जरा इधर भी
शनिवार, 22 फ़रवरी 2014
सुबह-सवेरे
सुबह-सवेरे
जब रजाई कुनमुना रही थी
चौखट पर खड़ी थी धूप
खिलखिला रही थी
वो झुग्गियों से आ रही थी
-केवलकृष्ण
2 टिप्पणियां:
प्रवीण पाण्डेय
25 फ़रवरी 2014 को 7:02 am बजे
दिन भी अलग अलग निकलता है।
जवाब दें
हटाएं
उत्तर
जवाब दें
P. C. RATH
27 अक्टूबर 2014 को 12:15 am बजे
vaah
जवाब दें
हटाएं
उत्तर
जवाब दें
टिप्पणी जोड़ें
ज़्यादा लोड करें...
नई पोस्ट
पुरानी पोस्ट
मुख्यपृष्ठ
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
दिन भी अलग अलग निकलता है।
जवाब देंहटाएंvaah
जवाब देंहटाएं