मंगलवार, 30 नवंबर 2010

ये कविता नहीं, खबर है

खबर आई है
अनुज यादव बेमौत मर गया
कि टीबी की शिकार बीबी पद्मा का इलाज
कि घर का खर्चा
कि 11वीं में पढ़ रहे बेटे की पढ़ाई का खर्चा
आधा एकड़ खेत से निकाल न पाया
12 हजार 641 रुपए का कर्जा
पर 28 हजार 333 रुपए का ब्याज चढ़ा
और बैंक ने 40 हजार 974 रुपए पटाने की नोटिस भेज दी
ढाई एकड़ में से दो एकड़ खेती चढ़ गई गिरवी
बचे आधे एकड़ में जी न पाया तो मर गया
देवभोग के सरईपानी का अनुज बेमौत मर गया


खबर है कि कलेक्टर साहब जांच कर रहे हैं
देशभर में विकास के लिए अव्वल राज्य में
कोई किसान कर्जे से
ऐसे कैसे मर सकता है
सरकार सन्न हैं, मंत्री गंभीर
कैमरे यहां-वहां तन गए हैं
पिपली यहां कैसे लोकेट हो रही है भाई
देवभोग के सरईपानी गांव में
कहीं ये नक्सलियों की साजिश तो नहीं
बंदूक लिए घूम रहे हैं नये इलाकों में
सरकार के खिलाफ दुष्प्रचार करते
देवभोग की हीरा खदानों को हथियाने के फेर में
जांच जारी है
रिपोर्ट आने में अभी देर है शायद

सोमवार, 29 नवंबर 2010

दिक्कत लालाजी में नहीं है

संजीव भाई,

बरसों पहले छपी लालाजी की एक किताब
 ( फोटो-साहित्य शिल्पी से साभार)
आपने और राजीव ने जो मुहिम छेड़ी है उसके लिए साधुवाद। आपने मेरे ब्लाग पर टिप्पणी छोड़ी है, उसके लिए भी आभार। राजीव की इन पंक्तियों ने मुझे भीतर तक हिला दिया है कि यदि आप लालाजी को नहीं जानते तो मुक्तिबोध को भी नहीं जानते। आपने अपने ब्लाग में इसी लाइन को हेडिंग बनाया है। संजीव भाई, आप ही बताइए कि मैं लालाजी को जानूं भी तो कैसे जानूं। उनकी कृतियों तक कैसे पहुंचा जा सकता है। एक किताब कई साल पहले पढ़ी थी-बस्तर, इतिहास और संस्कृति। शायद मप्र साहित्य अकादमी ने प्रकाशित की थी। दहाड़ती जिंदगी, मिमयाते परिवेश के चिथड़े की तस्वीर राजीव ने साहित्य शिल्पी में छापी है। यहां-वहां कुछ आलेख लालाजी के पढ़े थे, बरसों पहले। सांस्कृतिक आलेख। मध्यप्रदेश संदेश में भी थोड़ा बहुत पढ़ा  था शायद। कुछ कविताएं पढ़ीं। क्या इतना भर पढ़ लेने से लालाजी को जान लेना होता है। लालाजी के पास बैठो तो लगता है कि अरे हम इनको कितना कम जानते हैं। उनकी हर बात गहरे अनुसंधान से निकली होती है। वो बता सकते हैं कि आदिवासी लड़कियों के जुड़े की डिजाइन कैसे बदलती जा रही है। जूड़े में खोंचा जाने वाला कंघा लकड़ी से बदलकर कैसे प्लास्टिक का हो गया। वे इसी उदाहरण का छोर पकड़कर बता सकते हैं बस्तर की मौलिकता और परस्परता को बाजार कैसे निगलता जा रहा है। मैं यदि लालाजी को जानना चाहूं तो कैसे जानूं आप ही बताइए। क्या उनकी रचनाएं कहीं पर आसानी से उपलब्ध हैं। बहुत से अखबारों और पत्रिकाओं में वे छपे जरूर, पर रचनाएं बिखरी हुई हैं। इन सबको एक जगह पढ़ना चाहूं तो कैसे पढ़ूं। लालाजी के बारे में इतना भर जानता हूं कि उनके पास अभी इतना कुछ है कि साहित्य और इतिहास को वे मालामाल कर सकते हैं। लालाजी ने बहुत सी लोककथाएं लिखीं, बच्चों के लिए उन्होंने लिखा, हल्बी, भतरी, छत्तीसगढ़ी को रचनाओं से समृद्ध किया। मैं इन सबों को एक साथ पढ़ना चाहता हूं। कैसे पढ़ूं। नारायणलाल परमारजी को मैंने प्राइमरी और मिडिल की किताबों में पढ़ा-बूंदो का त्योहार, आलसी राम अंगद। मध्यप्रदेश के जमाने में। छत्तीसगढ़ बनने के बाद क्या किसी स्कूली किताब में लालाजी भी मौजूद हैं, यदि ऐसा है तो मुझे बताइए मैं उन्हीं किताबों को पढ़ लूंगा। 
तब तो भाई आप मानते हैं न कि लालाजी को मैं कितनी मजबूरीवश नहीं जानता। चलिए अब उन लोगों की बातें करें जो लालाजी को जानते हैं। यानी वे वही लोग होंगे जो मुक्तिबोध को भी जानते होंगे। तो मेरी शिकायत यह है कि इन लोगों ने ऐसा कुछ क्यों नहीं किया कि मैं भी लालाजी को जान पाता। मुक्तिबोध की कुछ रचनाएं मैंने पढ़ी हैं-चांद का मुंह टेढ़ा है, लकड़ी का रावण, अंधेरे में....आदि। मुक्तिबोध कठिन कवि हैं।  लालाजी की रचनाएं बिना किसी बौद्धिक अवरोध के सीधे दिल में उतरती हैं। मुक्तिबोध को पढ़ने से दिमाग झनझना उठता है तो लालाजी को पढ़ने से दिल में हलचल होने लगती है। ये मेरा अनुभव है, हो सकता है कि किसी और का अनुभव कुछ और हो। यानी मुक्तिबोध दिमाग के कवि हैं और लाला जगदलपुरी दिल के। मुक्तिबोध दिमाग से दिल में उतरते हैं और लालाजी दिल से दिमाग में चढ़ जाते हैं। दोनों की प्रतिबद्धता अपने जैसे ही आम लोगों के लिए है।मुक्तिबोध पूछते हैं-कामरेड, तुम्हारी पालिटिक्स क्या है। और लाला जगदलपुरी कहते हैं-विचारधारा और साहित्य के अनिवार्य संबंध को मैं मानवीय दृष्टि से महसूस करता आ रहा हूं। मुक्तिबोध अपनी विचारधारा को स्वयं उद्घोषित करते है। लालाजी के विचारों की उद् घोषणा उनका साहित्य करता है- 

पेड़ कट-कट कर
कहां के कहां चले गए
पर फूल रथ, रैनी रथ,हर रथ
जहां का वहीं खड़ा है
अपने विशालकाय रथ के सामने
रह गए बौने के बौने
रथ निर्माता बस्तर के
और खिंचाव में है
प्रजातंत्र के हाथों
छत्रपति रथ की
राजसी रस्सियां

और 

 'भतरी' बोली में कविता को देखें –

आमी खेतेआर, मसागत आमर
आमी भुतिआर, मसागत आमर
गभार-धार, मसागत आमर
नाँगर-फार, मसागत आमर
धान-धन के नँगायला पुटका
हईं सौकार, मसागत आमर

[अनुवाद:- हम खेतीहर, मशक्कत हमारी, हम मजदूर मशक्कत हमारी। गभार हो या धार,मशक्कत हमारी। हल-फाल, मशक्कत हमारी। धान-धन को हडप गया ‘पुटका’, वही हो गयासाहूकार मशक्कत हमारी]

(उपरोक्त दोनों कविताएं साहित्य शिल्पी से)



यानी लालाजी और मुक्क्तिबोध दोनों की कविताएं विचारों की सान पर तेज होती हैं। और प्रतीत होता है कि ये सान एक ही है। मुक्तिबोध पर बहुत कुछ लिखा गया, उनकी रचनाएं आसानी से उपलब्ध हैं। कुछ अप्रकाशित भी जब-तब प्रकाशित होती रहती है। लेकिन लालाजी को पढ़ने के लिए तो मैं तरस जाता हूं। इसीलिए मैंने राजीव से कहा कि जब हम लालाजी  के करीब थे तब ही तुमने क्यों नहीं कहा कि चलों हम लालाजी को जान लेते हैं। पढ़कर नहीं तो सुनकर ही सही, लालाजी का फायदा हम उठा सकते थे। लेकिन तब हमने ऐसा नहीं किया। 
मैं छत्तीसगढ़ सरकार की एक वेबसाइट देख रहा था। उसमें लालाजी को अभावग्रस्त कलाकारों की सूची में रखा गया है और बताया गया है कि उन्हें सरकार पेंशन देती है। कुछ सम्मानों की सूची में भी उनका नाम है। सरकार इस सूची में लालाजी का नाम डाल कर धन्य हो रही होगी। राजीव जब साक्षात्कार लेकर देहरादून लौट रहा था तब रायपुर में उससे मेरी भी मुलाकात हुई थी। साक्षात्कार उसने मुझे दिखाया था, मैंने उसे तुरंत बधाई भी दी थी। राजीव को छटपटाहट थी कि सरकारें लालाजी के लिए कुछ करती क्यों नहीं। उसके देहरादून लौट जाने के बाद भी हम इस पर फोन पर बातें करते रहे। राजीव का कहना था कि लालाजी को अब तक कोई ऐसा बड़ा सम्मान नहीं मिल पाया, जिसके वे अधिकारी हैं। लालाजी के हम श्रद्धालुओं को इसके लिए कोई मुहिम चलानी चाहिए। फिर हमने सोचा कि कौन-सा बड़ा सम्मान। हमने एक पलड़े में लालाजी को रखा, दूसरे में एक-एक कर कई सम्मानों को। लालाजी भारी पड़े। तौल बराबर ही नहीं हुई। तो तय हुआ कि मुहिम-फुहिम का कोई अर्थ नहीं। तब भी राजीव ने फोन पर छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग के किसी अफसर से पूछ डाला-लालाजी के लिए सरकार कुछ करती क्यों नहीं। राजीव ने मुझे बताया कि उस अफसर ने कहा कि लालाजी के साथ बड़ी दिक्कत है। उन्हें किसी तरह का प्रस्ताव भेजो तो उस प्रस्ताव की पीठ पर टिकटें चिपका कर लौटती डाक से सधन्यवाद भेज देते हैं। 
संजीव भाई, राजीव को लिखी  चिट्ठी में मैंने लिखा है-लालाजी भूखे जरूर हो सकते हैं, पर हाथ नहीं पसारेंगे। मुझे लगता है कि दिक्कत लालाजी में नहीं है, हममें हैं। हम उस स्वाभिमानी आदमी के पास दाता की मुद्रा में जाते हैं, ग्राही की मुद्रा में नहीं। हम उनसे मांगेंगे तो उन्हें मिल जाएगा। अफसर ने राजीव से कहा था कि लालाजी की रचनाएं भी तभी छापी जा सकती हैं जब उन्हें हासिल करने के लिए लालाजी के भरोसे का कोई आदमी मध्यस्थ हो। घटनाओं में कैसा विरोधाभाष है संजीव भाई, मैं जानता हूं कि राजीव से लालाजी की नियमित मुलाकात नहीं है। वह बरसों बाद उनसे मिला। बरसों पहले अवश्य निरंतरता रही होगी। इतने सालों बाद राजीव ने लालाजी के सामने हाथ पसारा तो 91 साल की उम्र में लालाजी ने न सिर्फ हस्तलिखित साक्षात्कार दिया, बल्कि  अपनी कई रचनाएं भी उसे सौंप दी। कहा इसका जैसा चाहे वैसा उपयोग करो। राजीव ने तो साहित्य शिल्पी में इन रचनाओं को एक-एक कर छापना शुरू कर दिया है। राजीव से बहुत हद तक लालाजी की अजनबियत के बावजूद उन्होंने उसे बहुत कुछ दिया। राजीव याचक था। बहुत से लोग ऐसे भी रहे जिन्हें लालाजी बहुत अच्छी तरह जानते-पहचानते हैं, उनके साहित्यिक फर्जीवाड़े की प्रवृत्तियों को खूब समझते हैं। वे लोग भी जब-जब याचक बने लालाजी ने दिया। सरकार दाता बनकर लालाजी को आवाज लगाएगी तो दिक्कत तो होगी ही। लालाजी की रचनाएं प्रकाशित हो, लालाजी समग्र नाम का कोई ग्रंथ हो, ऐसी कल्पना करता हूं। 
यानी मैं लालाजी को समग्र रूप से जानना चाहता हूं। 

रविवार, 28 नवंबर 2010

आखिर कहां खो गया मेरा भारत?

 रविंद्र ठेंगड़ी
रविंद्र ठेंगड़ी
अशोका होटल से मिलेनियम प्लाजा में शिफ्ट हुए काफी हाउस में अपने चंद मित्रों के साथ कोल्ड काफी पीने के मौका अरसे बाद मिला। दोस्तों के साथ बस यूं ही औपचारिक बातें चल रही थी, तभी पास ही एक टेबल को घेरे बैठे बुद्धिजीवियों की बातों ने ध्यान खींच लिया। वे प्रबुद्ध नागरिक भारत-चीन पर चर्चा कर रहे थे। उनमें से एक ने कहा कि चीन ने भारत की हजारों किलोमीटर सीमा पर करीब डेढ़ से तीन किलोमीटर तक कब्जा कर लिया है। यदि बार्डर की लंबाई के हिसाब से बातें करें तो हजारों किलोमीटर भारत के भूखंड पर अब चीन ने कब्जा जमा लिया है और वह चीन-भारत सीमा पर चौड़ी सड़कें बनाकर युद्ध के लिए उपयोगी इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलप कर रहा है। इस बीच एक अन्य मित्र ने कहा कि हम तो पहले से ही कर रहे हैं कि पाकिस्तान से कहीं अधिक खतरनाक व शत्रु देश चीन है और हमें चीन से कहीं अधिक सावधान रहने की जरूरत है। इस बीच एक उतावले मित्र ने कहा, चाहे जो बोल लो, लेकिन आज की परिस्थितियों में चीन कभी भी भारत के खिलाफ युद्ध करने के बारे में सोच भी नहीं सकता क्योंकि आज ‘चाइना माल’ का सबसे बड़ा बाजार भारत में ही है। यदि भारत आर्थिक दृष्टि से बर्बाद हो गया, तो कम-से-कम 15 करोड़ चीनी बेरोजगार हो जाएंगे और उनके सामने रोजी-रोटी के लाले पड़ जाएंगे।
पड़ोसी टेबल पर जारी चर्चा के बीच ही अचानक दिमाग में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा का स्मरण हो आया। जब पूरा देश दीपावली में लक्ष्मी पूजन के बाद छह नवंबर को गोवर्धन पूजन और पाड़वा की तैयारियों में था, तभी भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में दोपहर 1.10 बजे ओबामा पहुंचे। उन्होंने कहने को तो बच्चों और कालेज स्टूडेंट्स के साथ कुछ क्षण बिताया। उसके बाद वे अपने तयशुदा एजेंडा के तहत भारत के दिग्गज उद्योगपतियों के साथ बैठकर उन्हें अमेरिका में निवेश के लिए आमंत्रित किया। इससे अमेरिका में 50 हजार से अधिक नौकरियों के अवसर उपलब्ध होंगे। बैठक के बाद पत्रकारों से ओबामा ने कहा कि इससे भारत को हर क्षेत्र में खरीदारी के लिए बड़े पैमाने पर बेहतरीन आप्शन मिलेंगे। कुल मिलाकर ओबामा यहां 125 करोड़ लोगों के बाजार में गुहार लगाने आए थे। यही कारण है कि वे मुंबई दौरे के 25 घंटे बाद यानी सभी व्यापारिक गतिविधियों को संपन्न करने के बाद देश की राजधानी नई दिल्ली पहुंचे और वहां राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और भारतीय संसद से रू-ब-रू हुए थे।
इस बीच करीब एक दशक पुरानी एक और घटना याद आई। जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान पोखरण में परमाणु परीक्षण किया गया था और इसमें भारत देश की पूरी विश्व बिरादरी में आलोचना हुई थी। उस समय अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भारत से व्यापारिक, राजनीतिक, कूटनीतिक सहित सभी संबंध खत्म कर लिए थे। महज 48 घंटे के भीतर ही बिल क्लिंटन को अपने आदेश को संशोधित करना पड़ा था। उनके संशोधित आदेश के मुताबिक राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर तो हमारे संबंध भारत से रद्द रहेंगे, लेकिन निजी कंपनियां इस विषय में अपना निर्णय लेने स्वतंत्र हैं अर्थात वे भारत से आयात-निर्यात संबंधी सभी गतिविधियां अनवरत जारी रख सकती हैं। निजी कंपनियों और ग्लोबल मार्केट के दबाव के सामने कमर तक झुके अमेरिकी राष्ट्रपति को देखकर साबित हो गया कि दुनिया का सबसे बड़ा ताकतवर आदमी वास्तव में कितना ताकतवर है?
बार-बार दिमाग पर जोर देने के बाद समझ ही नहीं आ रहा था कि आखिर हमारा देश यानी भारत है क्या? सीना फुलाकर गर्व से हम भले ही कहें कि भारत देश हमारी मां है, लेकिन यकीन मानिए कि आज के भारत में मां की बात तो दूर, घर का एक उपेक्षित सदस्य भी नजर नहीं आता। भारत पूरे विश्व सहित हमारे अपनों के बीच भी 125 करोड़ लोगों का खुला बाजार है। जहां आपको सब कुछ मिल जाएगा, हर देश का माल, हर वर्ग का माल, हर कीमत का माल और वह भी बड़ी रेंज में। इसलिए बाजार में उपलब्ध माल की तरह ही आप भी भारत से किसी गारंटी की उम्मीद मत कीजिए।
भारत देश के हर घर में बच्चों को आज शिक्षा के नाम पर वही सब पढ़ाया जा रहा है जो उन्हें मार्केट में एक आॅन डिमांड प्रोडक्ट के तौर पर स्थापित कर सके। बचपन में हम पढ़ते थे कि भारत विविध भाषाओं-बोलियों, संस्कृति और परंपराओं वाला एक गुलदस्ते की तरह खूबसूरत देश है जहां विभिन्न जाति-धर्म के लोग मिल-जुलकर एक संयुक्त परिवार की तरह रहते हैं। आज यह आकलन करने की जरूरत है कि क्या वास्तव में भारत एक विभिन्न जाति-धर्मों के लोगों का संयुक्त परिवार है या हमारे अपने परिवार-समाज की तरह विखंडित हो चला है?
बाजार की तूफानी ताकत के बीच अब आप लोगों में देशभक्ति की मशाल खोजने की कोशिश न करें, क्योंकि जब बाजार में एक से बढ़कर एक उत्पाद उतारने की होड़ मची हो और सारे गुणा-भाग, लाभ-हानि से शुरू होकर लाभ-हानि में ही समाप्त हो जाते हों, वहां आप देश की आजादी, आतंकवाद और सीमा पार बढ़ते चीनी कब्जे की बात न ही करें तो बेहतर होगा। युवाआें में अब ‘देश’ बातचीत का विषय होता ही नहीं। वे तो स्वयं किसी मल्टी नेशनल कंपनी के बड़े पैकेज के साथ (सम्मानजनक) नौकरी करने के लिए कैंपस सलेक्शन की बाट जोहते रहते हैं।
हाल ही में फिल्म ‘राजनीति’ के रिलीज होने के चंद दिन पहले ही एक टीवी न्यूज चैनल में परिचर्चा के दौरान निर्देशक प्रकाश झा और अभिनेता मनोज वाजपेयी ने सुझाव दिया कि हर युवा को अनिवार्य रूप से कम-से-कम तीन साल तक सैनिक ट्रेनिंग दी जानी चाहिए। शिक्षा के दौरान इसे अनिवार्य बनाने का सुझाव भी उन्होंने दिया क्योंकि इस समय देश में तकरीबन साढ़े 12 हजार थलसेना अधिकारियों के पद खाली हैं और आज की युवा पीढ़ी सेना में करियर को लेकर बेहद अनिच्छुक है। ऐसे में उनमें देशप्रेम का भाव जगाने के लिए कालेज में डिग्री कोर्स और डिप्लोमा के साथ मिलिट्री कोर्स को अनिवार्य किया जाना चाहिए। उनके सुझाव का फिल्म के नायक रणबीर कपूर और अर्जुन रामपाल ने पुरजोर विरोध किया। अभिनेता द्वय ने कहा कि इससे युवाओं के दो-तीन साल बर्बाद हो जाएंगे और उनका करियर चौपट जाएगा। उन्होंने कहा कि किसी भी दशा में युवाओं पर इस तरह की ज्यादती नहीं होनी चाहिए। वर्तमान पीढ़ी की भावनाओं व करियर के लक्ष्य का सम्मान होना चाहिए। रणबीर और अर्जुन रामपाल दरअसल आज की पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनकी नजर में देश एक मल्टी स्टोरीड बिल्डिंग है जिसकी सुरक्षा का जिम्मा किसी भी सिक्योरिटी एजेंसी को देकर उसे हर माह एक निश्चित रकम (जो स्वाभाविक रूप से बहुत बड़ी होगी) देकर हम अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर सकते हैं। रणबीर ने कहा कि हम तो देश को हर साल इनकम टैक्स के रूप में अपनी आय का मोटा हिस्सा देते हैं, अब क्या हम देश के लिए बार्डर में भी जाकर लड़ें? क्या तभी हमारी देशभक्ति साबित होगी?
कुल मिलाकर, आज की युवा पीढ़ी को आप 16-18 घंटे नौकरी करते हुए पैकेज सेलेरी के अंतर्गत मोटी रकम कमाने दीजिए। इस रकम से यह पीढ़ी आपको जो इनकम टैक्स के रूप में भुगतान करेगी, वही उसकी देश के प्रति जिम्मेदारी है और देशभक्ति भी! 60 साल पहले देश को ब्रिटिश हुकूमत से आजादी दिलाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि नौकरीपेशा आम आदमी की तरह अब जनता भी अपने देश को 60-65 साल की उम्र में (रिटायर्ड कर) एक सर्वसुविधायुक्त बाजार के तब्दील कर देगी। एक ऐसा बाजार जिसमें देश की महज 13 फीसदी आबादी ही प्रवेश कर पाएगी क्योंकि बाकी की 87 फीसदी आबादी की औकात ही नहीं होगी यहां आकर खरीदारी करने की।
राजधानी के एक विख्यात अर्थशास्त्री ने कहा कि यह बदलाव वास्तव में बहुत दु:खद और नकारात्मक है क्योंकि यह न केवल आदमी को बुरी तरह अवसरवादी, लालची, भ्रष्ट बना रहा है बल्कि अपने मुल्क, समाज व परिवार से ही विमुख कर रहा है। यह बदलाव आज पूरे विश्व में हो रहा है। अब तो अमेरिका जैसा विश्व का सबसे संपन्न और विकसित राष्ट्र मंदी की गिरफ्त में आकर कंगाल हो जाता है, तो आप इस आंधी से अपने देश और देश की युवा पीढ़ी को कैसे बचाएंगे? हम सिर्फ अपने घर को अपने बच्चों को ही संभाल लें, उन्हें अच्छी शिक्षा के साथ अच्छे संस्कार ही दे पाएं तो यही काफी होगा। निराशा के अवसाद में डूबे इस अर्थशास्त्री ने ‘नेशनल लुक’ से कहा कि अब आप जाइए और मुझे कहीं खो चुके अपने ‘हिंदुस्तान’ को खोजने की एक और कोशिश करने दीजिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

बाप रे बाप...क्या सचमुच..

राजनीतिक दलों की प्रेस विज्ञप्तियां आम तौर पर अतिश्योक्तिपूर्ण होती हैं। राजनीति से सनी हुई और अक्सर तथ्यहीन। लेकिन छत्तीसगढ़ में रायपुर जिला कांग्रेस की ओर से जारी एक प्रेस नोट थोड़ा हटकर है। इसमें सरकारी योजना का वैज्ञानिक तरीके से विश्लेषण करने की कोशिश की गई है। हालांकि इस वैज्ञानिकता का आधार क्या है, यह स्पष्ट नहीं है। इस प्रेस नोट में उल्लेखित आंकड़े किन स्त्रोतों से या किन विशेषज्ञों से जुटाए गए हैं, यह भी स्पष्ट नहीं है, तब भी इसमें कही गई बातों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह प्रेस नोट विकास की जो तस्वीर उपस्थित कर रहा है, वह डरावनी है। यह तस्वीर कितनी सच्ची या झूठी है, इस पर अभी बहस होनी है। फिलहाल प्रेस नोटः-

  40 हजार मेगावाट उत्पादन विकास नहीं विनाश करेगा : कांग्रेस
 शहर जिला कांग्रेस ने कहा है राज्य सरकार 5 साल में 40 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन की जो योजना बना रही है उससे विकास नहीं विनाश होगा।
पार्टी के जिला संगठन मंत्री दयानंद शर्मा ने कहा है कि  छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत होल्डिंग कंपनी द्वारा यह संदेश दिया जा रहा है कि 5 वर्ष में 2,00,000 करोड़ के निवेश के लिए एमओयू हो चुका है। 40 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए जो संयंत्र छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों में लगेंगे उसमें खपत होने वाले कोयले, पानी, भूमि एवं निकलने वाली राखड़ की मात्रा पूरे प्रदेश के स्वस्थ्य पर बुरा असर डालेगी। सरकार ने कभी इस बारे में शायद चिंतन मनन नहीं किया है। श्री शर्मा ने बताया है कि छत्तीसगढ़ निर्माण के समय छग की विद्युत खपत 1300 मेगावाट थी, जो 10 वर्षों में बढ़कर अब 2800 मेगावाट हो गई है। ऐसे में 40,000 मेगावाट का उत्पादन करना छग को प्राप्त प्राकृतिक सौगातों का अनुचित दोहन होगा। यहां तक कि आने वाले 80 वर्षों बाद कोयले का भंडार समाप्त हो जाएगा और पूरी आबादी विभिन्न बीमारियों से ग्रसित होगी।
कृषि भूमि पर असर-श्री शर्मा ने कहा कि 40 हजा६र मेगावाट बिजली उत्पादन करने के लिए 50,000 एकड़ भूमि की आवश्यकता पड़ेगी, जो कि अंतत: कृषकों की ही उपजाऊ भूमि होगी। परिणामत: हजारों कृषक भूमिहीन एवं बेरोजगार हो जाएंगे। कृषकों को नाम मात्र मुआवजा देकर उनकी उपजाऊ कृषि भूमि छीन ली जाएगी। इस बिजली उत्पादन के  लिए लगभग प्रतिवर्ष 23 करोड़ 80 लाख टन कोयले की आवश्यकता होगी। इतनी बड़ी तादाद में कोयले का उत्पादन, परिवहन नामुमकिन है। प्रदेश में कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जाहं रेलमार्ग और सड़क मार्ग दोनों से इतनी बड़ी मात्रा में कोयले का परिवहन कर पाना संभव है।
राखड़ की आंधियां चलेंगी-श्री शर्मा ने कहा कि 40 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन करने पर लगभग 11 करोड़ 90 लाख टन राखड़ पैदा होगी, जिसका भंडारण कर उपयोग कर पाना असंभव है। राखड़ भंडारण के लिए 50 हजार एकड़ अतिरिक्त भूमि की आवश्यकता होगी। तेज हवाएं चलेंगी तो इतने बड़े राखड़  के ढेर से जो राख उड़ेगी वह वायु मंडल को प्रदूषित करेगी। पूरे छत्तीसगढ़  में राख की आंधियां चलेंगी। चिमनियों से प्रतिवर्ष वायु में 2 लाख 10 हाजर 240 टन धूल कण मिल जाएंगे। परिणामत: प्रदेश के अधिकांश भागों में अनेक प्रकार की बीमारियों का तांडव होगा। हजारों लोग अकाल मौत मारे जाएंगे। फसलें चौपट हो  जाएंगी तथा लाखों हेक्टेयर जमीन बंजर होकर बरबाद हो जाएगी।
जल स्त्रोत समाप्त हो जाएगा-इस बिजली संयंत्र के संचालन के लिए 1 अरब 60 करोड़ 60 लाख घन मीटर पानी की आवश्यकता प्रतिवर्ष पड़ेगी। प्रदेश में पानी के इतने विशाल भंडार नहीं है। वर्तमान समय में ही स्थापित उद्योगों को पानी की आपूर्ति संचित भंडारों से नहीं हो पा रही है। तब इतनी बड़ी मात्रा में पानी की आपूर्ति कहां से की जाएगी। इस पर भी विचार नहीं किया गया है।
अम्लीय वर्षा होगी- 23 करोड़ 57 लाख 4 हजार टन कोयला प्रतिवर्ष जलने पर वायुमंडल में लगभग 2 करोड़ 57  लाख 4 हजार टन सल्फर डाईआक्साइड मिल जाएगा। परिणामस्वरूप प्रदूषण एवं अम्लीय वर्षा का खतरा हमेशा मंडराता रहेगा।

शनिवार, 27 नवंबर 2010

अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी लगाता है झाड़ू

  राजनांदगांव से एसके बाबा
ओलंपिक जैसे खेलों में पदक विजेता खिलाड़ियों को करोड़ों रुपए का नगद इनाम देने की राज्य सरकार की एक दूरगामी सोच है जबकि वर्तमान में जो खिलाड़ी श्रेष्ठ प्रदर्शन के आधार पर अन्य स्पर्धाओं में पदक जीत रहा है। उसके लिए सरकार के पास फिलहाल कोई योजना नहीं है। खेल में रोजगार एवं आजीविका की कमी की वजह से ही अब खिलाड़ी या तो यहां से पलायन कर रहे हैं या फिर खेल छोड़कर आजीविका के लिए दर-दर भटक रहे हैं।
नि:शक्तजनों के लिए बनी भारतीय क्रिकेट टीम के सदस्य एवं पूर्व अंतरराष्टÑीय  खिलाड़ी दीपेश कुमार यादव ऐसे ही एक युवक है जो खेल छोड़कर अपने प्रमाण-पत्रों  के दम पर रोजगार की तलाश में परेशान है। काफी मशक्कत के बाद भी जब कुछ काम नहीं मिला तो मजबूरी वश एक निजी संस्थान में वह झाड़ू-पोछा का काम कर घर की जिम्मेदारी संभाल रहा है।
बीएनसी मिल चाल निवासी एवं बहुमूखी प्रतिभा का धनी दीपेश नि:शक्त है एवं आठवीं उत्तीर्ण है। इसकी प्रतिभा का लोहा भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान कपिल देव एवं पाकिस्तान के पूर्व तेज गेंदबाज शोएब अख्तर  भी मान चुके हैं और उपहारस्वरूप अपना आटोग्राफ वाला बल्ला उन्होंने दीपेश को उपहार में दिया है। एशियन खेलों एवं स्पेशल ओलंपिक स्पर्धाओं में दीपेश के नाम कई गोल्ड मेडल है। क्रिकेट  में जहां वह आल राउंडर के भूमिका पर होता है वहीं व्यक्ति खेलों में भी वह चैंपियन है। प्रमाण-पत्रों की लंबी फेहरिशत इस बात का बयां कर रही है। सन् 2004 में गुजरात के अहमदाबाद में आयोजित पहली एशियन पेसिपिक इंटरनेशनल क्रिकेट स्पर्धा में शानदार प्रदर्शन के लिए उसे मैन आॅफ द मैच और मैन आफ सीरीज के साथ दोहरा खिताब मिला।
पहली इंटरनेशनल स्पेशल ओलंपिक क्रिकेट स्पर्धा में भी उसने भारत का प्रतिनिधित्व किया। यह स्पर्धा  मुंबई में हुई थी। गुजरात के बड़ोदा एवं कोरबा के स्पेशल ओलंपिक इंडिया में व्यक्तिगत खेलों की स्पर्धा गोला फेंक, ऊंची कूद, दौड़ आदि में गोल्ड व सिल्वर मेडल जीता था।


इस प्रदर्शन के आधार पर उसका चयन चीन, सिंगापुर व हांगकांग में होने वाली अंतरराष्टÑीय स्पर्धा के लिए हुआ था, लेकिन कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण वह इन स्पर्धाओं में शामिल नहीं हो सका। मंदबुद्धि बच्चों के लिए मुंबई में आयोजित एक प्रदर्शन मैच में फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार की गेंद को स्टेडियम के पार पहुंचाना जहां उसका एक यादगार पल है। वहीं कपिल देव व शोएब अख्तर द्वारा भेंट किए गए बल्ले को वह अब तक का सबसे कीमती उपहार मानता है।
नेशनल लुक से चर्चा करते हुए दीपेश बताता है कि अखाड़ा उसके बचपन का शौक है जिसके बिना, वह खुद को अधूरा मानता है। उसका कहना है कि नि:शक्तों के लिए केंद्र व राज्य सरकार कई योजनाएं बना रही है किन्तु अब तक उन्हें किसी भी योजना का लाभ नहीं मिल पाया है। आज हर क्षेत्र में पैसा व पहुंच काम कर रहा है। इसके दम पर कई स्तरहीन खिलाड़ी रोजगार एवं सम्मान पा रहे हैं। गरीब पारिवारिक स्थिति के कारण आजीविका के रोजी-रोटी की तलाश थी। नि:शक्त  होने के कारण कोई अच्छा काम नहीं मिल पा रहा था। मजबूरी में उन्होंने एक निजी संस्था में झाड़ू-पोछा का काम करना पड़ा। दो साल बाद उन्हें यहां पदोन्नति मिली। अब उन्हें चाय-पानी पिलाने का काम सौंपा गया है।
दीपेश का मानना है कि मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह खेल प्रेमी है। वे राज्य ओलंपिक संघ के अध्यक्ष है। उनकी पहल पर ही इन दिनों मिनी ओलंपिक चल रहा है। इस नाते गरीब एवं प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के लिए कोई ठोस पहल की जाए। इस बारे में मुख्यमंत्री से नि:शक्त खिलाड़ियों के लिए पहल की उम्मीद है। उसका कहना है कि खिलाड़ियों को प्रोत्साहन नहीं मिला तो एक दिन उनकी खेल भावना दम तोड़ देगी।
(दैनिक नेशनल लुक से साभार)

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

मैं न तो लालाजी को जानता हूं, न मुक्तिबोध को

मेरे मित्र राजीव रंजन प्रसाद ने अपने ई-पत्रिका साहित्य-शिल्पी में लाला जगदलपुरी का साक्षात्कार प्रकाशित किया है। कई मायनों में यह साक्षात्कार अत्यंत महत्वपूर्ण है। राजीव ने इस साक्षात्कार की लंबी भूमिका में कहा है कि यदि आप लालाजी  को नहीं जानते तो मुक्तिबोध को भी नहीं जानते। लालाजी से जड़ी कुछ मेरी भी यादें हैं, मैंने राजीव से उन्हें शेयर किया है। आप सबों से करना चाहता हूं। पर साहित्यशिल्पी में साक्षात्कार जरूर पढ़ेhttp://sahityashilpi.com/




कभी तो गिरेंगे दाने
इसी आस में 
चिडिया
रातभर आसमान तकती बैठी रही
सुबह हुई 
तो दाने गायब
सूरज ने  डांट  लगाई
क्यों री चिडि़या
सारे दाने कैसे चुग  गई


राजीव, 
लाला जगदलपुरी का जिक्र होता है तो ये लाइनें याद आती हैं।  ये लालाजी की ही कविता की पंक्तियां हैं, हालांकि मुझे कच्ची-पक्की ही याद है। चिड़िया रातभर भूखी थी, आसमान तकती रही। लालाजी देख रहे थे। उसकी भूख को, उसकी उम्मीदों को, लबालब आसमान को। रातभर लालाजी देख रहे थे। मुझे लगता है कि चिड़िया की जो हालत थी, लालाजी की भी वही रही होगी। यदि ऐसा न होता तो लालाजी अपनी थैली से दाने निकालकर चिड़िया को जरूर दे दिए होते। यानी एक भूखा आदमी एक चिड़िया की उम्मीदों को रात भर सहन करता रहा। सहन इसलिए करता रहा, क्योंकि चिड़िया भले न जाने लालाजी जरूर जानते थे कि न तो दाने गिरने वाले और न ही भूख मिटने वाली। लालाजी ने आसमानी साजिशों का तत्काल भंडाफोड़ भी नहीं किया, शायद इसलिए कि कम से कम झूठी उम्मीदों में ही सही, चिड़िया रातभर तो जिंदा रहेगी।वे सुबह तक जागते रहे, सूरज ने जब डांटा तब भी  लालाजी ने सुना और यह भी देखा कि बेचारी भूखी चिड़िया उस डांट से कैसे सकपका गई थी। मैं दावे से कह सकता हूं कि जब चिड़िया सकपका रही होगी तो लालाजी छटपटा रहे होंगे। 
माफ  करना मेरे भाई, बड़ी शर्मिंदगी से यह स्वीकार कर रहा हूं कि मैं लालाजी को नहीं जानता। ठीक उसी तरह नहीं जानता जैसे मैं मुक्तिबोध को नहीं जानता। दोनों को जानने के बहुत से मौके थे, लेकिन मैं अपने में ही मस्त रहा। मैं जिस पेशे में हूं, उसमें इन जैसों को जानना उतना जरूरी भी नहीं रहा अब तो। हमें यह जानना ज्यादा जरूरी होता है कि शहर और राज्य में बड़े विज्ञापनदाता कौन-कौन लोग हैं। किन किन सम्मानीय नेताओं की फोटो रोज छापनी चाहिए। इन्हीं  लोगों को जानते-जानते मुक्तिबोध और लालाजी मुझसे छूट गए। 
लेकिन चिड़ियाएं लालाजी को जानती हैं, वे उनके रिपोर्टर जो हैं। वे उनके साथ भूखे रहते हैं और सूरज के खिलाफ रिपोर्ट लिखकर उसे बेनकाब कर देते हैं। वे दुनिया को बता देते हैं कि सारे दाने गायब करने वाला यही तो है। मैं लालाजी को जानता हूं कि नहीं यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, लालाजी को चिड़ियाएं जानती हैं और चिड़ियाओं को लालाजी जानते हैं। 
लाला जगदलपुरी ( छाया-राजीवरंजन प्रसाद)
राजीव तुम तो दोस्त हो मेरे, जब हम लालाजी के करीब थे तब तुमने मुझे क्यों नहीं टोका कि थोड़ा लालाजी को जान लें। मुझे याद है तब हम बहुत सी पत्रिकाएं भी पढते थे। देशभर में छपने वाली पत्रिकाएं। जगदलपुर से छपने वाली पत्रिकाएं। बस्तर की स्थानीय लघु पत्रिकाओं में देशभर के कवि-साहित्यकार तो छपते थे, पर लालाजी या तो नदारत रहते थे या फिर औपचारिक रूप से ही उपस्थित रहते थे।
राज, यार इन्हीं पत्रिकाओं को देख पढ़कर हमें भी तो साहित्यकार हो जाने का चस्का लगा था। एक पत्रिका बचेली से हमने भी छाप डाली थी-प्रतिध्वनि। मुझे तो याद नहीं, तुझे याद है क्या कि क्या तब हम लालाजी को जानते थे। मैं भी तब कुछ-कुछ लिखा करता था, यहां-वहां छपा भी। आकाशवाणी से भी प्रसारित हुआ। लेकिन आज अपने लिखे हुए को पढ़ता हूं तो स्वीकार करता हूं कि साहित्य की समझ न तो मुझे तब थी और न अब है। मैं दंडकारण्य समाचार में काम करता था और साहित्य पेज की जिम्मेदारी मुझ पर ही थी। यानी बंदर के हाथ में उस्तुरा। जब्बार ढाकवाला से लेकर त्रिजुगी कौशिक, विजयसिंह, योगेंद्र मोतीवाला, मदन आचार्यजी.....से मेल-मुलाकात शुरू हुई। लालाजी के पास भी जाया-आया करता था। लालाजी ने दंडकारण्य समाचार में खूब लिखा। एक हल्बी अखबार निकलता था-बस्तरिया। लालाजी की कविताएं उनमें भी छपा करती थी।...एक रोज मैं कविता मांगने लालाजी के पास पहुंचा तो उन्होंने मुझसे कहा था-अखबार वाले कविताएं तो मांगते हैं पर पत्रम्-पुष्पम् नहीं देते। साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा था कि कवि की आत्मा जिस शरीर में रहती है, उसे तो जिंदा रखना ही पड़ता है।
राजीव, तुमने जो तस्वीर छापी है, वह नकली है। उसकी पृष्ठभूमि नकली है। इतना वैभव लालाजी के इर्द-गिर्द हो ही नहीं सकता। यह जरूर किसी और का वैभव होगा, जिसे लालाजी को जीना पड़ रहा होगा। मैं तो उस छोटी सी खोली को जानता हूं जो डोकरीघाट पारा में कवि निवास नाम के बड़े से घर के बिलकुल बाहरी हिस्से में है। यही लालाजी का साधना कक्ष है और शर्त लगा सकता हूं कि यह खोली भी लालाजी की पूंजी नहीं हो सकती। तुम्हारे द्वारा प्रकाशित तस्वीर में यह वैभव जिस भी व्यक्ति का होगा, मेरा अनुमान है कि उसका वैभव लालाजी को करीब पाकर और भी बढ़ रहा होगा। ठीक उस तरह जैसे अखबारवाले लालाजी की कविताओं को छापकर वैभवशाली हो जाया करते थे। पर लालाजी तो आसमानी साजिशों को खूब समझते हैं। चलो इस कविता को फिर पढ़ते हैं-

कभी तो गिरेंगे दाने
इसी आस में
चिड़िया 
रातभर आसमान तकती बैठी रही.....

लालाजी ने पुष्पम्-पत्रम् मांगा....कहा शरीर तो जिंदा रखना ही पड़ता है। यदि लालाजी को पुष्पम्-पत्रम् मिल गया होता तो न तो वे महल खड़ा करते और न ही फैक्ट्रियां खोलते। इतना जरूर होता कि उनके भीतर का स्वाभिमानी इनसान अपनी कमाई रोटियों में थोड़ा स्वाद और घोल लेता। जो आदमी हर क्षण सिर्फ कविता को जीता हो, जो हर क्षण अनुसंधान करता हो, जो दिन-रात लिखने पढ़ने में ही लगा रहता हो, उसे दुनियावी तरीके से रोटियां कमाने में बड़ी मुश्किलें होती होंगी भाई। लालाजी ने जो शब्द मुझसे कहे थे, शायद वे किसी और से न कहते। मैं बच्चा था, मेरे साथ वे भी बच्चे हो जाते थे। लालाजी को बिलकुल ठीक-ठीक पता था कि ये बच्चा पुष्पम्-पत्रम् नहीं दिला सकता।दंडकारण्य समाचार और बस्तरिया से उनका वैसा रिश्ता था भी नहीं। वे इन दो अखबारों से वैसे ही जुड़े थे, जैसे बस्तर से जुड़े हैं।निःस्वार्थ।उनकी पीड़ा उन अखबारों को लेकर थी जो महानगरों से प्रकाशित हुआ करते थे,और यही पीड़ा मेरे सामने व्यक्त हो गई। लालाजी जानते थे कि ये बच्चा पुष्पम्-पत्रम् नहीं दिला सकता। जो लोग दिला सकते थे उनके आगे लालाजी ने कभी हाथ नहीं पसारे। कई मौकों पर उन्होंने पुरस्कार सिर्फ इसलिए ठुकरा दिए क्योंकि इन्हें पाने के लिए आवेदन जमा करने की शर्त हुआ करती थी। लालाजी भूखे जरूर है, पर मांगेंगे नहीं। हर सुबह उनके हिस्से के दाने गायब हो जाते हैं। लालाजी सहन कर रहे हैं क्योंकि उनके साथ-साथ चिड़िया भी तो भूखी है और इसी चिड़िया के लिए वे जिंदा है। 
लालाजी की वसीयत (साभार-साहित्य शिल्पी)
भाई मेरे लालाजी कितने उदार हैं इनकी कई किंवदंतियां हैं। उनकी रचनाएं चुरा-चुराकर कितने लोगों ने डाक्टरी कर ली, इसके भी कई किस्से हैं। जितनी चोरियां हुईं, लालाजी ने उतना ज्यादा रचा। चोरों को पास बिठा-बिठाकर रचनाएं दिखाईं। पढ़ाईं। 
मुझे साहित्य की समझ न तो तब थी और न अब है। लेकिन साहित्यकार होने के फैशन के उस दौर में मैं भी शामिल हो गया था। एक फोल्डर पत्रिका प्लान कर ली। और मेरी हिम्मत देखो राजीव मैं मदद मांगने लालाजी के पास जा पहुंचा। पता है लालाजी ने बड़ी आत्मीयता से मुझे बिठाया। वे मुझसे उस फोल्डर के प्रारूप की चर्चा करने लगे। उन्होंने ही मुझे उस फोल्डर का शीर्षक सुझाया-विन्दु। पता है यह शीर्षक आसानी ने नहीं मिला। उन्होंने लंबा अनुसंधान किया। कई शब्दकोष खंगाले। जब शीर्षक तय हो गया तो उन्होंने मुझे एक लघुकथा दी छापने के लिए। वह फोल्डर लघुकथाओं पर केंद्रित था। रउफ परवेज समेत कई आदरणीय लोगों ने मुझे लघु-कथाएं दीं। शायद इसलिए क्योंकि उसमें लाला जगदलपुरी छप रहे थे। फोल्डर का प्रुफ खुद लालाजी ने पढ़ा। इस फोल्डर  का विमोचन सूत्र के एक समारोह में हुआ। रमाकांत श्रीवास्तवजी समेत कई दिग्गज साहित्यकारों की मौजूदगी में। वो एक बड़ा साहित्यिक समारोह था। उस समारोह में मैं साहित्यकारों के साथ फोटो खिंचवा रहा था, लालाजी एक कोने में निर्विकार बैठे थे। मेरी संकोच देखो कि तब मैं सोच रहा था कि इस मामूली से फोल्डर में लालाजी के योगदान का उल्लेख करना उनके प्रति सम्मानप्रद होगा कि नहीं। लेकिन आज मैं उस मामूली फोल्डर में उनके योगदान का ढिंढोरा जोर-जोर से पीटना चाहता हूं। इतना बड़ा आदमी, कितना बड़ा काम। 
राजीव भाड़ में जाए सरकारें, अपन तो लालाजी के चरणों में ही मस्त हैं। 
और हां मैं उन्हें जानना चाहता हूं राजीव, कोई चाहे या न चाहे। 

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

वैचारिक स्वराज से ही आतंकवाद का सामना संभव

  डा. मिश्र और जयप्रकाश को गजानन माधव मुक्तिबोध सम्मान
रिपोर्ट -रविंद्र ठेंगड़ी 
 महाराष्ट्र मंडल ने गुरुवार को वरिष्ठ आलोचक डा. राजेंद्र मिश्र और युवा समालोचक जयप्रकाश को गजानन माधव मुक्तिबोध से सम्मानित किया। इस मौके पर उपस्थित मुख्यअतिथि डा. श्रीपाद भालचंद्र जोशी ने कहा कि दुनिया का सबसे बड़ा आतंक लोगों को विचार शून्य बनाने वाले बाजारवाद से नियंत्रित ‘मीडिया’ है और इससे केवल ‘वैचारिक स्वराज’ से ही निपटा जा सकता है।
रायपुर। महाराष्ट्र के वरिष्ठ साहित्यकार व शिक्षाविद डा. भालचंद्र जोशी ने ‘आतंक का माध्यम व माध्यम का आतंक’ विषय पर अपने सारगर्भित संबोधन में कहा कि इस समय दुनिया में 87 फीसदी मीडिया छह मीडिया समूहों के माध्यम से संचालित हो रहे हैं। यही लोग पूरे विश्व में और भी कई कंपनियां चला रहे हैं और इनके मुनाफे की कल्पना नहीं की जा सकती। इनकी महत्वाकांक्षा असीमित है। ये लोग चाहते हैं कि आमजनों को पूरी तरह वैचारिक रूप से शून्य बनाने के बाद उन्हें केवल अपने ब्रांड की वस्तुओं को खरीदने के लिए विवश किया जाए।
पता ही नहीं चलेगा गुलामी का
उन्होंने कहा कि शस्त्र से होने वाले आतंक का मुकाबला शस्त्र से किया जा सकता है, लेकिन यदि आदमी को इस स्थिति में ही ला दिया जाए कि वह विचार ही न कर सके, या वह वही सोचे, समझे और देखे, तो मीडिया उन्हें दिखाना, समझाना और बताना चाहता है। ऐसी खतरनाक स्थिति में तो उसे पता ही नहीं चलेगा कि वह कब गुलाम हो गया। उन्होंने कहा कि हम माध्यमों में ही विभिन्न प्रकार के आतंक की गहरी समीक्षा देखते हैं और उसके निदान के लिए भी बड़ी-बड़ी बातें सुनते हैं, जबकि जरूरत माध्यम के आतंक का पहचानने, समझने और उससे निबटने पर मंथन होना चाहिए। इस पर कोई माध्यम न तो कोई कार्यक्रम आयोजित करता है और न ही किसी को इस विषय पर बोलने या लिखने की आजादी मिलती है।
अखबारों में सब्सिडी क्यों?
डा. जोशी ने कहा कि आज सब्सिडी हटाने की बात उठती रही है। पेट्रोल, केरोसीन, एलपीजी गैस से लेकर हर अनुदान प्राप्त वस्तुओं से अनुदान हटाने या कम करने की मांग प्रशासनिक स्तर पर उठती रहती है। अर्थशास्त्री भी अनुदान घटाने की ही वकालत करते हैं। ऐसे में अनुदान प्राप्त अखबारों से अनुदान हटाने की बात कोई नहीं करता। यह नहीं कहा जाता कि यदि 38 रुपए का टाइम्स आफ इंडिया है तो उसे उतनी ही कीमत पर पाठकों तक पहुंचना चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि बड़ी मल्टी नेशनल कंपनियां ऐसा नहीं होने देंगी। वे तो पाठकों तक मुफ्त में अखबार पहुंचाने की कोशिश करेंगी और अभी भी लगभग मुफ्त में ही लोगों को अखबार मिल रहा है। दरअसल अखबारों और चैनलों में भी पाठकों-दर्शकों को वही पढ़ाया व दिखाया जा रहा है, जो मल्टी नेशनल कंपनियां अपने उत्पादों को बेचने के लिए दिखाना चाहती है और लोगों की वैचारिक क्षमता से लेकर उनके परिवार, समाज और राष्ट्र की संरचना को नष्ट-भ्रष्ट करना चाहती है।
मीडिया पर ऐसी शिक्षा कहीं नहीं
डा. जोशी ने कहा कि आज कहीं भी मीडिया का आशय, क्यों, कैसे, किसके लिए, किसके लिए नहीं, औचित्य, आवश्यकता जैसे विषयों पर शिक्षा नहीं दी जाती। इस विषय पर कहीं कोई सामग्री नहीं मिलती। क्योंकि ऐसे विषयों से ही लोगों को वैचारिक रूप से सशक्त होते हैं। जयप्रकाश के संबोधन का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा कि आज लेखक अपनी पुस्तक प्रकाशित करवाना नहीं चाहता क्योंकि उसकी पुस्तक पढ़ने वाले पाठक ही नहीं है। असल में पाठक तो बहुत है लेकिन एक लेखक को जिस वर्ग के पाठक की जरूरत है, वह अब लगातार सुकुड़ते हुए अति सूक्ष्म हो चुके हैं। अमेरिका में शुरू से ही अवधारणा आ गई थी कि यदि परमाणु हथियार, सैनिक, व्यापारी, राजनीति और प्रशासन एक हो जाए, तो पूरी दुनिया पर राज किया जा सकता है और आज इसी अवधारणा पर पूरी दुनिया पर काम हो रहा है।

बढ़ते कदम

  मेडिकल कालेज रायपुर के इतिहास में 50 वर्षों में केवल 4  लोगों ने देहदान किया था। इस प्रकार 12 वर्षों में केवल एक ही देहदान होता था, लेकिन  सामाजिक संस्था बढ़ते कदम के प्रयासों से मेडिकल  कालेज रायपुर को 3 वर्ष में 12 शव मिले हैं। अब न केवल चिकित्सा छात्रों बल्कि डेंटल, आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक एवं नर्सिंग कालेज के विद्यार्थी भी उपलब्ध देहदान पर खोज एवं अनुसंधान करने लगे हैं। स्व.हर्षा रामवानी का मेडिकल कालेज को किया गया देहदान, संस्था द्वारा करवाया गया 31वां देहदान था।
बढ़ते कदम संस्था के देहदान प्रभारी प्रेमचंद छाबड़ा एवं राजेश वाधवानी ने बताया कि अवनि विहार दलदलसिवनी निवासी हर्षा रामवानी का कल 24 नवंबर को कैंसर की बीमारी से एक निजी नर्सिंग होम में निधन हो गया था। उनके पति रमेश रामवानी ने बताया कि हर्षा ने लगभग एक वर्ष पूर्व देहदान करने की इच्छा व्यक्त की थी। वे समय-समय  पर देहदान करने के लिए स्मरण भी कराती रहती थीं। उन्हें यह प्रेरणा अखबारों के माध्यम से मिली थी। उनके अनुसार शव की उपयोगिता खोज एवं अनुसंधान में है। उनके परिवार में 2 बेटियां हैं। बड़ी बेटी भावना जैसिंघ मुंबई में विवाहित हैं एवं वर्तमान में अमेरिका में हैं। छोटी बेटी दिव्या देवानी नासिक में विवाहित हैं। उनके पति रमेश रामवानी बारदाने का व्यवसाय करते हैं।
(यह पोस्ट संस्था द्वारा जारी प्रेस नोट पर आधारित)

बुधवार, 24 नवंबर 2010

गुरुवार की नयी कहानी-लक्ष्मी माता की तिजौरी

बहुत पुरानी बात नहीं है। बिलकुल हाल की है। आज की ही। लक्ष्मी माता की तिजौरी गुम हो गई। तिजौरी समझते हैं न आप। वहीं जिसमें पैसे-वैसे रखते हैं। वही तिजौरी। लक्ष्मी माता परेशान। ढूंढने लगी यहां-वहां। लेकिन तिजौरी तो पानी में गिर गई थी। अपने घर के पास जो तालाब है ना, उसी में। लक्ष्मी माता वहां पर गईं। वहां शंकर भगवान मिले। शंकर भगवान का मंदिर है ना वहां पर। शंकर भगवान ने पूछा तो लक्ष्मी माता ने उन्हें बताया कि तिजौरी पानी में गिर गई। तो शंकर भगवान ने कहा कि मैं मदद करूंगा। उनके गले में सांप है ना, जो घिसट-घिसट कर चलता है। वो सांप पानी में उतरा। नीचे जाकर देखा तो तिजौरी एक पत्थर के नीचे फंसी हुई थी। सांप ने अपनी पूंछ से तिजौरी को निकाल लिया। फिर शंकर भगवान ने लक्ष्मी माता को दे दिया। लक्ष्मी माता तिजौरी लेकर विष्णु भगवान के पास आ गईं।


(कभी-कभी बच्चों की बातें और कल्पनाशीलता हैरान कर देती है। मेरी साढ़े चार साल की बिटिया ने यह कहानी मुझे फोन पर सुनाई। उसी की गढ़ी हुई है। जब मम्मी गुरुवार के व्रत की तैयारी कर रही थी तब बिटिया कहानी गढ़ रही थी। हो सकता है कि मैं अपनी बिटिया को शायद ज्यादा ही छोटी समझता हूं, लेकिन इस दौर के  बहुत से बच्चे मुझे जब-तब अपने बड़प्पन से मुझे चौकाते रहते हैं।)

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

बस इतना (कविता)

मुझे क्या चाहिए
बस इतना कि दोनों बांहें पसार कर
जब मैं कहूं आओ
तो तुम आ जाओ

मुझे क्या चाहिए
बस इतना कि तुम्हारा हाथ थाम कर
जब मैं कहूं चलो
तो तुम साथ चलो

मुझे क्या चाहिए
बस इतना कि बेहद उदास क्षण में
जब मैं डूबता जाऊं खुद के भीतर
तब उबार लो मुझे

मुझे क्या चाहिए
बस इतना कि जब मैं हारने लगूं
तब तुम कहो
लड़ो, अभी और लड़ो

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

कामचोर को सलाम

पुरानी इमारत के भीतर, छत के बिलकुल करीब की  खिड़की पर एक कबूतर फड़फड़या तो उसने एक लंबा बांस उठा लिया। इतने लोगों की भीड़ में वह इकलौता था, जिसकी नजर उस परिंदे पर गई थी। थोड़ी ही  देर में कबूतर उसकी मुट्ठी में था। यह सरकारी इमारत थी और वह सरकारी मुलाजिम। काम के वक्त वह कबूतर पकड़ रहा था। मैंने मन ही मन उसे गाली थी और कामचोर हो रहे सारे सरकारी कर्मचारियों को भी। यह निश्चित ही जंगली कबूतर था। मुझसे रहा  नहीं गया तो पूछ बैठा-क्या तुम इसे खाओगे। वह कुछ न बोला। मैंने पूछा क्या पालोगे-इस बार बड़ी देर तक खामोश रहने के बाद उसने कहा-यह  जंगली है, रोकने की कितनी भी कोशिश करो उड़ जाएगा। इसे पाला नहीं जा सकता। मैंने फिर पूछा-तब तो तुमने इसे खाने के लिए ही पकड़ा है न। उसने कहा-मैं कबूतर नहीं खात। मैं हैरान था-तो क्यों पकड़ा, क्या किसी और के लिए है, क्या कोई बीमार है, क्या उसकी दवा के के लिए इसके खून और मांस का उपयोग करोगे, कई सावल मैंने दागे। उसने कहा-नहीं।
तो फिर क्यों पकड़ा। 
वह जवाब नहीं देना चाहता था शायद। मैंने जोर देकर पूछा तो उसने कहा-यह अभी बच्चा है। भटक गया है शायद।  यह या तो बिल्ली-कुत्ते का शिकार हो जाता या फिर किसी ऐसे आदमी के हाथ पड़ जाता जो इसे खा जाता। इसलिए मैंने पकड़ लिया। उसने कहा-मैं अब इसके पर कतर कर घर पर रखूंगा, जब यह बड़ा हो जाएगा  तो इसे नये परों के साथ उड़ा दूंगा। 
अब मैं सोच रहा था कि ऐसे ही  कामचोर हर सरकारी दफ्तर में क्यों नहीं होते।

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

रिसते रिश्ते

वो एक रंगकर्मी था। भावनाओं और संवेदनाओं का बड़ा कद्रदान। एक खूबसूरत दुनिया का वह ख्वाब देखा करता था। एक ऐसी दुनिया जो प्रेम से लबालब हो। उसने खुद की जिंदगी के लिए भी एक ख्वाब देखा। एक छोटे से परिवार का ख्वाब। एक ऐसी हमसफर का ख्वाब जो रसोई से लेकर थिएटर तक उसकी हमकदम हो। जिसके ख्वाब उसके ख्वाबों जैसे हों। खूबसूरत दुनिया को रचने में जो उसकी मददगार हो। उसने अपने परिवार में एक छोटी सी बिटिया की कल्पना की थी। जिसे वह ऐसे संस्कार देना चाहता था, जैसे संस्कारों की जरूरत इस दुनिया को है। लेकिन जब हकीकत का सामना हुआ तो जिंदगी नर्क हो गई। शादी एक ऐसी लड़की से हुई, जिसके लिए न तो कला का कोई अर्थ था और न ही दुनिया को खूबसूरत बनाने के जुनून से उसे कोई मतलब था। उसके लिए नारी होने का अर्थ वैसा नहीं था, जैसा वह कलाकार सोचता था। वह तो अपना अलग अस्तीत्व चाहती थी, अलग पहचान। उसके लिए मां बनने का भी कोई अर्थ नहीं था और ऐसे पचड़ों में वह पड़ना नहीं चाहती थी। वही हुआ जो होना था, खटपट बढ़ती गई। एक दिन दोनों के रास्ते अलग हो गए।
कलाकार जिंदगी से निराश नहीं था। हालात से परेशान जरूर था। परेशानी के इन्हीं दिनों में एक महिला मित्र ने उसकी भवनाओं को सहलाया। निकटता बढ़ी तो कलाकार को लगा कि यही वह किरदार है जिसकी तलाश उसे अपनी जिंदगी के लिए थी। दोनों ने तय किया और शादी कर ली। कलाकार की कल्पनाशीलता को पर लग गए। अब तो रंगमंच से घर तक हमकदम साथ थी। अब तो खूब नाटक खेले जा सकते थे। नाश्ते की टेबल पर स्क्रीप्ट  पर चर्चा हो सकती थी। घूमते-टहलते संवादों की डिजाइनिंग की जा  सकती थी। तो जिंदगी रिहर्सल में बीतने लगी। नयी बीबी अब उसके नाटक की अभिनेत्री थी और खुद निर्देशक। रिहर्सल, रिहर्सल और रिहर्सल। कलाकार खुश था, बहुत खुश। यह खुशी तब और बढ़ गई जब उसे एक और दोस्त मिल गया। यह शख्स थिएटर  से वास्ता तो नहीं रखता था, लेकिन कलाकारों की खूब इज्जत करता था। कलाकार, उसकी बीबी और उनका नया दोस्त जिंदगी के ज्यादातर लम्हों में साथ होते। नये दोस्त के आ जाने से नयी बीबी को भी जिंदगी में कुछ नया पन महसूस होने लगा। नाटकों के घिसे-पिटे संवादों की जगह असल जिंदगी के नये और ताजे संवाद सुनने को मिले तो सुकून मिला। नये दोस्त के इंद्रधनुषी जीवन के कितने ही रंग नयी बीबी के ख्वाबों में घुलने लगे। उसे लगने लगा कि नाटकों की नकली जिंदगी से बेहतर है कि असल जिंदगी के असल पलों का मजा लूटा जाए। एक रोज वह उस कलाकार को छोड़कर अपने नये साथी के साथ हो ली।
नयी बीबी और उसके नये साथी की जिंदगी मजेदार थी। दोनों को वह सब कुछ मिला जो वे चाहते थे। समय बीता। समय के साथ-साथ नये दोस्त को महसूस हुआ कि कलाकार अब भी उन दोनों के बीच मौजूद है। नयी बीबी अपने पति को भूल नहीं पा रही। जिंदगी में सबकुछ पाकर भी वह उदास है। नया दोस्त उदार नजरिये का था। उसने उससे कह दिया कि यदि ऐसा है तो वह कभी भी पुराने पति के पास लौट सकती है, उसे कतई बुरा नहीं लगेगा।
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रायपुर में इन दिनों मुक्तिबोध नाट्य समारोह चल रहा है। एक नाटक देखकर आए एक दोस्त ने संक्षिप्त कथानक सुनाया था। कथानक सुनने के बाद रिश्तों, सपनों, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, मानव अधिकार, नारी स्वतंत्रता, मर्दना तानाशाही जैसे शब्दों के बीच उलझा हुआ हूं। हो सकता है कि नाटक में इन शब्दों की विस्तृत व्याख्या की गई हो, लेकिन मैं वंचित रह गया। क्या आप इनकी व्याख्या कर मेरी मदद कर पाएंगे। (नाटक का नाम शायद कच्चे लम्हे था, और शायद इसे गुलजार ने लिखा है)

सोमवार, 8 नवंबर 2010

एक प्रश्न

बीबीसी में खबर है कि बराक ओबामा की यात्रा के विरोध में माओवादियों ने बंद का आयोजन किया और जमकर तोड़फोड़ मचाई। कई जगहों पर रेल पटरियों पर विस्फोट किए। बात अपने समझ में नहीं आई। इसमें बराक ओबामा का क्या गया।

रविवार, 7 नवंबर 2010

देखिए न हुजूर

देखिए न हुजूर
कितना मारा है
इधर देखिए हमारी पीठ
जांघों पर ये लाल निशान
जबड़ा ही तोड़ डाला कंबख्तों ने
पूरी की पूरी बत्तीसी हिला डाली
देखिए न हुजूर....
कुछ कीजिए आका
बस आपका ही आसरा 
जी, 
जी, हो जाएगा हुजुर
किधर किधर दस्तख्त मारे बताइए
बिजनेस आप ही करेंगे, शपथ
थैंक्यू सर
आप आए हम निहाल हैं
कहें तो स्वागत में अपनी चमड़ी ही बिछा दें
आपकी दोस्ती के लिए थैंक्यू सर
पर देखिए हुजूर
हम तो बोल भी नहीं पा रहे
बहुत मारा है हुजूर
जबड़ा तक सुजा डाला
पीठ देखिए न हुजूर
जांघे

जब बोलूंगा

ये अलग बात है
कि इस वक्त
तुमसे बेहद डरा हुआ हूं मैं
पर जिस रोज मैं बोलूंगा
खूब बोलूंगा

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

जरा इधर भी: जल रहे जज्बात

जरा इधर भी: जल रहे जज्बात: " शब्द मायूस हैं संवेदनाएं खामोश जज्बातों के खंडहर में फड़फड़ा रही है अभिव्यक्ति ये कैसा समय है दोस्तों कि हम और तुम बहुत कुछ कहना चाह रहे ह..."

बुधवार, 3 नवंबर 2010

जल रहे जज्बात

  शब्द मायूस हैं
संवेदनाएं खामोश
जज्बातों के खंडहर में
फड़फड़ा रही है अभिव्यक्ति
ये कैसा समय है दोस्तों
कि हम और तुम
बहुत कुछ कहना चाह रहे हैं
और कुछ भी कह नहीं पा रहे

कितनी गर्म है हवाएं
और कितनी भयंकर ये रात
सूरज कैद है
दुश्मनों की हवेली में
पर जरा ठहरो. . .
उधर वो उजियाला कैसा
वो लहराता उजियाला
वही वो मद्दिम-मद्दिम सा
कुछ जल रहा है वहां
अरे!!
ये तो जज्बात हैं
हमारे तुम्हारे
ये तो फड़फड़ाती अभिव्यक्ति है
हमारी तुम्हारी
. . . . . तो रोशनी की उम्मीद
अभी बाकी है दोस्तों!!

-केवल कृष्ण

सोमवार, 1 नवंबर 2010

... छोड़ो ये ना सोचो

सोचता हूं कुछ लिखूं
क्या लिखूं
लिखने से पहले सोचना बहुत जरूरी होगा शायद
और सोचना तो बरसों पहले ही छोड़ दिया है मैंने
सोचता कौन है
वही, जो जिंदा रहता है
यानी सोचने के लिए आदमी का जिंदा रहना पहली शर्त है
ठहरिए, मैं खुद को पहले टटोल लूं
क्या इतने दिनों तक सोचे बिना जिंदा हूं मैं
इधर कुछ धड़-धड़ कर रहा है
ध्यान से सुनता हूं तो सांसों की भी आवाज आती है
हाथ-पांव हिल तो रहे हैं, हंस तो रहा हूं, रो तो  रहा हूं
यानी जिंदा हूं मैं
तो निष्कर्ष यह कि बिना सोचे भी जिंदा रह सकते हैं हम
तब सोचना ही क्यों


पहले जब सोचता था
याद है, सोचते हुए बहुत तकलीफ होती थी
तब सोचता था कि लोग मेरी तरह सोचते क्यों नहीं
जितना सोचता उतनी ही तकलीफ होती
सोचा, दूसरों की तरह सोचना छोड़ क्यों न दिया जाए
तो मैने सोचना छोड़ दिया
सच पूछिए, न सोचते हुए बड़ा सुकून मिला
मेरी आंखें खुली हुईं थीं
दिमाग बंद
जब नक्सलियों ने 76 जानें लीं, मैंने नहीं सोचा
पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ किए मैंने नहीं सोचा
कारखाने की चिमनी भरभरा कर गिरी
दफ्न हो गए सैकड़ों मजदूर
पखांजूर में गरीब की लाश कुत्तों ने नोच ली
नारायणपुर में चंद्रू का घर बारिश में बह गया
सलमान खान ने यहां-वहां छेद डाला
मैंने नहीं सोचा, देखा जरूर
अरुंधती का बयान देखा
कलमाड़ी का जादू देखा
देखा कि मेरा राज्य कितनी तरक्की कर रहा है
शहर की सरहद पसर रही है
खेत गायब हो रहे हैं
जमीन बेचकर किसान मोटर साइकिलों में फर्राटे भर रहे हैं
देखा मैंने कि
स्कूल भी गरीबों और अमीरों में बंट गए
देखा मैंने कि
महंगे अस्पतालों से मायूस
जनता रामदेव बाबा के आसन सीख रही है
आसाराम बापू के नुस्खे आजमा रही है
देखा कि
राखी सावंत फैसले कर रही है
वेदांता और जिंदल पुरस्कृत हो रहे हैं

सोचा नहीं
मैंने सोचा नहीं
इन घटनाओं पर क्या सोचना 
क्या ये सोचने लायक हैं
मुंबई की चीखों के बारे में क्या सोचना
ठाकरे नीति के बारे में क्या सोचना
मायावती, राबड़ी, लालू के बारे में,
वरुण की जहरीली जुबान के बारे में 
नरेंद्र मोदी की सफलताओं के बारे में
कश्मीर पर देश की विफलताओं के बारे में
अमरीका, चीन, पाकिस्तान के बारे में
क्या सोचना

देखा, सुना, सूंघा, महसूसा
मैंने सोचा नहीं
सुकून से रहा मैं
सुनता हूं देश भी सुकून से है
यानी.....



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(खुदा की कसम
मजा आ गया
मुझे मारकर वो बेशरम
खा गए

खा गए
लेकिन मैं तो जिंदा हूं


ये  जीना भी कोई जीना है लल्लू,  आयं)