संविधान सभा के लिए सादर
- आलेख- डॉ.रमन सिंह
सन् उन्नीस सौ छियालीस में आज ही के दिन याने (09 दिसम्बर को ) संविधान सभा की पहली बैठक नईदिल्ली में हुई थी । यूं तो इस सभा के पहले भी परतंत्र भारत में प्रतिनिधि सभाएं समय-समय पर चुनी जाती रही मगर इसे समय ने एक कठिन चुनौती दी । इसके कार्यकाल में देश आजाद हुआ । 15 अगस्त 1947 की देर रात को संविधान सभा की एक ऐतिहासिक बैठक हुई और देखते ही देखते इसने स्वतंत्र भारत की विधानसभा के तौर पर देश की कमान संभाली । 389 सदस्योंवाली इस सभा में कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, दलित लीग, वीमेन्स कान्फ्रेन्स, जमीदार सभा के अध्यक्ष, अनुसूचित जाति फेडरेशन और एंग्लो इंडियन संगठन के नेता शामिल थे। अंग्रेजों की फूट डालो नीति के तहत आपसी विरोध में खड़े किए गए जितने भी वर्ग और समुदाय थे-प्राय: सभी इसमें शामिल थे। इसके बावजूद इन प्रतिनिधियों ने जो कर दिखाया वह राष्ट्रीय एकता की बुनियाद बन गया ।
29 अगस्त 1947 को संविधान सभा ने आजाद भारत का संविधान तैयार करने के लिए एक प्रारूपण समिति बनाई। डॉ. भीमराव अम्बेडकर इसके सभापति बने । कोई सवा साल की दिन रात मेहनत के बाद 26 नवम्बर 49 को संविधान अंगीकार हुआ और अगले साल 26 जनवरी से इसे लागू कर दिया गया । बस इसीदिन संविधान सभा विलीन होकर भारत की अन्तरिम संसद बन गई । 1952 में संविधान के तहत पहली चुनी गई संसद ने इसकी जगह ले ली । अपने एक ही कार्यकाल में जो बहुमुखी कार्य संविधान सभा ने कर दिखाए उनकी शायद ही संसार में कोई मिसाल मिलेगी।
सत्ता-अंतरण,देश का एकीकरण, बाहरी आक्रमण जातीय दंगे, अकाल और भुखमरी, सामाजिक कुरीतियां जैसी कितनी ही चुनौतियों से यह सभा जूझी और जीती । सामूहिक नेतृत्व और आपसी समझ का जो सदगुण इस सभा में देखने को मिला वह अद्भुत था । इसके सदस्य बेहद प्रतिभाशाली देश की नब्ज को समझने वाले और समय के सच को पहचानने वाले लोग थे । संविधान सभा की सबसे बड़ी उपलब्धि रही- संविधान! अपनी तमाम कमियों और विसंगतियों के बावजूद भारत के संविधान ने एक करिश्मा जरूर किया । द्वितीय विश्वयुध्द के बाद हमारे महाद्वीप में जितने देश बने, उनके संविधान भी बने । आश्चर्य कि बिना किसी अपवाद के इन सारे देशों में संविधानों को भारी उलटफेरों और कहीं-कहीं तो अकालमृत्यु का सामना करना पड़ा । कहीं फौजी शासकों ने सत्ता हथिया ली तो कहीं हित-समूहों ने व्यवस्था पर कब्जा जमा लिया । कोई देश धर्म की गोदी में जा गिरा तो कहीं का संविधान समुद्री डाकू उठा ले गए । लोकतंत्र लहूलुहान होकर उल्टी सांसे गिनने को विवश हुआ । ऐसा नहीं कि भारत इन संकटों से अछूता ही बना रहा हो । छै दशक से ज्यादा के संवैधानिक सफर में बाहरी आक्रमणों, विदेशी हस्तक्षेपों, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, भूख, गरीबी, अलगाववाद, अशिक्षा, कुपोषण, सत्ता की छीन-झपट, आपातकाल के अंधेरों और न जाने कितनी चुनौतियों ने भारत के संसदीय लोकतंत्र को निगलना चाहा । हर बार मगर देश बचा और इसका सर्वोच्च कानून संविधान अक्षुण्ण बना रहा । सौ से ज्यादा बार संशोधित होकर भी यह हमारे सपनों का दस्तावेज वैसा ही पवित्र और प्रासंगिक बना रहा, जैसा छह दशक पहले था।
संविधान का लचीलापन और इसके निर्वचन (इन्टरप्रटेशन) की असीमित गुंजाइशों ने इसे टूटने-बिखरने से बचाए रखा । आज इसी संविधान की बदौलत संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र के पास बत्तीस लाख निर्वाचित शासकों की विशाल संसदीय सेना है । इसमें सभी जाति, धर्म, लिंग वंश, सम्प्रदाय, दल और पहचान रखने वाले लोग हैं । दस लाख से ज्यादा तो महिलाएं हैं जिनमें से अधिकांश घरों का चौका-चूल्हा संभालने के साथ साथ देश-समाज के लिए काम करती हैं । राष्ट्रपति, सभा नेता, लोकसभा अध्यक्ष, मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक, मेयर, पार्षद जैसे पदों को सुशोभित करने वाली महिलाएं हैं। एक तरह का बहुस्तरीय संघवाद बनाकर संविधान ने कुछ और कमाल कर दिखाए हैं । कुछ वामपंथी विचारक इस विचार की जोर-शोर से वकालत करते हैं कि प्रजातंत्र और विकास साथ-साथ नहीं चल सकते । भारत की 9 प्रतिशत सकल वार्षिक वृध्दि दर और छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेशों की 11 प्रतिशत से ज्यादा की विकास दर ने ऐसे विचारकों की बोलती बंद कर दी है । समाजवादी संवैधानिक उद्देश्यों को सामने रखकर भी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से किस प्रकार निम्न और मध्यवर्ग को फायदा पहुंचाया जा सकता है- इसका एक उदाहरण हमने दुनिया के सामने रखा है । यह उपलब्धि तब हैं जब आर्थिक विकास के मोर्चे पर हम हित-समूहों के दबावों, तमाम भ्रष्टाचारों, पड़ोसी देशों के नापाक इरादों और नक्सलवादी करतूतों से त्रस्त हैं । सोचिए, यदि इन संकटों से उबर सकें तो क्या संविधान के नीति-निर्देशक सिध्दान्तों को व्यवहार के धरातल तक उतारने में हमें कितनी देर लगेगी ?
कुछ दशक पहले जब हमारी आबादी आज की तुलना में एक तिहाई थी तो खाने-पीने की चीजों के लिए हम विदेशों का मुंह ताकते थे । वाहन, एयर कंडीशनर, मशीनरी, चिकित्सा उपकरण वगैरह का अधिकांश हिस्सा आयात होता था । आज दृश्य बदल गया । हम न सिर्फ कृषि उत्पादों बल्कि औद्योगिक सामानों और सॉफ्टवेयरों का जबर्दस्त निर्यात करने की स्थिति तक जा पहुंचे हैं। विदेशी पूंजी का उपयोग कई क्षेत्रों में आश्चर्यजनक ढंग से देशहित में होता दिखाई दे रहा है । सिर्फ अर्थव्यवस्था नहीं बल्कि न्यायिक, बौध्दिक और मीडियाई क्षेत्रों में भी अनुकरण और अंत: क्रिया की वजह से लाभप्रद परिवर्तन दिखने लगे हैं । नागरिकों का रूझान धर्म, साम्प्रदायिकता, जातिगत उन्माद, क्षेत्रीय आग्रहों को लेकर मध्दम पड़ा है । गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार जैसे राज्यों में मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टियां विकास के नाम और काम के बल पर सफल हो पाई हैं । इस तरह की प्रवृत्ति संसदीय लोकतंत्र और संविधान दोनों के लिए माकूल है । लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू हमें निराश करता है । ऐसे जीवंत और जीवटवाले लोकतंत्र को विफल करने की लगातार कोशिशें हो रही हैं । सत्तारूढ़ दल संसद को सारहीन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे । संसद का शीतकालीन सत्र इसका चिन्ताजनक उदाहरण है । एक वह संविधान सभा थी जिसने इतनी रचनात्मक भूमिका निभाई थी और एक मौजूदा संसद है । विपक्ष जहां लगातार यह मांग कर रहा है कि दूरसंचार घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनाई जाए वहीं सरकार चाहती है कि जांच लोकसभा की लोक लेखा समिति करे । दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं, जिनके गुण दोषों पर खुद संसद में विचार किया जा सकता था । मगर, संसद की तो कार्यवाही ही ठप कर दी गई ।
जहां तक घोटाले की जांच संयुक्त समिति से कराने की मांग है- वह स्थापित परम्पराओं के मुताबिक है। चूंकि ऐसी समिति स्पष्ट निर्देश-बिन्दुओं के आधार पर जांच करेगी और निश्चित समय में अपनी रिपोर्ट तैयार कर देगी इसलिए भी यह मांग वाजिब है । इसमें सभी राजनीतिक दलों का आनुपातिक प्रतिनिधित्व रखकर इसे विश्वसनीय और व्यापक आधारवाली इकाई बनाया जा सकता था । चूंकि यह एक तदर्थ समिति होगी इसलिए इसकी रिपोर्ट पर सदनों में चर्चा भी होगी । सदन स्वयं इसके प्रतिवेदन पर एक्शन टेकन (की गई कार्यवाही) को लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा करने की स्थिति में होगी । जिस मामले को लेकर विवाद है उसमें स्पष्ट रूप से एक मंत्री का आचरण संदेह के घेरे में है । यूं भी मंत्रियों के कदाचरण के मामले विशिष्ठ रूप से गठित समितियों को सौंपे जाने की परिपाटी रही है । सरकार मामले की लोकसभा द्वारा गठित लोक लेखा समिति से कराने को तैयार है जिसमें राज्यसभा के सदस्य नहीं होंगे । फिर यह समिति महालेखाकार द्वारा सुझााए गई ऑडिट कण्डिकाओं तक अपने परीक्षण को सीमित रखती है । यह किसी मंत्री या पूर्व मंत्री का साक्ष्य नहीं लेती, सिर्फ मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों से पूछताछ करती है । इसकी प्रक्रिया इतनी जटिल है कि समिति का प्रतिवेदन आने, उस पर सरकार की कार्यवाही होने और फिर उसका पालन-प्रतिवेदन आने तक तो लोकसभा का कार्यकाल ही खत्म हो जाएगा । कहने को विपक्ष के ही वरिष्ठ नेता लोकलेखा समिति के सभापति होते हैं लेकिन इसी वजह से वह दोनों सदनों के सभी विपक्षी दलोें का प्रतिनिधित्व नहीं करते ।
यदि केन्द्र सरकार सचमुच गंभीर है तो मामले में हुए सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के मद्देनजर भी उसे दूध-का दूध और पानी का पानी कराना पड़ेगा । देश की सर्वोच्च पंचायत की संयुक्त समिति मामले की तह में जाने के अलावा जल्द-से-जल्द पूरे देश को विश्वास में लेने का एक सबब बनेगी । इसकी मांग स्वीकार करने से संसदीय लोकतंत्र के पक्ष में संकेत जाएंगे ।
दरअसल आज संविधान सभा को श्रध्दा से याद करना इसलिए जरूरी है क्योंकि हमारे प्रतिनिधियों के आचरण से देश के संसदीय लोकतंत्र पर खरोचें आ रही हैं । जब कभी विवेक लड़खड़ाए तो थमकर पीछे की तरफ नजर डाल लेना जरूरी होता हैं । हमारी संविधान सभा ने अपने गंभीर कार्य आचरण से जो मिसाल कायम की है, उसे इतनी जल्दी और आसानी से नहीं भुलाया जाना चाहिए । संसद की विश्वसनीयता उसकी सक्रियता और सत्य के प्रति उसका आग्रह कभी मंद नहीं पड़ना चाहिए ।
29 अगस्त 1947 को संविधान सभा ने आजाद भारत का संविधान तैयार करने के लिए एक प्रारूपण समिति बनाई। डॉ. भीमराव अम्बेडकर इसके सभापति बने । कोई सवा साल की दिन रात मेहनत के बाद 26 नवम्बर 49 को संविधान अंगीकार हुआ और अगले साल 26 जनवरी से इसे लागू कर दिया गया । बस इसीदिन संविधान सभा विलीन होकर भारत की अन्तरिम संसद बन गई । 1952 में संविधान के तहत पहली चुनी गई संसद ने इसकी जगह ले ली । अपने एक ही कार्यकाल में जो बहुमुखी कार्य संविधान सभा ने कर दिखाए उनकी शायद ही संसार में कोई मिसाल मिलेगी।
सत्ता-अंतरण,देश का एकीकरण, बाहरी आक्रमण जातीय दंगे, अकाल और भुखमरी, सामाजिक कुरीतियां जैसी कितनी ही चुनौतियों से यह सभा जूझी और जीती । सामूहिक नेतृत्व और आपसी समझ का जो सदगुण इस सभा में देखने को मिला वह अद्भुत था । इसके सदस्य बेहद प्रतिभाशाली देश की नब्ज को समझने वाले और समय के सच को पहचानने वाले लोग थे । संविधान सभा की सबसे बड़ी उपलब्धि रही- संविधान! अपनी तमाम कमियों और विसंगतियों के बावजूद भारत के संविधान ने एक करिश्मा जरूर किया । द्वितीय विश्वयुध्द के बाद हमारे महाद्वीप में जितने देश बने, उनके संविधान भी बने । आश्चर्य कि बिना किसी अपवाद के इन सारे देशों में संविधानों को भारी उलटफेरों और कहीं-कहीं तो अकालमृत्यु का सामना करना पड़ा । कहीं फौजी शासकों ने सत्ता हथिया ली तो कहीं हित-समूहों ने व्यवस्था पर कब्जा जमा लिया । कोई देश धर्म की गोदी में जा गिरा तो कहीं का संविधान समुद्री डाकू उठा ले गए । लोकतंत्र लहूलुहान होकर उल्टी सांसे गिनने को विवश हुआ । ऐसा नहीं कि भारत इन संकटों से अछूता ही बना रहा हो । छै दशक से ज्यादा के संवैधानिक सफर में बाहरी आक्रमणों, विदेशी हस्तक्षेपों, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, भूख, गरीबी, अलगाववाद, अशिक्षा, कुपोषण, सत्ता की छीन-झपट, आपातकाल के अंधेरों और न जाने कितनी चुनौतियों ने भारत के संसदीय लोकतंत्र को निगलना चाहा । हर बार मगर देश बचा और इसका सर्वोच्च कानून संविधान अक्षुण्ण बना रहा । सौ से ज्यादा बार संशोधित होकर भी यह हमारे सपनों का दस्तावेज वैसा ही पवित्र और प्रासंगिक बना रहा, जैसा छह दशक पहले था।
संविधान का लचीलापन और इसके निर्वचन (इन्टरप्रटेशन) की असीमित गुंजाइशों ने इसे टूटने-बिखरने से बचाए रखा । आज इसी संविधान की बदौलत संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र के पास बत्तीस लाख निर्वाचित शासकों की विशाल संसदीय सेना है । इसमें सभी जाति, धर्म, लिंग वंश, सम्प्रदाय, दल और पहचान रखने वाले लोग हैं । दस लाख से ज्यादा तो महिलाएं हैं जिनमें से अधिकांश घरों का चौका-चूल्हा संभालने के साथ साथ देश-समाज के लिए काम करती हैं । राष्ट्रपति, सभा नेता, लोकसभा अध्यक्ष, मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक, मेयर, पार्षद जैसे पदों को सुशोभित करने वाली महिलाएं हैं। एक तरह का बहुस्तरीय संघवाद बनाकर संविधान ने कुछ और कमाल कर दिखाए हैं । कुछ वामपंथी विचारक इस विचार की जोर-शोर से वकालत करते हैं कि प्रजातंत्र और विकास साथ-साथ नहीं चल सकते । भारत की 9 प्रतिशत सकल वार्षिक वृध्दि दर और छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेशों की 11 प्रतिशत से ज्यादा की विकास दर ने ऐसे विचारकों की बोलती बंद कर दी है । समाजवादी संवैधानिक उद्देश्यों को सामने रखकर भी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से किस प्रकार निम्न और मध्यवर्ग को फायदा पहुंचाया जा सकता है- इसका एक उदाहरण हमने दुनिया के सामने रखा है । यह उपलब्धि तब हैं जब आर्थिक विकास के मोर्चे पर हम हित-समूहों के दबावों, तमाम भ्रष्टाचारों, पड़ोसी देशों के नापाक इरादों और नक्सलवादी करतूतों से त्रस्त हैं । सोचिए, यदि इन संकटों से उबर सकें तो क्या संविधान के नीति-निर्देशक सिध्दान्तों को व्यवहार के धरातल तक उतारने में हमें कितनी देर लगेगी ?
कुछ दशक पहले जब हमारी आबादी आज की तुलना में एक तिहाई थी तो खाने-पीने की चीजों के लिए हम विदेशों का मुंह ताकते थे । वाहन, एयर कंडीशनर, मशीनरी, चिकित्सा उपकरण वगैरह का अधिकांश हिस्सा आयात होता था । आज दृश्य बदल गया । हम न सिर्फ कृषि उत्पादों बल्कि औद्योगिक सामानों और सॉफ्टवेयरों का जबर्दस्त निर्यात करने की स्थिति तक जा पहुंचे हैं। विदेशी पूंजी का उपयोग कई क्षेत्रों में आश्चर्यजनक ढंग से देशहित में होता दिखाई दे रहा है । सिर्फ अर्थव्यवस्था नहीं बल्कि न्यायिक, बौध्दिक और मीडियाई क्षेत्रों में भी अनुकरण और अंत: क्रिया की वजह से लाभप्रद परिवर्तन दिखने लगे हैं । नागरिकों का रूझान धर्म, साम्प्रदायिकता, जातिगत उन्माद, क्षेत्रीय आग्रहों को लेकर मध्दम पड़ा है । गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार जैसे राज्यों में मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टियां विकास के नाम और काम के बल पर सफल हो पाई हैं । इस तरह की प्रवृत्ति संसदीय लोकतंत्र और संविधान दोनों के लिए माकूल है । लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू हमें निराश करता है । ऐसे जीवंत और जीवटवाले लोकतंत्र को विफल करने की लगातार कोशिशें हो रही हैं । सत्तारूढ़ दल संसद को सारहीन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे । संसद का शीतकालीन सत्र इसका चिन्ताजनक उदाहरण है । एक वह संविधान सभा थी जिसने इतनी रचनात्मक भूमिका निभाई थी और एक मौजूदा संसद है । विपक्ष जहां लगातार यह मांग कर रहा है कि दूरसंचार घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनाई जाए वहीं सरकार चाहती है कि जांच लोकसभा की लोक लेखा समिति करे । दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं, जिनके गुण दोषों पर खुद संसद में विचार किया जा सकता था । मगर, संसद की तो कार्यवाही ही ठप कर दी गई ।
जहां तक घोटाले की जांच संयुक्त समिति से कराने की मांग है- वह स्थापित परम्पराओं के मुताबिक है। चूंकि ऐसी समिति स्पष्ट निर्देश-बिन्दुओं के आधार पर जांच करेगी और निश्चित समय में अपनी रिपोर्ट तैयार कर देगी इसलिए भी यह मांग वाजिब है । इसमें सभी राजनीतिक दलों का आनुपातिक प्रतिनिधित्व रखकर इसे विश्वसनीय और व्यापक आधारवाली इकाई बनाया जा सकता था । चूंकि यह एक तदर्थ समिति होगी इसलिए इसकी रिपोर्ट पर सदनों में चर्चा भी होगी । सदन स्वयं इसके प्रतिवेदन पर एक्शन टेकन (की गई कार्यवाही) को लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा करने की स्थिति में होगी । जिस मामले को लेकर विवाद है उसमें स्पष्ट रूप से एक मंत्री का आचरण संदेह के घेरे में है । यूं भी मंत्रियों के कदाचरण के मामले विशिष्ठ रूप से गठित समितियों को सौंपे जाने की परिपाटी रही है । सरकार मामले की लोकसभा द्वारा गठित लोक लेखा समिति से कराने को तैयार है जिसमें राज्यसभा के सदस्य नहीं होंगे । फिर यह समिति महालेखाकार द्वारा सुझााए गई ऑडिट कण्डिकाओं तक अपने परीक्षण को सीमित रखती है । यह किसी मंत्री या पूर्व मंत्री का साक्ष्य नहीं लेती, सिर्फ मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों से पूछताछ करती है । इसकी प्रक्रिया इतनी जटिल है कि समिति का प्रतिवेदन आने, उस पर सरकार की कार्यवाही होने और फिर उसका पालन-प्रतिवेदन आने तक तो लोकसभा का कार्यकाल ही खत्म हो जाएगा । कहने को विपक्ष के ही वरिष्ठ नेता लोकलेखा समिति के सभापति होते हैं लेकिन इसी वजह से वह दोनों सदनों के सभी विपक्षी दलोें का प्रतिनिधित्व नहीं करते ।
यदि केन्द्र सरकार सचमुच गंभीर है तो मामले में हुए सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के मद्देनजर भी उसे दूध-का दूध और पानी का पानी कराना पड़ेगा । देश की सर्वोच्च पंचायत की संयुक्त समिति मामले की तह में जाने के अलावा जल्द-से-जल्द पूरे देश को विश्वास में लेने का एक सबब बनेगी । इसकी मांग स्वीकार करने से संसदीय लोकतंत्र के पक्ष में संकेत जाएंगे ।
दरअसल आज संविधान सभा को श्रध्दा से याद करना इसलिए जरूरी है क्योंकि हमारे प्रतिनिधियों के आचरण से देश के संसदीय लोकतंत्र पर खरोचें आ रही हैं । जब कभी विवेक लड़खड़ाए तो थमकर पीछे की तरफ नजर डाल लेना जरूरी होता हैं । हमारी संविधान सभा ने अपने गंभीर कार्य आचरण से जो मिसाल कायम की है, उसे इतनी जल्दी और आसानी से नहीं भुलाया जाना चाहिए । संसद की विश्वसनीयता उसकी सक्रियता और सत्य के प्रति उसका आग्रह कभी मंद नहीं पड़ना चाहिए ।
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