कभी तो गिरेंगे दाने
इसी आस में
चिडिया
रातभर आसमान तकती बैठी रही
सुबह हुई
तो दाने गायब
सूरज ने डांट लगाई
क्यों री चिडि़या
सारे दाने कैसे चुग गई
राजीव,
लाला जगदलपुरी का जिक्र होता है तो ये लाइनें याद आती हैं। ये लालाजी की ही कविता की पंक्तियां हैं, हालांकि मुझे कच्ची-पक्की ही याद है। चिड़िया रातभर भूखी थी, आसमान तकती रही। लालाजी देख रहे थे। उसकी भूख को, उसकी उम्मीदों को, लबालब आसमान को। रातभर लालाजी देख रहे थे। मुझे लगता है कि चिड़िया की जो हालत थी, लालाजी की भी वही रही होगी। यदि ऐसा न होता तो लालाजी अपनी थैली से दाने निकालकर चिड़िया को जरूर दे दिए होते। यानी एक भूखा आदमी एक चिड़िया की उम्मीदों को रात भर सहन करता रहा। सहन इसलिए करता रहा, क्योंकि चिड़िया भले न जाने लालाजी जरूर जानते थे कि न तो दाने गिरने वाले और न ही भूख मिटने वाली। लालाजी ने आसमानी साजिशों का तत्काल भंडाफोड़ भी नहीं किया, शायद इसलिए कि कम से कम झूठी उम्मीदों में ही सही, चिड़िया रातभर तो जिंदा रहेगी।वे सुबह तक जागते रहे, सूरज ने जब डांटा तब भी लालाजी ने सुना और यह भी देखा कि बेचारी भूखी चिड़िया उस डांट से कैसे सकपका गई थी। मैं दावे से कह सकता हूं कि जब चिड़िया सकपका रही होगी तो लालाजी छटपटा रहे होंगे।
माफ करना मेरे भाई, बड़ी शर्मिंदगी से यह स्वीकार कर रहा हूं कि मैं लालाजी को नहीं जानता। ठीक उसी तरह नहीं जानता जैसे मैं मुक्तिबोध को नहीं जानता। दोनों को जानने के बहुत से मौके थे, लेकिन मैं अपने में ही मस्त रहा। मैं जिस पेशे में हूं, उसमें इन जैसों को जानना उतना जरूरी भी नहीं रहा अब तो। हमें यह जानना ज्यादा जरूरी होता है कि शहर और राज्य में बड़े विज्ञापनदाता कौन-कौन लोग हैं। किन किन सम्मानीय नेताओं की फोटो रोज छापनी चाहिए। इन्हीं लोगों को जानते-जानते मुक्तिबोध और लालाजी मुझसे छूट गए।
लेकिन चिड़ियाएं लालाजी को जानती हैं, वे उनके रिपोर्टर जो हैं। वे उनके साथ भूखे रहते हैं और सूरज के खिलाफ रिपोर्ट लिखकर उसे बेनकाब कर देते हैं। वे दुनिया को बता देते हैं कि सारे दाने गायब करने वाला यही तो है। मैं लालाजी को जानता हूं कि नहीं यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, लालाजी को चिड़ियाएं जानती हैं और चिड़ियाओं को लालाजी जानते हैं।
लाला जगदलपुरी ( छाया-राजीवरंजन प्रसाद) |
राजीव तुम तो दोस्त हो मेरे, जब हम लालाजी के करीब थे तब तुमने मुझे क्यों नहीं टोका कि थोड़ा लालाजी को जान लें। मुझे याद है तब हम बहुत सी पत्रिकाएं भी पढते थे। देशभर में छपने वाली पत्रिकाएं। जगदलपुर से छपने वाली पत्रिकाएं। बस्तर की स्थानीय लघु पत्रिकाओं में देशभर के कवि-साहित्यकार तो छपते थे, पर लालाजी या तो नदारत रहते थे या फिर औपचारिक रूप से ही उपस्थित रहते थे।
राज, यार इन्हीं पत्रिकाओं को देख पढ़कर हमें भी तो साहित्यकार हो जाने का चस्का लगा था। एक पत्रिका बचेली से हमने भी छाप डाली थी-प्रतिध्वनि। मुझे तो याद नहीं, तुझे याद है क्या कि क्या तब हम लालाजी को जानते थे। मैं भी तब कुछ-कुछ लिखा करता था, यहां-वहां छपा भी। आकाशवाणी से भी प्रसारित हुआ। लेकिन आज अपने लिखे हुए को पढ़ता हूं तो स्वीकार करता हूं कि साहित्य की समझ न तो मुझे तब थी और न अब है। मैं दंडकारण्य समाचार में काम करता था और साहित्य पेज की जिम्मेदारी मुझ पर ही थी। यानी बंदर के हाथ में उस्तुरा। जब्बार ढाकवाला से लेकर त्रिजुगी कौशिक, विजयसिंह, योगेंद्र मोतीवाला, मदन आचार्यजी.....से मेल-मुलाकात शुरू हुई। लालाजी के पास भी जाया-आया करता था। लालाजी ने दंडकारण्य समाचार में खूब लिखा। एक हल्बी अखबार निकलता था-बस्तरिया। लालाजी की कविताएं उनमें भी छपा करती थी।...एक रोज मैं कविता मांगने लालाजी के पास पहुंचा तो उन्होंने मुझसे कहा था-अखबार वाले कविताएं तो मांगते हैं पर पत्रम्-पुष्पम् नहीं देते। साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा था कि कवि की आत्मा जिस शरीर में रहती है, उसे तो जिंदा रखना ही पड़ता है।
राजीव, तुमने जो तस्वीर छापी है, वह नकली है। उसकी पृष्ठभूमि नकली है। इतना वैभव लालाजी के इर्द-गिर्द हो ही नहीं सकता। यह जरूर किसी और का वैभव होगा, जिसे लालाजी को जीना पड़ रहा होगा। मैं तो उस छोटी सी खोली को जानता हूं जो डोकरीघाट पारा में कवि निवास नाम के बड़े से घर के बिलकुल बाहरी हिस्से में है। यही लालाजी का साधना कक्ष है और शर्त लगा सकता हूं कि यह खोली भी लालाजी की पूंजी नहीं हो सकती। तुम्हारे द्वारा प्रकाशित तस्वीर में यह वैभव जिस भी व्यक्ति का होगा, मेरा अनुमान है कि उसका वैभव लालाजी को करीब पाकर और भी बढ़ रहा होगा। ठीक उस तरह जैसे अखबारवाले लालाजी की कविताओं को छापकर वैभवशाली हो जाया करते थे। पर लालाजी तो आसमानी साजिशों को खूब समझते हैं। चलो इस कविता को फिर पढ़ते हैं-
कभी तो गिरेंगे दाने
इसी आस में
चिड़िया
रातभर आसमान तकती बैठी रही.....
लालाजी ने पुष्पम्-पत्रम् मांगा....कहा शरीर तो जिंदा रखना ही पड़ता है। यदि लालाजी को पुष्पम्-पत्रम् मिल गया होता तो न तो वे महल खड़ा करते और न ही फैक्ट्रियां खोलते। इतना जरूर होता कि उनके भीतर का स्वाभिमानी इनसान अपनी कमाई रोटियों में थोड़ा स्वाद और घोल लेता। जो आदमी हर क्षण सिर्फ कविता को जीता हो, जो हर क्षण अनुसंधान करता हो, जो दिन-रात लिखने पढ़ने में ही लगा रहता हो, उसे दुनियावी तरीके से रोटियां कमाने में बड़ी मुश्किलें होती होंगी भाई। लालाजी ने जो शब्द मुझसे कहे थे, शायद वे किसी और से न कहते। मैं बच्चा था, मेरे साथ वे भी बच्चे हो जाते थे। लालाजी को बिलकुल ठीक-ठीक पता था कि ये बच्चा पुष्पम्-पत्रम् नहीं दिला सकता।दंडकारण्य समाचार और बस्तरिया से उनका वैसा रिश्ता था भी नहीं। वे इन दो अखबारों से वैसे ही जुड़े थे, जैसे बस्तर से जुड़े हैं।निःस्वार्थ।उनकी पीड़ा उन अखबारों को लेकर थी जो महानगरों से प्रकाशित हुआ करते थे,और यही पीड़ा मेरे सामने व्यक्त हो गई। लालाजी जानते थे कि ये बच्चा पुष्पम्-पत्रम् नहीं दिला सकता। जो लोग दिला सकते थे उनके आगे लालाजी ने कभी हाथ नहीं पसारे। कई मौकों पर उन्होंने पुरस्कार सिर्फ इसलिए ठुकरा दिए क्योंकि इन्हें पाने के लिए आवेदन जमा करने की शर्त हुआ करती थी। लालाजी भूखे जरूर है, पर मांगेंगे नहीं। हर सुबह उनके हिस्से के दाने गायब हो जाते हैं। लालाजी सहन कर रहे हैं क्योंकि उनके साथ-साथ चिड़िया भी तो भूखी है और इसी चिड़िया के लिए वे जिंदा है।
लालाजी की वसीयत (साभार-साहित्य शिल्पी) |
मुझे साहित्य की समझ न तो तब थी और न अब है। लेकिन साहित्यकार होने के फैशन के उस दौर में मैं भी शामिल हो गया था। एक फोल्डर पत्रिका प्लान कर ली। और मेरी हिम्मत देखो राजीव मैं मदद मांगने लालाजी के पास जा पहुंचा। पता है लालाजी ने बड़ी आत्मीयता से मुझे बिठाया। वे मुझसे उस फोल्डर के प्रारूप की चर्चा करने लगे। उन्होंने ही मुझे उस फोल्डर का शीर्षक सुझाया-विन्दु। पता है यह शीर्षक आसानी ने नहीं मिला। उन्होंने लंबा अनुसंधान किया। कई शब्दकोष खंगाले। जब शीर्षक तय हो गया तो उन्होंने मुझे एक लघुकथा दी छापने के लिए। वह फोल्डर लघुकथाओं पर केंद्रित था। रउफ परवेज समेत कई आदरणीय लोगों ने मुझे लघु-कथाएं दीं। शायद इसलिए क्योंकि उसमें लाला जगदलपुरी छप रहे थे। फोल्डर का प्रुफ खुद लालाजी ने पढ़ा। इस फोल्डर का विमोचन सूत्र के एक समारोह में हुआ। रमाकांत श्रीवास्तवजी समेत कई दिग्गज साहित्यकारों की मौजूदगी में। वो एक बड़ा साहित्यिक समारोह था। उस समारोह में मैं साहित्यकारों के साथ फोटो खिंचवा रहा था, लालाजी एक कोने में निर्विकार बैठे थे। मेरी संकोच देखो कि तब मैं सोच रहा था कि इस मामूली से फोल्डर में लालाजी के योगदान का उल्लेख करना उनके प्रति सम्मानप्रद होगा कि नहीं। लेकिन आज मैं उस मामूली फोल्डर में उनके योगदान का ढिंढोरा जोर-जोर से पीटना चाहता हूं। इतना बड़ा आदमी, कितना बड़ा काम।
राजीव भाड़ में जाए सरकारें, अपन तो लालाजी के चरणों में ही मस्त हैं।
और हां मैं उन्हें जानना चाहता हूं राजीव, कोई चाहे या न चाहे।
बेहतरीन..
जवाब देंहटाएंलाला जगदलपूरी का नाम तो सूना है पिताजी उनका जिक्र करते है, कभी मिलने का इत्तफाक नहीं हूआ, इस आलेख को पढने से कहीं ऐसा भी नहीं लगा कि, बस जा कर मिल ही लेना चाहिए, लेकिन हां, यह जरूर है, कि, यह प्रस्तूतीकरण शानदार है।
जवाब देंहटाएंपढने में मजा आया ।
iss post or achchhi jankari ke liye dhanyawad sir.........
जवाब देंहटाएंभाई केवल, मैं समाचार पत्रों में आपकी रिपोर्टिंग को पढ़ते हुए उसे लिखने के पहले आपके मन में शब्दों के चयन, भावनात्मक उद्गारों की प्रस्तुति एवं अनुभव व अध्ययन की कसौटी को अनुभव करते रहा हूं जिसमें आपकी छवि संपादकीय सीमाओं में एक सुलझे पत्रकार की बनी है। भाई राजीव को लिखे इस पत्र में आपने अपनी भावनाओं को बिना बंदिशों के बिखेरा है। आपके मन में लाला जी के प्रति जो श्रद्धा है उसे मेरा नमन।
जवाब देंहटाएंmain donon ko jaanta hun, par rumhari tarah..lala jee ka maine na na bolne ke baad bhi saakshatkaar video men kar rakha hai. jaanta hun meri library ka yah ek sunahara adhyaay hai. tumne shreshtha shabdon ka sanyojan kar apni abhivyakti prastut ki hai. badhaee.
जवाब देंहटाएंAadarniiy bhaaii Kewal Krishna jii
जवाब देंहटाएंShraddhey laalaa jii ke prati aapakii bhaawnaaon kaa main hriday se sammaan karataa hun. aapakaa yeh dard ki मैं जिस पेशे में हूं, उसमें इन जैसों को जानना उतना जरूरी भी नहीं रहा अब तो। हमें यह जानना ज्यादा जरूरी होता है कि शहर और राज्य में बड़े विज्ञापनदाता कौन-कौन लोग हैं। किन किन सम्मानीय नेताओं की फोटो रोज छापनी चाहिए। इन्हीं लोगों को जानते-जानते मुक्तिबोध और लालाजी मुझसे छूट गए aapke man ko kitanaa saaltaa hogaa yeh main achchhii tarah samajh saktaa hun. Padh kar to meraa man bhar aaayaa. Aabhaar.
Aadarniiy laalaa jii ke vyaktitwa avam krititwa par kaam kii pahal aarambh ho gayii hai 2005 se. Gati manthar thii kintu idhar yah tiiwra huii hai; aur isake liye aadarniiy Raajiiv Ranjan jii, aadareniiya sanjiiv tiwaarii jii, aadarniiy kewal krishna jii kaa aabhaar.
जवाब देंहटाएंShraddhey laalaa jii kii do aprakaashit pandulipiyon (1-Muktak laalaa jagdalpurii ke, aur 2-Giit-dhanwaa)ke prakashan ke saath-saath unake wyaktitwa avam krititwa par bhii kaam chal rahaa hai. Sabhii se sahyog kii praarthanaa hai. Jinake paas bhii laalaa jii se sambandhit saamagrii (sansmaran, saakshaatkaar aadi) uplabdh ho unase wah saamagrii mujhe uplabdh karaane kaa winamra niwedan hai. Main unakaa aajiiwan aabhaarii rahuungaa.
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