मंगलवार, 20 सितंबर 2011

तस्वीरों में कहां समाता वह विनाश (गुजरात में भूकंप की आंखों देखी-2)

रायपुर, 5 फरवरी 2001 (देशबन्धु)। आप शायद मुझसे यही जानना चाहें कि गुजरात में कितनी तबाही हुई। वहां मौतों का असली आंकड़ा क्या है। बेघर हो चुके लोगों का हालचाल क्या है। ऐसे ही कई सवाल आप मुझसे पूछ सकते हैं, बावजूद इसके कि आप रोज टेलीविजन की स्पेशल बुलेटिनें देख रहे होंगे। आप रोज अखबार पढ़ रहे होंगे और मेरी ही तरह गुजरात से लौटे लोगों से तबाही के खौफनाक किस्से सुन रहे होंगे।
आप यह जान लीजिए कि टेलीविजन पर आपने अब तक जितनी तबाही देखी है, अखबारों में जितनी खबरें पढ़ी हैं और लोगों से सुने किस्सों ने बरबादी की जो कल्पना दी है, गुजरात का विनाश उन सबसे कहीं ज्यादा है। मैं भी उस तबाही का वर्णन नहीं कर पाउंगा, जो मैंने वहां देखी है। यदि कुछ घरों या कुछ शहरों की बात होती तो शब्दों की मदद ले सकता था, लेकिन तबाह हो चुकी एक-एक जिंदगी के किस्से कहना मेरे बस की बात नहीं। कच्छ के एक-एक मुरछाए चेहरे पर कई-कई दर्दनाक कहानियां पुती हुईं हैं।
भचाऊ के गांधी ग्राम उद्योग कन्या छात्रावास की 15 साल की बच्ची सुनीता की बदकिस्मती की कहानी कही नहीं जा सकती। सुनीता बचपन से विकलांग थी, फिर भी जिंदगी से जूझ रही थी। अपने पैरों पर खड़ी होने की कोशिश में निरंतर पढ़ाई जारी रखे हुए थी। लेकिन नियती को शायद उसका जिंदा रहना ही पसंद नहीं था। 26 जनवरी को जब कन्या छात्रावास की 15 लड़कियां गणतंत्र दिवस मनाने बाहर गई हुई थीं, तब सुनीता छात्रावास में ही रुक गई। उसी समय धरती भयंकर तरीके से कांपी और सुनीता हमेशा-हमेशा के लिए खामोश हो गई। छात्रावास के मलबे में सुनीता की चकनाचूर हो चुकी ट्राइसिकल अब भी पड़ी हुई उसकी बदकिस्मती की कहानी कह रही है। दुर्ग से अंजार गए लोगों के चेहरों का खौफ बताया नहीं जा सकता, जो जगह-जगह भटक कर रिश्तेदारों की तलाश कर रहे थे।
दुर्ग के कचांदूर निवासी कांतिभाई चौहान, महेशभाई चौहान, भगवानभाई चौहान, जेवरा सिरसा के कैलाश चौहान, राजनांदगांव के सुरेशभाई टांक से अंजार के एक राहत शिविर में मुलाकात हुई। उन लोगों ने बताया कि उनके रिश्तेदार कच्छ में भुज, कुकमा, आदिपुर, खमरा, गढ़पदर, माधापुर में रहते हैं। कांतिभाई ने बताया कि उनके पिता और भाई सिनो गांव में रहते हैं। उनकी लड़की भी अंजोरा ताल्लुका के सिनोग्रा गांव में अपने चाचा के साथ रहती है। बहन और जीजाजी भी वहीं हैं। उन लोगों का क्या हुआ, क्या नहीं, इन सभी को कुछ पता नहीं था। ये लोग 30 जनवरी को अंजार पहुंचे थे। अंजार के खत्री चौक में सड़ी हुई लाशों की बदबू उठ रही थी। यहीं पर 15 साल के नीरज गुणवंत भाई जेठजा से मुलाकात हुई। नीरज ने बताया कि रायपुर के भाजपा नेता सूर्यकांत राठौर राठौर, फाफाडीह निवासी प्रकाश राठौर उनके मामा हैं। उसने बताया कि भूकंप में उसकी दादी की जान चली गई। इससे ज्यादा मेरी उससे बात नहीं हो पाई। लाशों की बदबू के कारण न तो मैं वहां रुकना चाह रहा था और न ही नीरज।
......ऊंची-ऊंची इमारतों वाले खूबसूरत शहर क्षणभर में मलबों के ढेर में बदल गए। प्रकृति की क्रूरता भी ऐसी थी कि जैसे उसने कोई बड़ा सा घन लेकर एक-एक इमारत पर प्रहार किया हो। और इमारतों के ध्वस्त होने के बाद उसकी घन से एक-एक दीवारें चकनाचूर कर दी हों। भुज हो, भचाऊ हो या अंजार हो। अब किसी भी परिभाषा में ये जगहें शहर नहीं कहीं जा सकतीं। अब इन शहरों के लिए कब्रिस्तान या श्मशान कहना ज्यादा ठीक होगा।
भुज और अंजार की तबाही देखने के बाद मैं 31 जनवरी को भचाऊ में था। यह वह इलाका है जिसमें भूकंप ने सबसे ज्यादा तबाही मचाई है। अहमदाबाद से इस इलाके की दूरी 450 किलोमीटर है। भुज, अंजार, भचाऊ, राप़ड़, गांधीधाम से लेकर कंडाला बदरगाह तक तबाही ही तबाही नजर आती है। कच्छ के 10 तालुके हैं, इनमें से भुज, अंजार, भचाऊ और रापड़ तालुके पूरी तरह तबाह हो गए हैं। तालुके का मतलब है तहसीलें और इन तालुकों की तबाही का मतलब इन तालुकों के गांवों की तबाही से भी है। यहां के एक-एक तालुक में औसतन 50-60 गांव होगे। इन सभी गांवो में 90 से 100 प्रतिशत तबाही की खबरें हैं। इन तालुकों के बहुत से गांवों में मैं भी गया। सभी जगह शत-प्रतिशत तबाही का आलम था। कहीं-कहीं इक्के-दुक्के भवन खड़े नजर आते थे। लेकिन लोगों का कहना था कि ये इमारतें भी दरक चुकी हैं और उन्हें भी गिराना होगा।
सभी बड़े शहरों में सबसे ज्यादा तबाही भचाऊ की है। पूरा शहर मलबे में तब्दिल हो चुका है। यहां के हालात खौफनाक हैं। भुज के जनसंपर्क अधिकारी एस.के.सोनी बताते हैं कि भचाऊ की कुल जनसंख्या का एक तिहाई   हिस्सा मौत का शिकार हो गया है। उनके अनुसार अकेले इस इलाके में मरने वालों की संख्या 18 हजार है। हालांकि गुजरात शासन अब तक पूरे गुजारत में मरने वालों की संख्या 17 हजार ही बता रहा है। श्री सोनी ने 30 जनवरी को मृतकों की यह संख्या बताई थी, जबकि तब भचाऊ के मलबों में सैकड़ों लाशें दबी पड़ी थीं। श्री सोनी ने अन्य तहसीलों में मरने वालों के आंकड़े भी बताए। उनके अनुसार भुज में 20 हजार, अंजार में 7 हजार, भचाऊ में 18 हजार, रापर में 5 सौ, रतनाल गांव में 3 सौ, अन्य 5 सौ लोग मौत के शिकार हुए। यदि इसी संख्या को जोड़ा जाए तो कुल मरने वालों का आंकड़ा 50 हजार तक पहुंच जाता है। जबकि इसमें गांधीधाम, अहमदाबाद के आंकड़े शामिल नहीं हैं। लेकिन लोग 50 हजार के आंकड़े को मानने के लिए तैयार नहीं है। जार्ज फर्नाडीज ने जिस दिन कहा कि गुजरात में एक लाख मौतें हुई हैं, इस दिन भी लोग श्री फर्नाडीज से असहमत थे। लोगों का कहना था कि मरने वालों की संख्या सवा लाख से डेढ़ लाख के बीच होगी। या फिर इससे भी ज्यादा।
इन लोगों के दावों का कोई आधार नहीं है। सिर्फ वे परिस्थितियां हैं, जो अब वहां सामने नजर आती हैं। करीब-करीब हर गांव और शहर में मलबों में दबी पड़ी लाशें। आधार तो गुजरात प्रशासन के पास भी नहीं है। पूरे कच्छ जिले में पूरा प्रशासन ठप पड़ा हुआ है। 31 जनवरी की सुबह अंजार में मैंने वहां के डिप्टी कलेक्टर श्री सरवैया को अपने अधीनस्थ कर्मचारी को एक ऐसा निर्देश देते सुना, जिससे स्पष्ट होता है कि शासन को न तो मौतों की जानकारी है और न ही अंदाजा। श्री सरवैया निर्देश दे रहे थे कि एक सर्कुलर जारी कर लोगों से कहा जाए कि वे प्रशासन के पास मौतों का आंकड़ा दर्ज कराएं। उन्हें यह भी कहते सुना गया कि लोग आंकड़े दर्ज नहीं करा रहे हैं। ध्यान दें, 31 जनवरी तक भूकंप के झटके को गुजरे 4 दिन हो चुके थे। इन 4 दिनों में अंजार की बची-खुची जनता पलायन कर चुकी थी और उनमें से भी बचे-खुचे लोग राहत शिविरों में शारीरिक और मानसिक रूप से घायल पड़े थे। यह एक शहर का ही किस्सा है, उन गांवों की बात ही छोड़िए जहां तबाही के हफ्तेभर बाद भी कोई सरकारी नुमाइंदा नहीं पहुंचा। न तो जिंदा लोगों की सांसे गिनने और न ही मुर्दा हो जुके जिस्मों की गिनती करने। जिसे जहां लाश मिल रही थी, वही वहीं उसका अंतिम संस्कार कर रहा था। न तो पोस्टमार्टम की जरूरत थी और न ही पुलिसिया औपचारिकताओं की। कौन मरा, कैसे मरा, कब मरा, भूकंप से मरा या किसी और वजह से, किसी को क्या खबर। प्रशासन को भी कैसे खबर होती।
जब मैं वहां था तब एक गुजराती समाचार पत्र ने एक समाचार प्रकाशित किया था। उसका शीर्षक कुछ इस प्रकार था-मौंते इतनी हुईं कि आप कल्पना ही कर सकते हैं।
गुजरात में मौतों को बताने का शायद यही सबसे अच्छा तरीका रह गया था। कच्छ के शहरों और श्मशानों की सरहद समाप्त हो गई थी। शहर ही कब्रिस्तान और श्मशान बने हुए थे। भचाऊ में मैं और महाराष्ट्र के गांवकरी अखबार के रिपोर्टर विजय हंसराज साथ-साथ मलबों को लांघ रहे थे। शहर के कई रास्ते अब इन्हीं मलबों से गुजरते थे। भचाऊ की बहुत सी जनता तो पलायन कर चुकी है, बहुत सी राहत शिविरों में है और कुछ लोग हैं जो अब भी मलबों के शहर में तंबू तानकर रह रहे हैं। ये वे लोग हैं जिनके कीमती सामान मलबों में दबे हुए हैं और जिन्हें चोरी होने की आशंका है। इन्हीं तंबुओं के बीच-बीच में राख के ढेर नजर आते हैं। तंबुओं में रहने वाले लोगों ने बताया कि ये राग के ढेर उन लोगों की चिताएं हैं, जो भूकंप में मारे गए। जिस घर से लाश मिली उसी घर की चौखट के सामने सामाजिक कार्यकर्ता और सेना के जवान लाश का अंतिम संस्कार कर देते हैं। लाशों का वारिस मिला तो ठीक, न मिला तो भी ठीक। शहर को सड़ी-गली लाशों से होने वाली महामारी से बचाने के लिए यह तरीका उचित भी है। जब शहर ही श्मशान बन गया तो किसी और श्मशान की क्या जरूरत। भचाऊ में एक ऐसी लाश देखने को मिली, जिसके अंतिम संस्कार के तरीके को देखकर ही शरीर में सुरसुरी फैल गई। यह लाश एक दुकान की शटर के नीचे दबी हुई थी। आधा शरीर अंदर था और आधा बाहर। कटर के अभाव में ऐसा कोई तरीका नहीं था कि लाश बाहर निकाली जा सके। स्वयंसेवकों ने लाश का उसी हालत में अंतिम संस्कार कर दिया। यानी आधी लाश का अंतिम संस्कार। जितनी की शटर के बाहर नजर आ रही थी। इस बदनसीब आदमी का नाम नहीं मालूम हो पाया। इतना ही पता चला कि वह एक व्यापारी था। मुझे बताया गया कि 26 जनवरी को जब भूकंप के झटकों से इमारत हिल रही थी तब उस व्यापारी ने जल्दी-जल्दी अपने बच्चों और पत्नी को बाहर निकाला। लेकिन जब खुद निकलने का प्रयास कर रहा था तब इमारत भरभराकर उस पर गिर पड़ी और वह वहीं दब गया।

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