गुरुवार, 17 नवंबर 2011

रामगढ़ की प्राचीनतम नाट्यशाला

इलाहाबाद से रामेश्वरम के प्राचीन मार्ग पर सरगुजा  के उदयपुर  में स्थित एक ऊंची पहाड़ी रामपुर टप्पा के समतल मैदानों में अचानक ही उठ खड़ी हुई है। समतल भू-सतह से 308 मीटर की ऊंचाई तक उत्तर से दक्षिण में फैली एक पहाड़ी और इस पहाड़ी के दक्षिण-पश्चिमी भाग में लगभग 310 मीटर ऊंची एख सीधी खड़ी चट्टान, इस पूरी पहाड़ी को एक सूंड में उठाए हुए हाथी की शक्ल देते हैं। इस पहाड़ी को रामगढ़ कहते हैं। 
पारंपरिक कथाओं के अनुसार रामायण काल में यह स्थल दंडकारण्य था एवं सीताजी पहाड़ी स्थित गुफा सीता-बेंगरा में निवास करती थीं। पहाड़ी के समीप ही बहने वाली नदी रिहन्द या रेण प्राचीन काल में मंदाकिनी थी। इतिहासविद् कनिंघम रामगढ़ की पहाड़ियों को रामायण में वर्णित चित्रकूट मानते हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार महाकवि कालिदास ने जब राजा भोज से नाराज हो उज्जयिनी का परित्याग किया था तब उन्होंने यहीं शरण ली थी और महाकाव्य मेघदूत की रचना इन्हीं पहाड़ियों पर बैठकर की थी। 


दर्शनीय स्थल


हाथी पोल
रामगढ़ के उत्तरी छोर के निचले भाग में एक विशाल सुरंग है जो लगभग 39 मीटर लंबी एवं मुहाने पर 17 मीटर ऊंची एवं इतनी ही चौड़ी है। इसे हाथपोल या हाथीपोल कहते हैं। अंदर इसकी ऊंचाई इतनी है कि इसमें हाथी आसानी से गुजर सकता है। बरसात में इसमें से एक नाला बहता है। अंदर चट्टानों के बीच एक कुंड है, जो सीता कुंड के नाम से जाना जाता है। इसका पानी अत्यंत निर्मल एवं शीतल है।


नाट्यशाला
सीता बेंगरा की रचना को देखकर आभास होता है कि इसका उपयोग प्राचीन काल में नाट्यशाला के रूप में किया जाता था। पूरी व्यवस्था बहुत ही कलात्मक है। गुफा के बाहर लगभग 50-60 लोगों के बैठने के लिए अर्धचंद्राकार में आसन बने हुए हैं। गुफा के प्रवेश स्थल की फर्श पर दो छिद्र हैं जिनका उपयोग संभवतः पर्दे में लगाई जाने वाली लकड़ी के डंडों को फंसाने के लिए किया जाता था। पूरा परिदृश्य रोमन रंगभूमि की याद दिलाता है। प्रतिवर्ष आषाढ़ के प्रथम दिवस पर इस नाट्यशाला में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। 
सीता बेंगरा गुफा की समतल चट्टान पर दो पंक्तियों का एक शिलालेख है, जिसकी प्रत्येक पंक्ति की लंबाई एक मीटर है। यह लेख गुप्तकालीन शासकों के शिलालेख में उत्कीर्ण ब्राह्मी लिपि के समान उकेरे गए हैं। एक अन्य शिलालेख मध्यकालीन नागरी लिपि में है। इसके अलावा मौर्यों के समय का एक संयुक्त अक्षर भी उत्कीर्ण किया गया है। कुछ संख्यात्मक मान भी लिखे गए हैं, मानों किसी ने किसी तथ्य की गिनती संभालकर रखी हो। 
जोगीमारा
सीता बेंगरा से सटी हुई एक दूसरी गुफा है जो जोगीमारा के नाम से जानी जाती  है। इसकी छत की बाहरी एवं भीतरी सतह पर पक्षियों, पुष्पों, मछलियों, वृक्षों एवं मनुष्यों की आकृतियां लाल, पीले, भूरे, हरे तथा काले रंगों में चित्रित की गई है। कई स्थानों पर प्राचीन चैत्य झरोखों का भी चित्रण किया गया है। दो पहियों से युक्त रथ, जिसे तीन घोड़े खीच रहे हैं और छतरियों से ढंके हैं, सांची एवं भरहुत की खुदाई में प्राप्त परिदृश्यों के समान हैं। 
नमी से इन प्राचीन चित्रणों का बड़ा हिस्सा पूर्णतः नष्ट होकर अदृश्य हो गया है। तो भी कला के ये हिस्से प्राचीनतम भित्ती चित्रों के रूप में मानें जाते हैं, जो ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के समय के हैं। इस गुफा में पांच पंक्तियों का एक शिलालेख है, जो सम्राट अशोक के शिलालेखों के समान ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है। इसकी भाषा विशुद्ध मागधी है। 
तुर्रापानी
सीता बेंगरा से आगे खड़ी चट्टान के तल में चट्टान के बीच से पानी की धारा बहती है। इसका जल अत्यंत स्वच्छ एवं शीतल है। यह तुर्रापानी कहलाता है। इस स्थान को तिलकमाटी भी कहते हैं। यहां की मिट्टी का रंग लाल है। किंवदंती है कि श्रीरामचंद्रजी ने सीताजी के मस्तक पर इसी स्थान पर इस मिट्टी से तिलक लगाया था। यहां प्रतिवर्ष माघ (जनवरी-फरवरी), चैत्र (मार्च-अप्रैल) एवं बैशाख (मई-जून) के महीनों में मेला भरता है। 


पउरी दरवाजा या पउरी द्वारी
मुख्य पहाड़ी के मार्ग पर एक जीर्ण-शीर्ण द्वार है, जो दो प्रस्तर स्तंभों को कई पत्थरों के टुकड़ों से जोड़कर बनाया गया है। इस द्वार पाथ के दूसरी तरफ कटे हुए पत्थर के टुकड़ों के विशाल खंड पड़े हुए हैं, जिनका उपयोग कभी एक घेरनुमा दीवार के निर्माण में हुआ था। इस द्वार से आगे कबीर चौरा नामक चबूतरा है, जो धर्मदास नामक योगी की समाधि है। वे रामगढ़ पहाड़ी के अंतिम योगी थे। यहीं पर एक विशाल प्रस्तर खंड है, जिसमें अंदर जाने का एक छोटा सा रास्ता बना है। इसे वशिष्ठ गुफा के नाम से जाना जाता है। 


सिंह दरवाजा या रावण दरवाजा
वशिष्ठ गुफा से आगे विशाल पत्थरों को तराशकर बनाया गया मेहराब आज भी खड़ा है। सीधी खड़ी चट्टानों पर इतने विशाल प्रस्तर खंडों से किया गया निर्माणकार्य आश्चर्यजनक है। यह सिंह दरवाजा कहलाता है। सिंह दरवाजे से टूटी हुई सीढ़ियों के पायदान (गणेश सीढ़ी) रावण दरवाजे तक ले जाते हैं। 
रावण दरवाजा रावण, कुंभकरण, कुछ नाचती हुई नारियों की प्रतिमाओं तथा सीताजी तथा हनुमानजी की प्रतिमाओं से युक्त है। आस-पास कुछ अन्य मूर्तियां भी हैं, जिनके परिधान एवं वास्तुकला गुप्तकाल की मूर्तियों के समान है। पहाड़ी की चोटी पर बहुत अच्छी हालत में एक मंदिर है, जिसमें राम, लक्ष्मण एवं सीताजी की मूर्तियां रखी हैं। पहाड़ी के शिखर से लगभग 61 मीटर नीचे खड़ी चट्टान की सतह पर एक प्राकृतिक गुफा है। गुफा में नमीयुक्त चाक मिट्टी पाई जाती है। मंदिर में पूजा के बाद भक्तों द्वारा इस मिट्टी को अपने कपाल पर पवित्र चिन्ह के रूप में लगाया जाता है। गुफा के ठीक नीचे एक स्वच्छ जल का कुंड है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका जलस्तर हमेशा एक समान बना रहता है। 
महेशपुर
रामगढ़ के उत्तर में 88 किलोमीटर की दूरी पर रेण (रेणुका) नदी के किनारे स्थित महेशपुर में 12 विशाल मंदिरों के भग्नावशेष हैं, जो मुख्यतः भगवान शिव एवं विष्णु से संबंधित हैं। एक स्थान पर जैन तीर्थंकर वृषभनाथ की प्रतिमा प्राप्त हुई है। ये सभी अवशेष 7वीं से लेकर 10वीं शताब्दी ईसवी के माने जाते हैं। यहां मुख्यरूप से कलचुरीकाल की शैवकला एवं संस्कृति के दर्शन होते हैं। भगवान शिव के मुख्य शिवलिंग के चारों तरफ एकादश रूद्र स्थापित है। यहां संभवतः द्रविड़ प्रजातियों का प्रभुत्व था। 


कैसे पहुंचे
रामगढ़, अंबिकापुर-बिलासपुर मुख्यमार्ग पर स्थित उदयपुर से 3 किमी और अंबिकापुर से 43 किमी दूर है। अंबिकापुर एवं बिलासपुर से उदयपुर पक्की सड़क से जुड़ा है। 
आवास
ठहरने के लिए उदयपुर में पीडब्लूडी विभाग का विश्रामगृह बना है। इसके अतिरिक्त उदयपुर में 18 किलोमीटर दूर लखनपुर में ठहरने हेतु धर्मशाला एवं समीप के कुंवरपुर में सिंचाई विभाग का विश्रामगृह है। अंबिकापुर में ठहरने के लिए उच्च विश्रामगृह, विश्राम भवन, होटल, गेस्ट हाउस आदि उपलब्ध है। 


(छत्तीसगढ़ जनमन, वर्ष-1, अंक-4 से साभार, संपादक-उमेश द्विवेदी,  स्रोत छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल रायपुर)

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