रविवार, 19 दिसंबर 2010

लालाजी का भीतर और बाहर सबकुछ निर्मल और पारदर्शी जल जैसा

हरिहर वैष्णव
प्रायः ऐसा होता है कि हमें किसी को जानने के लिये उसका गहन अध्ययन करना पड़ता है। उसे बहुत करीब से और भीतर तक पढ़ना पड़ता है। और इस प्रक्रिया में एक लम्बा समय निकल जाता है। कभी-कभी तो पूरा का पूरा जीवन ही निकल जाता है और हम कुछ लोगों को समझ ही नहीं पाते। कोई बाहर से कुछ होता है तो भीतर से कुछ और। आप पढ़ते कुछ हैं और लिखा कुछ और ही होता है। .... और आपका अध्ययन बेकार हो जाता है। लेकिन यदि मैं यह कहूँ कि ऐसे लोगों में लालाजी, यानी बस्तर के यशस्वी और तपस्वी साहित्यकार लाला जगदलपुरीजी को शुमार करना उचित नहीं होगा तो मैं कहीं गलत नहीं होऊँगा। कारण, लालाजी का बाह्य और अन्तर दोनों एक समान है। उनका व्यक्तित्व पारदर्शी है। उन्हें पढ़ने के लिये न तो आपको घंटों लगेंगे, न दिन और महीने या साल। केवल कुछ पल... और लालाजी का भीतर और बाहर सबकुछ आपके सामने किसी झरने के निर्मल और पारदर्शी जल जैसा झलकने लगेगा। जो कुछ उनके लेखन में है, वही उनके व्यक्तित्व में भी। लेखन खरा है तो व्यक्तित्व भी खरा। इसीलिये उन्हें समझना बहुत ही सहज है।

बात १९७२-७३ की होगी। मैं बी.ए. प्रथम वर्ष का छात्र था। यों तो कविताएँ मैं १९७०-७१ से लिखने लगा था किन्तु प्रकाशन के नाम पर शून्य था। तो मैंने अपनी 'धनाकर्षण' शीर्षक एक कविता जगदलपुर से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र ‘अंगारा' में प्रकाशनार्थ भेज दी और सुखद आश्चर्य! कि वह कविता उस पत्र में प्रकाशित हो गयी। यह मेरा पहला प्रकाशन था। प्रकाशन के कुछ ही दिनों के भीतर उसके सम्पादक का पत्र भी मिला। सम्पादक थे लाला जगदलपुरी जी। नाम तो बहुत सुना था किन्तु उनके दर्शन का सौभाग्य तब तक नहीं मिल पाया था। उनका पत्र पा कर हौसला बढ़ा। एक दिन मैं अपने मित्र भाई केसरी कुमार सिंह के साथ उनके दर्शन करने पहुँच गया। उन्होंने यह जान कर कि उस कविता का कवि मैं हूँ, मेरी पीठ थपथपायी और कहा, अच्छी रचना है। लिखते रहो। आगे और अच्छा लिखोगे, ऐसा मेरा विश्वास है।' मेरे लिये उनका यह आशीर्वाद किसी अनमोल रत्न से कम नहीं था। आज भी कम नहीं है। और उसके बाद लालाजी से सम्पर्क का सिलसिला चल निकला। मेरी कई रचनाओं के परिमार्जन में लालाजी ने पूरे मन से समय दिया। भी कुछ वर्षों तक भी वे उसी दुलार और स्नेह के साथ मेरी रचनाओं को ठीकठाक करने में अपना महत्त्वपूर्ण समय देते रहे हैं। यह मेरे लिये न केवल सौभाग्य अपितु गौरव की भी बात है। यहाँ यह कहना ज्यादा समीचीन होगा कि वे प्रत्येक उस रचनाकार की रचना को बड़े ही ममत्व से पढ़ते और उस पर अपना रचनात्मक सुझाव देते हैं, जो उनसे अपनी रचना को देख लेने का आग्रह करता है। ऐसे रचनाकारों में सुप्रसिद्घ आलोचक डॉ. धनञ्जय वर्मा, सुरेन्द्र रावल, योगेन्द्र देवांगन, लक्ष्मीनारायण पयोधि और त्रिलोक महावर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। यह अलग बात है कि ऐसे रचनाकारों में से कई उनके इस अवदान को भुला चुके हैं। किन्तु इसमें लालाजी का भला क्या दोष?

किन्तु वे दोषी हैं। और उनका दोष यह है कि वे निर्दोष हैं। सच ही तो है, निर्दोष होना ही तो आज के युग में दोष है। वे निर्लिप्त हैं, प्रचारप्रसार से कोसों नहीं बल्कि योजनों दूर रहने में भरोसा करते हैं। वे दोषी इस बात के भी हैं कि वे सरकारी सुविधायें नहीं झटक सके जबकि उनके चरणों की धूलि से भी समानता करने में अक्षम लोगों ने सारी सरकारी सुविधाएँ बटोर लीं। यदि स्वाभिमानी होना गलत है, तो वे गलत हैं। कारण, स्वाभिमान तो उनमें कूटकूट कर भरा है। साहित्य की साधना करना दोष है तो वे दोषी हैं, क्योंकि वे तो साहित्यसाधक हैं; तपस्वी हैं। एकनिष्ठ होना यदि दोष है तो वे दोषी हैं, क्योंकि उनका एकमात्र उद्यम है साहित्यसाधना। साहित्य की राजनीति और गुटबाजी से पने आप को दूर रख कर रचनाकर्म में लगे रहना यदि दोष है तो लालाजी दोषी हैं, क्योंकि न तो उन्होंने साहित्य की राजनीति को पने पास फटकने दिया और न गुटबाजी की दुर्गन्ध की ओर कभी नाक ही दी। अपने आप को प्रगतिशील, जनवादी और न जाने किनकिन अलंकरणों से सुसज्जित करने में लगे कुछ नौसीखियों की दृष्टि में लालाजी बुर्जुवा हैं। लेकिन ऐसे महानुभावों को सम्भवतः यह पता नहीं कि लालाजी कितने प्रगतिशील और जनवादी हैं। ऐसे लोगों की बुद्घि पर गुस्सा नहीं मात्र तरस आती है। गीदड़ यदि शेर की खाल ओढ़ ले तो थोड़ी देर के लिये भ्रम की स्थिति तो निर्मित हो सकती है किन्तु क्या वह इतने से ही शेर बन सकता है? लालाजी तो शेर हैं। उनकी खिल्ली गीदड़ उड़ा लें तो क्या फर्क पड़ता है भला?

जगदलपुर की सड़कों पर छाता लिये, धोती का एक सिरा उँगलियों के बीच दबा पैदल घूमते लालाजी का मन हुआ तो घुस गये किसी होटल में नाश्ता करने के लिये ऑर मन हुआ तो वहीं सड़क के किनारे खोमचे के पास खड़ेखड़े ही कुछ खा पी लिया। शहर में एक छोटे से बच्चे से ले कर बड़े बूढ़े तक सभी तो पहचानते हैं उन्हें। यह अलग बात है कि पढ़े लिखे लोग लालाजी और अनपढ़ से लोग लाला ‘डोकरा' के नाम से जानते हैं। कुछ वर्षों पूर्व स्कूटर पर से गिर जाने के बाद से वे प्रायः पैदल नहीं चलते। रिक्शे से आते जाते हैं। शहर के सारे रिक्शे वाले उनके घर से भली भाँति परिचित हैं और एक बँधी बँधायी किन्तु रियायती रकम ही उनसे लेते हैं। इस तरह रिक्शे वाले भी उनके प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित करते हैं। संवेदनशील इतने कि आज ९१ वर्ष की आयु में भी उन्हें अपनी माता की याद सताती है। वे अपनी स्वर्गीया माता को याद करके किसी शिशु की तरह भावविह्वल हो जाते हैं। दूसरों का ध्यान इतना अधिक रखते हैं कि कोई सगा भी क्या रखता होगा। अभी पिछले वर्ष नवम्बर में मैं जब उनसे मिला था तो वे अपनी स्मरणशक्ति के क्षीण होते जाने को ले कर बहुत परेशान थे। उनकी परेशानी यह थी कि यदि किसी ने उन्हें देख कर नमस्कार किया तो उन्होंने उस नमस्कार का जवाब दिया या नहीं। वे कहने लगे थे, मैं व्यथित हो जाता हूँ जब मुझे यह स्मरण नहीं रहता कि मैंने मेरा अभिवादन करने वाले महानुभाव को उसके अभिवादन का प्रत्युत्तर दिया अथवा नहीं। एक अपराध बोध होता है और आत्मा कचोटती है कि यदि मैंने नमस्कार का जवाब नमस्कार से नहीं दिया तो यह अवश्य ही उस व्यक्ति का मेरे -द्वारा किया गया अपमान ही होगा। मैं इसी बात को ले कर चिन्तित रहा करता हूँ।'
साक्षात्कारों से लालाजी प्रायः दूर रहते आये हैं। उनका कहना रहा है कि साक्षात्कार ले कर कोई क्या करेगा? आप हमसे रचनाएँ लीजिये। साक्षात्कार में क्या रखा है?' वे कहते हैं।

वर्षों पूर्व बस्तर पर पुस्तक लिखने के लिये एक तथाकथित और स्वयंभू साहित्यकार को मध्यप्रदेश शासन ने किसी प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारीसी सारी सुविधाएँ और धनराशि मुहैया करवायी किन्तु उन्होंने क्या और कैसा लिखा, आज तक कोई नहीं जानता। किन्तु सुविधाओं और आर्थिक सहायता के बिना लालाजी ने बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति' तथा बस्तर लोक : कला एवं संस्कृति', बस्तर की लोक कथाएँ', बस्तर की लोकोक्तियाँ', हल्बी लोक कथाएँ', आंचलिक कविताएँ', मिमियाती ज़िंदगी दहाड़ते परिवेश' आदि महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का प्रणयन कर यह सिद्घ कर दिया कि शासकीय सहायता के बिना भी काम किया जा सकता है। और किसी भी तरह की सहायता का मुखापेक्षी होना सृजनात्मकता को निष्क्रिय कर देता है। यही कारण है कि राजकीय सहायता का मुखापेक्षी होना लालाजी को कभी रास नहीं आया। राजभाषा एवं संस्कृति संचालनालय से मिलने वाली सहायता राशि के सन्दर्भ में प्रतिवर्ष माँगे जाने वाले जीवन प्रमाणपत्र के विषय में लालाजी ने स्पष्ट कह दिया था कि उनसे उनके जीवित होने का प्रमाणपत्र न माँगा जाये। शासन उन्हें जीवित समझे तो सहायता राशि दे अन्यथा बन्द कर दे। उनका कहना था कि सहायता माँगने के लिये उन्होंने शासन से कोई याचना नहीं की थी और न करेंगे। वे कहते हैं कि उनकी अर्थव्यवस्था आकाश वृत्ति पर निर्भर करती है।

पिछले कुछ वर्षों से वे मौन साध लेने को अधिक उपयुक्त मानने लगे हैं। मैंने काफी दिनों से उनका कोई पत्र न आने पर जब उनसे शिकायत की तो उन्होंने मुझे अपने दिनांक १८.०१.०४ के पत्र में लिखा : ....परिस्थितियों ने इन दिनों मुझे मौन रहने को बाध्य कर दिया है। चुप्पी ही विपर्यय की महौषधि होती है। मेरे मौन का कारण तुम नहीं हो।'

कोई रचना उन्हें भा जाये तो रचनाकार की तारीफ करने में वे कंजूसी बिल्कुल ही नहीं करते। बस्तर की वाचिक परम्परा पर केन्द्रित मेरी पुस्तकों के विषय में उन्होंने अपने एक पत्र में लिखा, बस्तर के लोक साहित्य को समर्पित तुम्हारे चिन्तन, लेखन और प्रकाशन की सारस्वतसेवा का मैं पक्षधर और प्रशंसक हूँ। बधाई शुभकामनाएँ।'' आज जब हम थोथी आत्ममुग्धता के चरम पर हैं और दूसरों की सृजनात्मकता और उपलब्धि हमारे लिये सबसे बड़ा दुःख का कारण हो गयी हैः लालाजी की यह औदार्यपूर्ण प्रतिक्रिया मायने रखती है।

लालाजी ने जो कुछ लिखा उत्कृष्ट लिखा। बस्तर की संस्कृति और इतिहास पर कलम चलायी तो उसकी प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगे ऐसी सम्भावना से भी उसे छूता रखा। यही कारण है कि उनके बस्तर सम्बन्धी लेखों की प्रायः चोरी होती रही है। चोरों में बड़े नाम भी शामिल रहे हैं। नामोल्लेख के बिना कहना चाहूँगा कि यह चोरी लगातार और धड़ल्ले से होती रही है। आज भी जारी है। भी पिछले वर्ष एक महाविद्यालय द्वारा प्रकाशित तथाकथित ग्रन्थ में भी बस्तर दशहरा पर लालाजी का पूर्व प्रकाशित लेख जस का तस किसी और ने चुरा कर अपने नाम से प्रकाशित करा लिया है। ऐसी ही चोरियों के सन्दर्भ में जब मेरी उनसे बातचीत हो रही थी तब लालाजी कहने लगे थे, हमें इस बात का गौरव है कि हमने कुछ ऐसा लिखा कि लोग उसे चुराने लगे हैं। चोरी तो बहुमूल्य और महत्त्वपूर्ण वस्तुओं की ही होती है, न?'



घोटुल पर लोगों ने ऊलजलूल लिखा और बस्तर की इस महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर के विषय में भ्रामक प्रचार किया। उसे लांछित किया। किन्तु लालाजी ने घोटुल की आत्मा को समझा और सच्चाई लिखी। अपनी बहुचर्चित पुस्तक बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति'' के लेखकीय में वे कहते हैं, मैं शास्त्रीय लेखन का धनी नहीं हूँ। बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति' में मेरा अनुभवलेखन संकलित है। ग्रियर्सन, ग्रिग्सन, ग्लासफर्ड और एल्विन आदि जिन विख्यात मनीषियों के उद्घरण देदे कर तथ्यों की पुष्टि की जाती है, उन्होंने जिन क्षेत्रीय रचे बसे लोगों से पूछताछ कर प्रामाणिक सामग्री जुटायी थी, अंचल के वैसे ही लोग मेरे तथ्य प्रदाता भी रहे थे। लेखकीय दृष्टि मेरी स्वतः की है।'' क्या इतनी ईमानदारी किसी और लेखक के आत्मस्वीकार में मिल पाती है? वे बस्तर के बेजुबान लोगों के विषय में इसी लेखकीय में आगे कहते हैं, प्रकृति की खुली पुस्तक में मैंने बस्तर के विगत वनवासी जीवनदर्शन का थोड़ा सा आत्मीय अध्ययन किया है। एक ऐसा लोकजीवन मेरी सृजनशीलता को प्रभावित करता आ रहा है, जिसने जाने नजाने प्रबुद्घ समाज को बहुत कुछ दिया है और जिसके नाम पर गुलछर्रे उड़ाये जाते थे। लँगोटियाँ छिन जाने के बावजूद भी जिसे लँगोटियाँ अपनी जगह सही सलामत मालूम पड़ती थीं। सोचिये, आदमी सामने है। उसका कण्ठ गा रहा है, उसके होंठ मुस्करा रहे हैं और चेहरा उत्फुल्लता निथार रहा है। उसका शरीर गठा हुआ है। समझ में यह नहीं आता कि उसकी इस मस्ती का कारण क्या है? उसकी इस निश्चिंन्तता का रहस्य क्या है? जबकि उसका उत्तरदायित्व बड़ा है और उसके घर कल के लिये भोजन की कोई व्यवस्था नहीं है। उसके नसीब में केवल श्रम ही श्रम है, दुःख ही दुःख है, परन्तु वह दुःख को सुख की तरह जी रहा है। उसका यह जीवनदर्शन कितना प्रेरक है......सोचिये।''

लालाजी के लिये कोई भी व्यक्ति बुरा नहीं है। देखें उनकी कविता सब अच्छे हैं' की कुछ पंक्तियाँ :

किस किस की बोलें बतियाएँ, सब अच्छे हैं,
आगे पीछे, दाएँ बाएँ सब अच्छे हैं।
सबको खुश रखने की धुन में सबके हो लें,
मिल बैठें सब, पियें पिलायें सब अच्छे हैं।

यह कहना होगा कि यदि हममें अक्षरादित्य लालाजी का स्वाभिमान, उनकी ईमानदारी, उनकी सच्चाई और लगन, परिश्रम तथा निष्ठा का एक छोटा सा अंश भी आ जाये तो यह हमारे लिये बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। आज के इस कठिन दौर में लालाजी जैसा व्यक्तित्व मिल पाना सहज नहीं है। हम सब सौभाग्यशाली हैं कि हमें उनका नैकटय सहज ही उपलब्ध है। इसके लिये हमें लालाजी का आभारी होना चाहिये।

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हरिहर वैष्णव
सरगीपाल पारा, कोंडागाँव ४९४२२६, बस्तर (छ.ग.)
(sahitya shilpi se sabhar)

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