लोक साहित्य का भविष्य वास्तव में काफी उज्जवल है।
प्रतिध्वनिः- आपने बस्तर पर ऐतिहासिक शोधपरक निबंध लिखे हैं। हम जानना चाहते हैं कि इतिहास लेखन जैसे विशिष्ट क्षेत्र में कौन-कौन सी परेशानियां सामने आती हैं। बस्तर के ऐतिहासिक विवेचन की दृष्टि से आप किन इतिहासविदों से सहमत हैं।
लाला जगदलपुरीः-बस्तर इतिहास पर अब तक नहीं के बराबर कार्य हुआ है। बस्तर इतिहास के जो तथाकथित विद्वान हैं, उन्होंने जिम्मेदारी से कलम नहीं चलाई है। केवल एक व्यक्ति श्री कृष्णकुमार झा ने महत्वपूर्ण कार्य किया है, किंतु उनका शोध कार्य सामने नहीं आ सकता है। प्रो.बेहार की पुस्तक बस्तर आरण्यक विद्यार्थियों के लिए जानकारी का स्रोत हो सकती है, किंतु वह भी संदर्भों का संकलन मात्र है।
वस्तुतः बस्तर इतिहास पर लिखने वाले विद्वानों ने संबंधित राजाओं की वंशावलियों व तिथियों को लेकर भ्रामक स्थिति अपनाई थी। बस्तर इतिहास का मेरूदंड बारसूर है। किंतु आज तक बारसूर पर कोई कार्य नहीं हुआ। श्री शिवप्रकाश तिवारी, जो बारसूर को खजुराहो की संज्ञा देते है, बारसूर की स्थापना कब और किसने की के प्रश्न पर मौन रह जाते हैं। पूर्व में अन्नमदेव आदि राजाओं को काकतीय कहते थे, बाद में रक्षपालदेव के समय से बस्तर राजधानी थी, जिनके समय में 300 ब्राह्मण आकर बसे थे। एक ताम्रपत्र के आधार पर चालुक्यवंशी घोषित किया गया।
बस्तर पर इतिहास लेखन का आरंभ पाषाण काल से किया जाना चाहिए। मैं तो एक साहित्यकार हूं। जमीन से जुड़े होने के कारण ही मैंने ऐतिहासिक शोधपरक निबंध लिखे हैं।
प्रतिध्वनिः- बस्तर में नाटकों की विशेष परंपरा विकसित नहीं हो पाई, ऐसा कुछ लोगों का मानना है। जबकि कतिपय का मानना है कि इसकी जीवंत परंपरा है। ..इस पर आपके विचार।
लाला जगदलपुरीः- बस्तर में नाटकों की परंपरा आरंभ से ही रही है। 1914 में राजा रूद्रप्रतापदेव रामलीला पार्टी का गठन हुआ था। बनारस से प्रशिक्षण देने के लिए पंडित बुलाए गए थे। उसेक बाद तो अनेक पार्टियां स्थापित हुईं थीं। जैसे-सत्यविजय थियेट्रिकल सोसायटी नौटंकी पार्टी, आर्य बांधव थियोट्रिकल सोसायटी, प्रेम मंडली आदि। सभी संस्थाएं स्वयं के खर्च पर प्रदर्शन करती थीं।
कला को समर्पित उस युग में जबकि मंचन के लिए प्रकाश व्यवस्था आदि का अभाव था, सफलता के साथ प्रदर्शन चलते रहे थे। आज, जबकि सारे साधन उपलब्ध हैं, गतिरोध उत्पन्न हो गया है जो कि चिंता का विषय है। एमए रहीम की नाटक संस्था अवश्य कुछ अच्छा कार्य कर रही है।
प्रतिध्वनिः-लेखक और पाठक के रिश्ते और उनकी समझ पर आपकी टिप्पणी...
लाला जगदलपुरीः- लेखक तो अपने चिंतन को अपने ढंग से अभिव्यक्ति देता चलता है। वह यह नहीं जानता कि उसकी रचना प्रस्तुतियों को कौन किस ढंग से लेता है। जब प्रतिक्रियाएं व्यक्त करते हैं, तो लगता है लेखक सार्थक जा रहा है।
आज समकालीन कविता की जो प्रस्तुति है, वह प्रायः इतनी अटपटी हो चली है कि कविता का केंद्रीय भाव पल्ले नहीं पड़ता। कुछ लोग कहते हैं कि कोई आवश्यक नहीं कि हमारी रचना हर पाठक को समझ में आ जाए। हम कविता महज मानसिक संतुष्टि के लिए लिखते हैं। वस्तुतः साहित्य तो वह है जो पाठक को ऊर्जा देता है और यही कर पाने में आज की कविता अक्षम है।
प्रतिध्वनि-अच्छी कृतियों के बावजूद रचनाकारों को प्रकाशन की समस्या से दो-चार होना पड़ता है। प्रकाशन के लिए गुटबंदियों का सहारा क्यों लेना पड़ता है। क्या अच्छे साहित्य का प्रकाशन घाटे का सौदा है।
लाला जगदलपुरीः- अच्छी कृतियों के प्रकाशन के लिए रचनाकारों को भटकना नहीं पड़ता। उनका प्रकाशन तो होकर ही रहता है....भले ही उनके जीवनकाल में न हो। मुक्तिबोध की मृत्यु के बाद उनका संकलन प्रकाशित हुआ था। समय लगता है, लेकिन अच्छी कृतियां सामने आ ही जाती हैं। गुटबंदियों में वह ताकत नहीं कि अच्छी कृतियों को प्रकाशित होने से रोक सकें।
अच्छे साहित्य का प्रकाशन घाटे का सौदा नहीं है। बिक्री तो होती है। अच्छे प्रकाशन के तो कई-कई संस्करण निकलते हैं।
प्रतिध्वनिः- लघु और अव्यावसायिक पत्रिकाओं के योगदान को आप किस दृष्टि से देखते हैं।
लाला जगदलपुरीः-रचनात्मक योगदान तो है उनका किंतु अव्यावसायिक होने के कारण उन्हें आर्थिक संकट से गुजरना पड़ता है। ऐसे प्रकाशन रचनाधर्मी होते हैं, जो लेखक हैं वे ही उनके पाठक होते हैं। अतः रचनाकारों का उन्हें सहयोग मिलता है और मिलना भी चाहिए। जितने भी अनियतकालीन प्रकाशन हैं, वे इसी तरह चल रहे हैं।
प्रतिध्वनिः-अखबारी और जरूरत के हिसाब से या कहें मांग के अनुसार माल खपाने की प्रवृत्ति को आप किस दृष्टि से देखते हैं। कया यह स्वस्थ साहित्यिक विकास के लिए बाधक तत्व है।
लाला जगदलपुरीः- मांग के अनुसार रचनाएं तैयार नहीं की जातीं। हालांकि वर्कशाप तो चलाते हैं लोग। सरकारी लेखक अवश्य मांग पर रचनाएं तैयार करते हैं। एक स्वस्थ साहित्य विकास की परंपरा इससे हट कर चलती है।
प्रतिध्वनिः-आप विभिन्न समाचार पत्रों से संबद्ध रहे हैं। आज की पत्रकारिता कितनी सजग या कितनी व्यावसायिक हो गई है..इस पर आपके विचार। विशेषकर इन दिनों विभिन्न औद्योगिक घरानों का राष्ट्रीय और आंचलिक पत्रकारिता पर असर नजर आ रहा है। फिर इसे उद्योग का दर्जा दिए जाने की बात जोरों पर है। इससे पत्रकारिता को लाभ होगा अथवा हानि।
लाला जगदलपुरी- पहले की पत्रकारिता पूर्णतः दुधारी थी और आज की पत्रकारिता पूर्णतः दुधारू है।
पत्रकारिता को उद्योग का दर्जा दिए जाने पर आपत्ति तो नहीं होनी चाहिए। यदि उसमें ईमानदारी सन्निहित हो, क्योंकि जहां उद्योग आता है शोषण की गुजाइश वहां हो ही जाती है।
प्रतिध्वनिः-क्या किसी रचनाकार को विधा विशेष में ही लिखने में पारंगत होना चाहिए।
लाला जगदलपुरीः-जिसका स्वाभाविक झुकाव जिस विधा की ओर हो, उसी विधा में लिखना उसके लिए श्रेयस्कर है। अन्यथा उसकी लेखनी में बिखराव आ सकता है। अधिकांश रचनाकारों का झुकाव कविता की ओर होता चला जाता है। यद्यपि कई लोगों ने कई विधाओं पर अपनी कलम एक साथ चलाई है।
प्रतिध्वनिः-बस्तर की राजनीतिक चेतना पर आपके विशेष विचार। विशेषकर प्रवीरचंद की मृत्यु के बाद...
लाला जगदलपुरी-बस्तर में तो कभी राजनीतिक चेतना थी ही नहीं। और आज भी नहीं है। आज का बस्तर नेतृत्वहीन हो गया है। पहले नेतृत्व राजघरानों का था भले ही विवादास्पद रहा हो। आज नेता तो हैं, किंतु नेतृत्वहीन है बस्तर...।
प्रतिध्वनिः-बस्तर की युवा रचनाकार पीढ़ी के प्रति आपकी अपेक्षाएं क्या हैं।
लाला जगदलपुरी-युवा रचनाकार सार्थक लिखें, धीरज के साथ लिखें।
(प्रतिध्वनि की टीम में-राजीवरंजन प्रसाद, केवलकृष्ण, रूपेश सिंगारे, प्रीति शर्मा, संगीता मिश्रा)
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लाला जगदलपुरी से साक्षात्कार
सर्जन के विभिन्न आयामों का आवलोकन करना हो तो यह कार्य प्रख्यात साहित्य मनीषी, चिंतक श्री लाला जगदलपुरी की रचनाधर्मिता के माध्यम से सहज संभव हो सकता है. लालाजी वरिष्ठ कवि, समर्थ लेखक, प्रखर समालोचक, भाषा विज्ञानी, इतिहास एवं पुराविद, रंगकर्मी सभी रूपों में जाने जाते हैं। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व में पूरा साम्य है। द्वैत नहीं है। संभतः लालाजी की रचनाओं की मुख्य विशेषता पारदर्शिता है और इस पारदर्शिता को साहित्य की विशिष्ट उपलब्धि कहा जा सकता है।
लाला जगदलपुरी (फोटो-श्री राजकुमार सेनी के ब्लाग बिगुल से। |
प्रतिध्वनिः- आप मूलतः कवि हैं-हिंदी साहित्य में छायावादोत्तर काल में काव्य को लेकर विभिन्न आंदोलनों की चर्चा की जाती है-मसलन प्रयोगधर्मी काव्य, नवगीत, हिंदी गजल और प्रगतिशील आदि। बीच के दौर में दलित कविता नाम से रचनाएं लिखी गईं थीं। कथ्य और शिल्प की बुनावट को लेकर आप काव्य धाराओं के वर्गीकरण पर टिप्पणी दें।
लाला जगदलपुरीः- कोई भी रचना तब प्रभावित करती है, जब कला और शिल्प में एक संतुलन होता है। जब कला पक्ष को अधिक बल दिया जाता है तो केवल एक पक्षीय रचना सामने आती है। अर्थात विचार के अभाव में रचना-शिल्प ही सामने आता है। और केवल विचार पक्ष ही सबकुछ नहीं होता। जब विचार को अभिव्यक्ति दी जाए और रचना में कला का पुट न हो तो वह भी शुष्क रचना हो जाती है। इस प्रकार कला पक्ष एवं भाव पक्ष दोनों में संतुलित सामंजस्य हो ही। तभी एक सशक्त रचना मूर्त होती है।
काव्यांदोलनों से कविता की अस्मिता नहीं रह जाती। किसी भी चौखट से कविता को बांध देने पर कविता का अस्तित्व पराधीन हो जाता है। प्रतिबद्धता बेमानी होती है। कविता केवल मानव संवेदना से प्रतिबद्ध होती है। प्रलेस एक राजनैतिक संगठन है जो एक तरह की रचनाओं का सृजन पाठकों को दे रहा है। गीत विधा को तो प्रलेस ने एकदम नकार दिया है, जबकि प्रगतिशील गीतकारों एवं शायरों के पास भी जनचेतना से जुड़े कथ्य हैं। गीतों की अपनी शैली भी है। नवगीत जो अभी चल रहा है, उसमें कुछ गीत बहुत अच्छे आए हैं। युगबोध उनके कथ्य में आता है। पिछले समय में भूखी पीढ़ी, नंगी पीढ़ी, कविता, अकविता, अगीत, प्रगीत आदि आंदलोन भी चलते रहे थे। आंदोलनों से साहित्य का विकास नहीं, ह्रास होता है। प्रत्येक आंदोलन से एक मसीहा सामने आता है और समकालीन लेखक उसी से बंधे होते हैं।
प्रतिध्वनिः- आपने लोक साहित्य में विशिष्ट कार्य किया है। आधुनिक साहित्य में लोक साहित्य को प्रतिष्ठा नहीं मिल पाई है। जिसकी अपेक्षा स्वभाविक भी है।
लाला जगदलपुरीः- लोक साहित्य तो बुनियादी साहित्य है। लोक साहित्य पर शुरू से ही काम होता आ रहा है। अखिल भारतीय स्तर पर लोगों का ध्यान आकृष्ट हुआ है। बच्चन ने बहुत पूर्व ही लोक गीतों से भाव लेकर अपने स्वतंत्र गीतों में अभिव्यक्ति दी थी।
आज का माहौल लोक-कथाओं का है। लोक कथाओं पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ने विशेषांक निकाले हैं। यही नहीं उनका प्रसारण दूरदर्शन पर भी होता रहा है। लोक गीत काफी पीछे चल रहे हैं। लोक गीतों को म्यूजिक डायरेक्टर्स फिल्मों में ले रहे हैं।
लोक साहित्य का भविष्य वास्तव में काफी उज्जवल है।
प्रतिध्वनिः- आपने बस्तर पर ऐतिहासिक शोधपरक निबंध लिखे हैं। हम जानना चाहते हैं कि इतिहास लेखन जैसे विशिष्ट क्षेत्र में कौन-कौन सी परेशानियां सामने आती हैं। बस्तर के ऐतिहासिक विवेचन की दृष्टि से आप किन इतिहासविदों से सहमत हैं।
लाला जगदलपुरीः-बस्तर इतिहास पर अब तक नहीं के बराबर कार्य हुआ है। बस्तर इतिहास के जो तथाकथित विद्वान हैं, उन्होंने जिम्मेदारी से कलम नहीं चलाई है। केवल एक व्यक्ति श्री कृष्णकुमार झा ने महत्वपूर्ण कार्य किया है, किंतु उनका शोध कार्य सामने नहीं आ सकता है। प्रो.बेहार की पुस्तक बस्तर आरण्यक विद्यार्थियों के लिए जानकारी का स्रोत हो सकती है, किंतु वह भी संदर्भों का संकलन मात्र है।
वस्तुतः बस्तर इतिहास पर लिखने वाले विद्वानों ने संबंधित राजाओं की वंशावलियों व तिथियों को लेकर भ्रामक स्थिति अपनाई थी। बस्तर इतिहास का मेरूदंड बारसूर है। किंतु आज तक बारसूर पर कोई कार्य नहीं हुआ। श्री शिवप्रकाश तिवारी, जो बारसूर को खजुराहो की संज्ञा देते है, बारसूर की स्थापना कब और किसने की के प्रश्न पर मौन रह जाते हैं। पूर्व में अन्नमदेव आदि राजाओं को काकतीय कहते थे, बाद में रक्षपालदेव के समय से बस्तर राजधानी थी, जिनके समय में 300 ब्राह्मण आकर बसे थे। एक ताम्रपत्र के आधार पर चालुक्यवंशी घोषित किया गया।
बस्तर पर इतिहास लेखन का आरंभ पाषाण काल से किया जाना चाहिए। मैं तो एक साहित्यकार हूं। जमीन से जुड़े होने के कारण ही मैंने ऐतिहासिक शोधपरक निबंध लिखे हैं।
प्रतिध्वनिः- बस्तर में नाटकों की विशेष परंपरा विकसित नहीं हो पाई, ऐसा कुछ लोगों का मानना है। जबकि कतिपय का मानना है कि इसकी जीवंत परंपरा है। ..इस पर आपके विचार।
लाला जगदलपुरीः- बस्तर में नाटकों की परंपरा आरंभ से ही रही है। 1914 में राजा रूद्रप्रतापदेव रामलीला पार्टी का गठन हुआ था। बनारस से प्रशिक्षण देने के लिए पंडित बुलाए गए थे। उसेक बाद तो अनेक पार्टियां स्थापित हुईं थीं। जैसे-सत्यविजय थियेट्रिकल सोसायटी नौटंकी पार्टी, आर्य बांधव थियोट्रिकल सोसायटी, प्रेम मंडली आदि। सभी संस्थाएं स्वयं के खर्च पर प्रदर्शन करती थीं।
कला को समर्पित उस युग में जबकि मंचन के लिए प्रकाश व्यवस्था आदि का अभाव था, सफलता के साथ प्रदर्शन चलते रहे थे। आज, जबकि सारे साधन उपलब्ध हैं, गतिरोध उत्पन्न हो गया है जो कि चिंता का विषय है। एमए रहीम की नाटक संस्था अवश्य कुछ अच्छा कार्य कर रही है।
प्रतिध्वनिः-लेखक और पाठक के रिश्ते और उनकी समझ पर आपकी टिप्पणी...
लाला जगदलपुरीः- लेखक तो अपने चिंतन को अपने ढंग से अभिव्यक्ति देता चलता है। वह यह नहीं जानता कि उसकी रचना प्रस्तुतियों को कौन किस ढंग से लेता है। जब प्रतिक्रियाएं व्यक्त करते हैं, तो लगता है लेखक सार्थक जा रहा है।
आज समकालीन कविता की जो प्रस्तुति है, वह प्रायः इतनी अटपटी हो चली है कि कविता का केंद्रीय भाव पल्ले नहीं पड़ता। कुछ लोग कहते हैं कि कोई आवश्यक नहीं कि हमारी रचना हर पाठक को समझ में आ जाए। हम कविता महज मानसिक संतुष्टि के लिए लिखते हैं। वस्तुतः साहित्य तो वह है जो पाठक को ऊर्जा देता है और यही कर पाने में आज की कविता अक्षम है।
प्रतिध्वनि-अच्छी कृतियों के बावजूद रचनाकारों को प्रकाशन की समस्या से दो-चार होना पड़ता है। प्रकाशन के लिए गुटबंदियों का सहारा क्यों लेना पड़ता है। क्या अच्छे साहित्य का प्रकाशन घाटे का सौदा है।
लाला जगदलपुरीः- अच्छी कृतियों के प्रकाशन के लिए रचनाकारों को भटकना नहीं पड़ता। उनका प्रकाशन तो होकर ही रहता है....भले ही उनके जीवनकाल में न हो। मुक्तिबोध की मृत्यु के बाद उनका संकलन प्रकाशित हुआ था। समय लगता है, लेकिन अच्छी कृतियां सामने आ ही जाती हैं। गुटबंदियों में वह ताकत नहीं कि अच्छी कृतियों को प्रकाशित होने से रोक सकें।
अच्छे साहित्य का प्रकाशन घाटे का सौदा नहीं है। बिक्री तो होती है। अच्छे प्रकाशन के तो कई-कई संस्करण निकलते हैं।
प्रतिध्वनिः- लघु और अव्यावसायिक पत्रिकाओं के योगदान को आप किस दृष्टि से देखते हैं।
लाला जगदलपुरीः-रचनात्मक योगदान तो है उनका किंतु अव्यावसायिक होने के कारण उन्हें आर्थिक संकट से गुजरना पड़ता है। ऐसे प्रकाशन रचनाधर्मी होते हैं, जो लेखक हैं वे ही उनके पाठक होते हैं। अतः रचनाकारों का उन्हें सहयोग मिलता है और मिलना भी चाहिए। जितने भी अनियतकालीन प्रकाशन हैं, वे इसी तरह चल रहे हैं।
प्रतिध्वनिः-अखबारी और जरूरत के हिसाब से या कहें मांग के अनुसार माल खपाने की प्रवृत्ति को आप किस दृष्टि से देखते हैं। कया यह स्वस्थ साहित्यिक विकास के लिए बाधक तत्व है।
लाला जगदलपुरीः- मांग के अनुसार रचनाएं तैयार नहीं की जातीं। हालांकि वर्कशाप तो चलाते हैं लोग। सरकारी लेखक अवश्य मांग पर रचनाएं तैयार करते हैं। एक स्वस्थ साहित्य विकास की परंपरा इससे हट कर चलती है।
प्रतिध्वनिः-आप विभिन्न समाचार पत्रों से संबद्ध रहे हैं। आज की पत्रकारिता कितनी सजग या कितनी व्यावसायिक हो गई है..इस पर आपके विचार। विशेषकर इन दिनों विभिन्न औद्योगिक घरानों का राष्ट्रीय और आंचलिक पत्रकारिता पर असर नजर आ रहा है। फिर इसे उद्योग का दर्जा दिए जाने की बात जोरों पर है। इससे पत्रकारिता को लाभ होगा अथवा हानि।
लाला जगदलपुरी- पहले की पत्रकारिता पूर्णतः दुधारी थी और आज की पत्रकारिता पूर्णतः दुधारू है।
पत्रिका प्रतिध्वनि का एक पन्ना |
प्रतिध्वनिः-क्या किसी रचनाकार को विधा विशेष में ही लिखने में पारंगत होना चाहिए।
लाला जगदलपुरीः-जिसका स्वाभाविक झुकाव जिस विधा की ओर हो, उसी विधा में लिखना उसके लिए श्रेयस्कर है। अन्यथा उसकी लेखनी में बिखराव आ सकता है। अधिकांश रचनाकारों का झुकाव कविता की ओर होता चला जाता है। यद्यपि कई लोगों ने कई विधाओं पर अपनी कलम एक साथ चलाई है।
प्रतिध्वनिः-बस्तर की राजनीतिक चेतना पर आपके विशेष विचार। विशेषकर प्रवीरचंद की मृत्यु के बाद...
लाला जगदलपुरी-बस्तर में तो कभी राजनीतिक चेतना थी ही नहीं। और आज भी नहीं है। आज का बस्तर नेतृत्वहीन हो गया है। पहले नेतृत्व राजघरानों का था भले ही विवादास्पद रहा हो। आज नेता तो हैं, किंतु नेतृत्वहीन है बस्तर...।
प्रतिध्वनिः-बस्तर की युवा रचनाकार पीढ़ी के प्रति आपकी अपेक्षाएं क्या हैं।
लाला जगदलपुरी-युवा रचनाकार सार्थक लिखें, धीरज के साथ लिखें।
(प्रतिध्वनि की टीम में-राजीवरंजन प्रसाद, केवलकृष्ण, रूपेश सिंगारे, प्रीति शर्मा, संगीता मिश्रा)
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सफल प्रयास .....
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