रविंद्र ठेंगड़ी |
अशोका होटल से मिलेनियम प्लाजा में शिफ्ट हुए काफी हाउस में अपने चंद मित्रों के साथ कोल्ड काफी पीने के मौका अरसे बाद मिला। दोस्तों के साथ बस यूं ही औपचारिक बातें चल रही थी, तभी पास ही एक टेबल को घेरे बैठे बुद्धिजीवियों की बातों ने ध्यान खींच लिया। वे प्रबुद्ध नागरिक भारत-चीन पर चर्चा कर रहे थे। उनमें से एक ने कहा कि चीन ने भारत की हजारों किलोमीटर सीमा पर करीब डेढ़ से तीन किलोमीटर तक कब्जा कर लिया है। यदि बार्डर की लंबाई के हिसाब से बातें करें तो हजारों किलोमीटर भारत के भूखंड पर अब चीन ने कब्जा जमा लिया है और वह चीन-भारत सीमा पर चौड़ी सड़कें बनाकर युद्ध के लिए उपयोगी इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलप कर रहा है। इस बीच एक अन्य मित्र ने कहा कि हम तो पहले से ही कर रहे हैं कि पाकिस्तान से कहीं अधिक खतरनाक व शत्रु देश चीन है और हमें चीन से कहीं अधिक सावधान रहने की जरूरत है। इस बीच एक उतावले मित्र ने कहा, चाहे जो बोल लो, लेकिन आज की परिस्थितियों में चीन कभी भी भारत के खिलाफ युद्ध करने के बारे में सोच भी नहीं सकता क्योंकि आज ‘चाइना माल’ का सबसे बड़ा बाजार भारत में ही है। यदि भारत आर्थिक दृष्टि से बर्बाद हो गया, तो कम-से-कम 15 करोड़ चीनी बेरोजगार हो जाएंगे और उनके सामने रोजी-रोटी के लाले पड़ जाएंगे।
पड़ोसी टेबल पर जारी चर्चा के बीच ही अचानक दिमाग में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा का स्मरण हो आया। जब पूरा देश दीपावली में लक्ष्मी पूजन के बाद छह नवंबर को गोवर्धन पूजन और पाड़वा की तैयारियों में था, तभी भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में दोपहर 1.10 बजे ओबामा पहुंचे। उन्होंने कहने को तो बच्चों और कालेज स्टूडेंट्स के साथ कुछ क्षण बिताया। उसके बाद वे अपने तयशुदा एजेंडा के तहत भारत के दिग्गज उद्योगपतियों के साथ बैठकर उन्हें अमेरिका में निवेश के लिए आमंत्रित किया। इससे अमेरिका में 50 हजार से अधिक नौकरियों के अवसर उपलब्ध होंगे। बैठक के बाद पत्रकारों से ओबामा ने कहा कि इससे भारत को हर क्षेत्र में खरीदारी के लिए बड़े पैमाने पर बेहतरीन आप्शन मिलेंगे। कुल मिलाकर ओबामा यहां 125 करोड़ लोगों के बाजार में गुहार लगाने आए थे। यही कारण है कि वे मुंबई दौरे के 25 घंटे बाद यानी सभी व्यापारिक गतिविधियों को संपन्न करने के बाद देश की राजधानी नई दिल्ली पहुंचे और वहां राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और भारतीय संसद से रू-ब-रू हुए थे।
इस बीच करीब एक दशक पुरानी एक और घटना याद आई। जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान पोखरण में परमाणु परीक्षण किया गया था और इसमें भारत देश की पूरी विश्व बिरादरी में आलोचना हुई थी। उस समय अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भारत से व्यापारिक, राजनीतिक, कूटनीतिक सहित सभी संबंध खत्म कर लिए थे। महज 48 घंटे के भीतर ही बिल क्लिंटन को अपने आदेश को संशोधित करना पड़ा था। उनके संशोधित आदेश के मुताबिक राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर तो हमारे संबंध भारत से रद्द रहेंगे, लेकिन निजी कंपनियां इस विषय में अपना निर्णय लेने स्वतंत्र हैं अर्थात वे भारत से आयात-निर्यात संबंधी सभी गतिविधियां अनवरत जारी रख सकती हैं। निजी कंपनियों और ग्लोबल मार्केट के दबाव के सामने कमर तक झुके अमेरिकी राष्ट्रपति को देखकर साबित हो गया कि दुनिया का सबसे बड़ा ताकतवर आदमी वास्तव में कितना ताकतवर है?
बार-बार दिमाग पर जोर देने के बाद समझ ही नहीं आ रहा था कि आखिर हमारा देश यानी भारत है क्या? सीना फुलाकर गर्व से हम भले ही कहें कि भारत देश हमारी मां है, लेकिन यकीन मानिए कि आज के भारत में मां की बात तो दूर, घर का एक उपेक्षित सदस्य भी नजर नहीं आता। भारत पूरे विश्व सहित हमारे अपनों के बीच भी 125 करोड़ लोगों का खुला बाजार है। जहां आपको सब कुछ मिल जाएगा, हर देश का माल, हर वर्ग का माल, हर कीमत का माल और वह भी बड़ी रेंज में। इसलिए बाजार में उपलब्ध माल की तरह ही आप भी भारत से किसी गारंटी की उम्मीद मत कीजिए।
भारत देश के हर घर में बच्चों को आज शिक्षा के नाम पर वही सब पढ़ाया जा रहा है जो उन्हें मार्केट में एक आॅन डिमांड प्रोडक्ट के तौर पर स्थापित कर सके। बचपन में हम पढ़ते थे कि भारत विविध भाषाओं-बोलियों, संस्कृति और परंपराओं वाला एक गुलदस्ते की तरह खूबसूरत देश है जहां विभिन्न जाति-धर्म के लोग मिल-जुलकर एक संयुक्त परिवार की तरह रहते हैं। आज यह आकलन करने की जरूरत है कि क्या वास्तव में भारत एक विभिन्न जाति-धर्मों के लोगों का संयुक्त परिवार है या हमारे अपने परिवार-समाज की तरह विखंडित हो चला है?
बाजार की तूफानी ताकत के बीच अब आप लोगों में देशभक्ति की मशाल खोजने की कोशिश न करें, क्योंकि जब बाजार में एक से बढ़कर एक उत्पाद उतारने की होड़ मची हो और सारे गुणा-भाग, लाभ-हानि से शुरू होकर लाभ-हानि में ही समाप्त हो जाते हों, वहां आप देश की आजादी, आतंकवाद और सीमा पार बढ़ते चीनी कब्जे की बात न ही करें तो बेहतर होगा। युवाआें में अब ‘देश’ बातचीत का विषय होता ही नहीं। वे तो स्वयं किसी मल्टी नेशनल कंपनी के बड़े पैकेज के साथ (सम्मानजनक) नौकरी करने के लिए कैंपस सलेक्शन की बाट जोहते रहते हैं।
हाल ही में फिल्म ‘राजनीति’ के रिलीज होने के चंद दिन पहले ही एक टीवी न्यूज चैनल में परिचर्चा के दौरान निर्देशक प्रकाश झा और अभिनेता मनोज वाजपेयी ने सुझाव दिया कि हर युवा को अनिवार्य रूप से कम-से-कम तीन साल तक सैनिक ट्रेनिंग दी जानी चाहिए। शिक्षा के दौरान इसे अनिवार्य बनाने का सुझाव भी उन्होंने दिया क्योंकि इस समय देश में तकरीबन साढ़े 12 हजार थलसेना अधिकारियों के पद खाली हैं और आज की युवा पीढ़ी सेना में करियर को लेकर बेहद अनिच्छुक है। ऐसे में उनमें देशप्रेम का भाव जगाने के लिए कालेज में डिग्री कोर्स और डिप्लोमा के साथ मिलिट्री कोर्स को अनिवार्य किया जाना चाहिए। उनके सुझाव का फिल्म के नायक रणबीर कपूर और अर्जुन रामपाल ने पुरजोर विरोध किया। अभिनेता द्वय ने कहा कि इससे युवाओं के दो-तीन साल बर्बाद हो जाएंगे और उनका करियर चौपट जाएगा। उन्होंने कहा कि किसी भी दशा में युवाओं पर इस तरह की ज्यादती नहीं होनी चाहिए। वर्तमान पीढ़ी की भावनाओं व करियर के लक्ष्य का सम्मान होना चाहिए। रणबीर और अर्जुन रामपाल दरअसल आज की पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनकी नजर में देश एक मल्टी स्टोरीड बिल्डिंग है जिसकी सुरक्षा का जिम्मा किसी भी सिक्योरिटी एजेंसी को देकर उसे हर माह एक निश्चित रकम (जो स्वाभाविक रूप से बहुत बड़ी होगी) देकर हम अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर सकते हैं। रणबीर ने कहा कि हम तो देश को हर साल इनकम टैक्स के रूप में अपनी आय का मोटा हिस्सा देते हैं, अब क्या हम देश के लिए बार्डर में भी जाकर लड़ें? क्या तभी हमारी देशभक्ति साबित होगी?
कुल मिलाकर, आज की युवा पीढ़ी को आप 16-18 घंटे नौकरी करते हुए पैकेज सेलेरी के अंतर्गत मोटी रकम कमाने दीजिए। इस रकम से यह पीढ़ी आपको जो इनकम टैक्स के रूप में भुगतान करेगी, वही उसकी देश के प्रति जिम्मेदारी है और देशभक्ति भी! 60 साल पहले देश को ब्रिटिश हुकूमत से आजादी दिलाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि नौकरीपेशा आम आदमी की तरह अब जनता भी अपने देश को 60-65 साल की उम्र में (रिटायर्ड कर) एक सर्वसुविधायुक्त बाजार के तब्दील कर देगी। एक ऐसा बाजार जिसमें देश की महज 13 फीसदी आबादी ही प्रवेश कर पाएगी क्योंकि बाकी की 87 फीसदी आबादी की औकात ही नहीं होगी यहां आकर खरीदारी करने की।
राजधानी के एक विख्यात अर्थशास्त्री ने कहा कि यह बदलाव वास्तव में बहुत दु:खद और नकारात्मक है क्योंकि यह न केवल आदमी को बुरी तरह अवसरवादी, लालची, भ्रष्ट बना रहा है बल्कि अपने मुल्क, समाज व परिवार से ही विमुख कर रहा है। यह बदलाव आज पूरे विश्व में हो रहा है। अब तो अमेरिका जैसा विश्व का सबसे संपन्न और विकसित राष्ट्र मंदी की गिरफ्त में आकर कंगाल हो जाता है, तो आप इस आंधी से अपने देश और देश की युवा पीढ़ी को कैसे बचाएंगे? हम सिर्फ अपने घर को अपने बच्चों को ही संभाल लें, उन्हें अच्छी शिक्षा के साथ अच्छे संस्कार ही दे पाएं तो यही काफी होगा। निराशा के अवसाद में डूबे इस अर्थशास्त्री ने ‘नेशनल लुक’ से कहा कि अब आप जाइए और मुझे कहीं खो चुके अपने ‘हिंदुस्तान’ को खोजने की एक और कोशिश करने दीजिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
shabash
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