देखिए पूँजी का खेल जब शुरू होता है तब इस तरह की बातें आती हैं। बाज़ार समाहित होने से संपादक का वर्चस्व घटा अवश्य है, पर समाप्त नहीं कहा जा सकता। एक जमाने में बनारसीदास चतुर्वेदी, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद हंस के संपादक थे, तो संपादक के नाम पर पत्रिका जानी जाती थी, मालिक का कोई अता-पता नहीं रहता था। सरस्वती जो पत्रिका थी, इन्डियन प्रेस से निकलती थी। मालिक का नाम कोई नहीं जानता था, सब महावीर प्रसाद द्विवेदी को ही जानते थे। आज बड़े-बड़े अख़बारों में संपादक अज्ञात है, मालिक जिसको चाहता है रखता है। आज एक आता है, कल उसे हटा कर दूसरा रख दिया जाता है, संपादक जैसे नौकर हो गया है पूँजी का और मालिक का। जब तक पूँजी का राज्य रहेगा तब तक गुण सत्ता की क्या भूमिका हो सकती है। किसी पेन्टर की पेन्टिंग 20 लाख में बिक गई तो वह बड़ा कलाकार है और एक अज्ञात कुलशील जो गाँव में रहकर पेंटिंग करता है, कभी प्रदर्शनी नहीं लगाता है मुम्बई की आर्ट गैलरी में , उसकी पेन्टिंग नहीं बिकती, तो वह छोटा कलाकार है। पूँजी जिसे सराहे, वह धनवान, वही मूल्यवान समझा जाता है। पूँजी जिसकी उपेक्षा करे, वह नाकारा है। ये खेल है। तब हंस उनके नाम से जानी जाती थी। और भी बहुत सी पत्रिकाएं हैं, पत्र हैं जो संपादन के लिए ही जाने जाते हैं। अब अख़बारों में मालिकों का हस्तक्षेप ज्यादा है। संपादक को पूँजी का नौकर बनना पड़ रहा है। प्रेमचंद ने महाजनी सभ्यता कहा था तो सारा समाज महाजनी है । जब उसका निदान खोजा जाएगा तब इसके उपाय मिलेंगे।
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