सोमवार, 30 अगस्त 2010

नत्था ही नहीं पप्पू भी अपना

चरणदास चोर में रविलाल हवालदार कि भूमिका में 
नत्था यानी ओंकारदास मानिकपुरी तो छत्तीसगढ़ के हैं ही पीपली लाइव में उनकी मौत की गारंटी देने वाला छुटभैया नेता भी छत्तीसगढ़ का है। अभी छत्तीसगढ़ ओंकार के अभिनय पर मुग्ध है और उसका ध्यान इस फिल्म में बेहतरीन अभिनय करने वाले अन्य छत्तीसगढ़ी कलाकारों की ओर नहीं गया है। इन्हीं में से एक हैं रविलाल संगड़े, जिनकी बेहतरीन अदाकारी की चर्चा मप्र में जमकर हो रही है। रविलाल ने ही उस छुटभैये नेता का किरदार अदा किया है जो जोरदार तरीके से कहता है-नत्था मरेगा, जरूर मरेगा (फिल्म में इस किरदार का नाम शायद पप्पू है) । संवाद अदायगी इतनी जबर्दस्त है कि थियेटर के जानकार लोग इस कलाकार के कायल हो गए हैं। इसी एक संवाद ने पूरी फिल्म में जान भी फूंकी है। यही संवाद पूरे भारत में गूंज गया।
रविलाल मूलतः छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव इलाके के रहने वाले हैं, इन दिनों भोपाल की एक झोपड़पट्टी में गुजारा कर रहे हैं। शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन, श्याम बेनेगल की समर में भी उन्होंने काम किया। उन्होंने अपनी कला यात्रा नाचा कलाकार के रूप में शुरू की थी, हबीब तनवीर ने उन्हें थियेटर से जोड़ा। १९७५ से वे थिएटर कर रहे हैं और उन्होंने नया थिएटर के चरणदास चोर, बहादुर कलारिन समेत कई नाटकों में काम किया। कई टीवी सीिरयल किए। कला क्शेत्र में जबर्दस्त उपलब्धियां उनके खाते में हैं, इसके बावजूद वे गरीबी के दिन गुजार रहे हैं। एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि मुझे अपनी सादगी पसंद है और मैं ऐसे ही रहना चाहता हूं। जो कलाकार जिंदगी को सही मायने में और उसके सभी रंगों के साथ जीता है, उसी की कला निखरती है। (रवि लाल का साक्षात्कार साधना न्यूज़ में मैंने देखा )

शनिवार, 28 अगस्त 2010

वेदांता का एक और कारनामा

शुरू से विवादास्पद रहे औद्यागिक समूह वेदांता का एक और कारनामा छत्तीसगढ़ के अखबारों की सूर्खियों में है। खबरों के मुताबिक वेदांता के नियंत्रण वाले बालको ने प्लांट के विस्तार के लिए जंगल के ५० हजार से अधिक पेड़ों को काट डाला है।
बीती ताही 
१. केंद्र ने निजी क्षेत्र की वेदांता सर्विसेज समूह पर वन एवं पर्यावरण कानून का उल्लंघन के आरोप में कार्रवाई करते हुए की उड़ीसा में उसकी 1.7 अरब डॉलर की बाक्साइट खनन की एक परियोजना की मंजूरी खत्म कर दी है।

केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश ने इस निर्णय की घोषणा करते कहा कि उड़ीसा सरकार और वेदांता के नियामगिरी पहाड़ी क्षेत्र में खनन से पर्यावरण संरक्षण कानून, वन संरक्षण और अधिकार कानून गंभीर उल्लंघन हुआ है। 

वन सलाहकार समिति (एफएसी) की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा कि इसीलिए लांजीगढ़, कालाहांडी और रायगगढ़ा जिलों में फैले नियामगिरी पहाड़ी क्षेत्र में राज्य के स्वामित्व वाली उड़ीसा माइनिंग कॉर्पोरेशन तथा स्टरलाइट बाक्साइट खनन परियोजना के दूसरे चरण की वन मंजूरी नहीं दी जा सकती।

समिति ने राज्य सरकार के साथ वेदांता खनन परियोजना को दी गई वन एवं पर्यावरण संबंधी दीगई सैद्धांतिक मंजूरी वापस लेने की सिफारिश की थी। उधर, भुवनेश्वर में उड़ीसा के औद्योगिक एवं इस्पात था खान मंत्री रघुनाथ मोहंती ने फैसले को ‘अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण’ बताया।


http://hindi.webdunia.com/news/business/news/1008/24/1100824062_1.htm (साभार) 


2.पिछले महीने कोरबा में गिरी जानलेवा चिमनी वाले कांड को, जिसे अब तक समूचे मीडिया में बालको कांड का नाम दिया जा रहा है, आखिर किसने अंजाम दिया है? ज़ाहिर है, कंपनी तो बालको ही है, लेकिन इसे कोरबा कांड कहने के पीछे एक सैद्धांतिक वजह है. 

आधिकारिक रूप से 41 मजदूरों की जान ले चुकी इस दुर्घटना को समूचे मीडिया में बालको कांड के नाम से पुकारा गया. बालको कभी भारत सरकार का उपक्रम था, अब नहीं है. इसके मालिक हैं अनिल अग्रवाल, जो अरबों डॉलर की लंदन में सूचीबद्ध कंपनी वेदांता-स्टरलाइट के मालिक हैं. तो दुर्घटना को बालको के नाम से जोड़ना एक मनोवैज्ञानिक छवि पैदा करता है कि यह दुर्घटना एक सरकारी कंपनी में हुई है.
कोरबा वेदांता

पहले साफ कर लें कि ऐसा नहीं है. बालको के 51 फीसदी शेयर अनिल अग्रवाल की स्टरलाइट ने 2001 में ही 551 करोड़ रुपये चुका कर खरीद लिए थे, जब कंपनी के पास कुल नकदी 447 करोड़ रुपये ही बची थी. तो सबसे पहली बात, इस दुर्घटना की कानूनी और नैतिक जिम्मेदारी बालको के प्रबंधन यानी वेदांता-स्टरलाइट कंपनी पर बनती है. 

http://raviwar.com/news/239_vedanta-balco-mishap-abhishek-shrivastav.shtml (SABHAR)
3. मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने इंग्लैंड की एल्युमिनियम कंपनी वेदांता की आलोचना की है और कहा है कि उसने उड़ीसा में स्थानीय लोगों के मानवाधिकारों का उल्लंघन किया है.
कंपनी ने भारत सरकार से मांग की है कि स्थानीय लोगों की समस्याओं को सुलझाए बिना वो वेदांता को आगे विस्तार की अनुमति न दे.
हालांकि वेदांता कंपनी ने इन आरोपों से इनकार किया है और कहा है कि वो मानवाधिकारों का सम्मान करती है और ऐसा कोई भी काम नहीं किया गया है जिससे स्थानीय लोगों को नुक़सान हो.
रिपोर्ट जारी करते हुए एमनेस्टी इंटरनेशनल के दक्षिण एशिया शोधकर्ता रमेश गोपालकृष्णन ने कहा, "वेदांता की वजह से यहां भारी जल और वायु प्रदूषण फैल रहा है जिससे यहां के लोगों को गंभीर बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है."

http://thatshindi.oneindia.in/news/2010/02/09/amnestyvedantasm.html



4. छत्तीसगढ़ विधानसभा में कांग्रेस सदस्यों ने वेदान्त समूह को कैंसर अस्पताल के लिए नई राजधानी में 50 एकड भूमि देने पर आज कड़ी आपत्ति जताई।
विपक्ष के नेता रवीन्द्र चौबे ने प्रश्नोत्तरकाल के दौरान कहा कि वेदान्त समूह को नई राजधानी में 50 एकड़ भूमि महज एक रूपये दी गयी है. जबकि एक निजी विश्वविद्यालय को बगैर नियामक आयोग की मंजूरी के ही जमीन दे दी गयी है। उन्होंने आरोप लगाया कि नए राजधानी क्षेत्र में जमीनों की बंदरबांट हो रही है।
 उन्होंने जानना चाहा कि वेदान्ता समूह को कैंसर रिसर्च सेन्टर की स्थापना के लिए भूमि आवंटन से पूर्व क्या अन्य दूसरी संस्थाओं से भी प्रस्ताव मंगाए गए थे।

उन्होने वेदान्त समूह पर सवाल उठाते हुए कहा कि कोरबा एवं मैनपाट के लोगों को इस समूह की कार्यप्रणाली के बारे में बेहतर पता है। 


शकुनि मामा को भा गई छत्तीसगढ़ी

महाभारत सीरियल के शकुनि मामा यानी गूफी पेंटल ने पिछले कई महीने से छत्तीसगढ़ में डेरा डाल रखा है। वे इन दिनों एक छत्तीसगढ़ी फिल्म के निर्देशन में व्यस्त हैं। छत्तीसगढ़ी फिल्मों की लगातार बढ़ती गुणवत्ता और बढ़ते बाजार ने बालीवुड को इस ओर आकर्षित किया है। गूफी पेंटल निर्देशित महतारी नाम की फिल्म में भोजपुरी फिल्मों की कलाकार संगीता तिवारी भी काम कर रही हैं। 



मंगलवार, 24 अगस्त 2010

प्लीज़, बहस कीजिये

मैं आपको यह खबर इसलिए नहीं दे रहा हूं, कि यह सनसनीखेज है। इस तरह की घटनाएं देश के दिगर इलाकों में नहीं होती होंगी, ऐसी भी बात नहीं। असल में इस तरह की घटनाओं पर आम लोगों में बड़ी बहस नहीं हो पाती। एक बहस की उम्मीद में यह दर्दनाक खबर पेश कर रहा हूं। मैं नया ब्लागर हूं, लेकिन मैंने महसूस किया है कि ब्लागिंग की इस दुनिया में सरकार नहीं बोलती, अखबार नहीं बोलते, सीधे पब्लिक बोलती है।
खबर यह है कि रायपुर के करीब के एक गांव में एक घर में तीन बच्चों की हत्या गला रेत कर कर दी गई। हत्यारे ने लाशों पर मिट्टी का तेल उड़ेल कर उसे जलाने की भी कोशिश की। मकान मालिक किसी काम से शहर गया था। घर पर बच्चे अकेले ही थे। अब तक की जांच में यह सामने आया है कि हत्या गांव के ही दो बच्चों ने की थी। इन्हें वे २५ हजार रुपए चाहिए थे, जो घर की आलमारी में रखे हुए थे। चोरी की कोशिश की, पकड़े जाने के डर से हत्याएं कर दी।
सवाल-
१. गांव में सीमित जरूरतों के बीच पल रहे बच्चों को २५ हजार रुपए हांसिल करने का खयाल क्यों आया?
२. अपराध के शातिर तौर-तरीके वे कहां से सीख रहे हैं?
३. वहशियाना मिजाज बच्चों में कैसे पनप रहा होगा?
४. क्या मीडिया की इस अपराध में कोई भूमिका है?
५. क्या बाजार की इस अपराध में कोई भूमिका है?
६. क्या शिक्षा प्रणाली की इस अपराध में कोई भूमिका है?
७. क्या सरकार की इस अपराध में कोई भूमिका है? क्या उसके हाथ बदल रहे समाज की नब्ज पर हैं?
हो सकता है कि इनमें से कुछ सवाल बेवजह लगें, आप अपनी ओर से उन्हें खारिज कर दीजिए और नये सवाल जोड़कर जवाब दीजिये ?

सोमवार, 23 अगस्त 2010

पेड़ों को भाई बनाएं

सुनीति यादव
वृक्षों के महत्व को रेखांकित करते हुए भगवान बुद्ध ने कहा है कि वृक्ष तो असीम कृपा एवं कल्याण के स्त्रोत हैं। वे अपने लिए कुछ नहीं मांगते और हमें अपने फल-फूल उदारतापूर्वक देते रहते हैं। वे तो सबको छाया प्रदान करते हैं, यहां तक कि वृक्षों को काटने वाले भी उनकी सघन छाया के उतने ही अधिकारी हैं, जितने कि उन्हें लगाने और सींचने वाले। पुराणों में कहा गया कि दस कुओं के बारबार एक बावड़ी, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है। इसी शाश्वत सत्य को मनुष्य सदैव सम्मान देता आया है और यही कारण है कि हर काल में मनुष्य वनों या वृक्ष को किसी न किसी रूप में पूजता रहा है।
पूरी दुनिया में ऐसी मिसाल शायद ही कहीं देखने को मिले कि कोई देश अपने नागरिकों के समान पेड़ - पौधों और जीव जंतुओं को भी संवैधानिक अधिकार देता हो।लैटिन अमेरिका के एक छोटे से देश इक्वाडोर ने यह कमाल कर दिखाया है। पर्यावरण जागरूकता की मिसाल कायम करते हुए इसने नए संविधान में अपने नागरिकों के समान पेड़ -पौधों, नदियों और जीव जंतुओं की सुरक्षा के लिए पर्याप्त संवैधानिक अधिकारों की व्यवस्था की है।
संविधान में ‘प्रकृति के अधिकार’ के तहत वर्णित इस कानून में कहा गया है कि जीव जंतुओं और पेड़ -पौधों को मनुष्य के समान ही जीवित रहने, विकास करने और जीवन चक्र को आगे बढ़ाने का नैसर्गिक अधिकार है। इसलिए यह सरकार, समाज और लोगों की जिम्मेदारी बनती है कि वह उन्हें इसके लिए समुचित सुरक्षा प्रदान करें”। पर्यावरण विशेषज्ञों ने इसे एक अभूतपूर्व कदम बताते हुए कहा है कि यह सैद्धांतिक रूप से तो काफी अहम है लेकिन व्यावहारिक रूप से इसमें दिक्कतें आ सकती हैं। http://josh18.in.com/showstory.php?id=322971
उदाहरण के लिए गढ़वाल और कुमायूं में देवदार, राजस्थान में खेजड़ी, छत्तीसगढ़ के सरगुजा, जशपुर अंचल में साल तता पूरे देश में पीपल, नीम, आंवला, बरगद के वृक्ष पूज्य माने जाते हैं। परंतु सभ्यता के तथाकथित विकास के साथ आज जिस गति से वन का विनाश हो रहा है वह समय कभी भी आ सकता है जब संकट की कठिन स्थिति पैदा हो जाए। तब हम रातों रात इसका हल नहीं ढूंढ पाएंगे, जैसे हाल में लेह लद्दाख सहित कई भागों में आई भयानक बाढ़ एवं पूरी दुनिया में हो रहा जलवायु परिवर्तन। इसलिए हमें आज और अभी से अपने वनों एवं वृक्षों के संरक्षण पर अधिक से अधिक ध्यान देना होगा। इनके साथ भावनात्मक संबंध स्थापित करना होगा।
आज संपूर्ण संसार वन एवं पर्यावरण के संरक्षण एवं विकास हेतु चिंतित है। यह महान कार्य आम जनता के सक्रिय सहयोग एवं भागीदारी से ही संभव है। इस तथ्य को स्वीकार करना एवं इसे वृहद स्तर पर लागू करना हमारा परम कर्तव्य है। तो फिर आइए वृक्ष हमारे बंधु की भावना दिल में बसाने की, वृक्षों को भाई मानकर इनकी रक्षा करने की नयी पहल करें। आइए रक्षा बंधन पर्व को हम हम वृक्ष-रक्षा पर्व के रूप में मनाएं। वृक्षों को राखी बांधकर उनके साथ भावनात्मक संबंध बनाएं और इस नये रिश्ते को सदैव जीवंत रखें। नि:संदेह वृक्ष हमारे भाई के समान हैं, जो दुखों को सहन कर जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारे सुख-दुख में नि:स्वार्थ साथ देते हैं।
सुनीति यादव
ग्रीन गार्जियन सोसायटी, रायपुर

रविवार, 22 अगस्त 2010

कश्मीर में सिखों को धमकी, पिछली बेदखली याद रखें


सुनील कुमार 
भारत और पाकिस्तान की ताज़ा घटनाओं को देखें तो लगता है कि किस तरह आतंकी मज़हब के नाम पर, मज़हब का इस्तेमाल करते हुए दहशत तो फैला ही सकते हैं, समाज के भीतर बिखराव भी कर सकते हैं और सरकार के निकम्मे होने पर वे कई चीज़ों को अपने कब्जे में भी कर सकते हैं। यहाँ पर हम नक्सली हिंसा से परे की बातें कर रहे हैं क्योंकि उसके बारे में तो आए दिन लिखना तो होता ही है, आज हम कश्मीर से बात की शुरुआत कर रहे हैं जहाँ बसे हुए सिखों को ऐसी गुमनाम धमकियाँ मिल रही हैं कि या तो वे कश्मीर के अलगाव के आंदोलन में शरीक़ हों या फिर कश्मीर छोडक़र चले जाएँ। उनसे कहा गया है कि वे अगर गोलियों से डरते हैं तो वे कम से कम गुरुद्वारों के भीतर प्रदर्शन करें वरना उनके लिए कश्मीर में कोई जगह नहीं है। हालाँकि ऐसी आतंकी धमकियों के ख़िलाफ़ ख़ुद कश्मीर के कुछ आक्रामक आंदोलनकारियों ने बयान जारी किए हैं और कहा है कि इस तरह की धमकियों उनकी लाश पर से होकर ही पूरी की जा सकेंगी, लेकिन इससे वहाँ सिखों के बीच एक बेचैनी है और आशंका तो है ही। यह याद रखने की ज़रूरत है कि कश्मीर का इतिहास वहाँ से कश्मीरी पंडितों को भगाने का है जिनके दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में दशकों रहने के बाद भी उनकी वापिसी का कोई रास्ता नहीं निकल पाया है।
यह भारत के समाज की महानता है कि यहाँ आम लोग हज़ार क़िस्म की ज़्यादती झेलकर बनते कोशिश अमनपसंद बने रहते हैं और साम्प्रदायिकता का जवाब आमतौर पर साम्प्रदायिकता से नहीं देते हैं। यही वजह है कि मोदी ने गुजरात में चाहे जो किया हो उसकी प्रतिक्रिया बाक़ी देश में नहीं हो पाई या नहीं की गई, मुंबई के धमाकों ने पाकिस्तान से आए मज़हबी आतंकियों के हाथों चाहे जितनी मौतें मुंबई के लोगों को दी हो, बाक़ी भारत में इसकी कोई साम्प्रदायिक प्रतिक्रिया नहीं हुई क्योंकि लोग इस बात को बख़ूबी जानते हैं कि धर्म के नाम पर आतंक फैलाने वाले या दंगे करने वाले लोग उस धर्म की भावना के प्रतिनिधि नहीं हैं और वे बस अपने डंडों में उस धर्म के झंडों का बेज़ा इस्तेमाल करके अपने अपराध को एक नई शक्ल देने की साज़िश करते रहते हैं।
लेकिन सवाल यह है कि कश्मीर से साम्प्रदायिक आधार पर निकाले गए कश्मीरी हिन्दुओं की ज़िंदगी जिस तरह अपने दूकान-मकान से बेदख़ल हो गई है और जिस तरह वे रातों-रात शरणार्थी हो गए हैं, उनकी इस हालत का क्या इलाज है? यह तो ठीक है कि वे इसे किसी साम्प्रदायिकता की शक्ल में बदल नहीं रहे और न ही कश्मीर के अलगाववादियों को देश के प्रति गद्दार क़रार देने की कोई कोशिश कर रहे हैं लेकिन मज़हब के आधार पर जिन लोगों के साथ भी ऐसी ज़्यादती होती है, वह फिर कश्मीर रहे या गुजरात, उनके नुकसान की क्या भरपाई हो सकती है? यह सिलसिला देश के अलग-अलग हिस्सों में अगर अलग-अलग तबक़ों को इसी तरह बांटते चलेगा तो इससे जख्मी होने वाले लोग कब तक बुद्ध बने रहेंगे? कश्मीर में बाहर से आई हुई या अपनी ख़ुद की दहशतगर्दी पैर जमा चुकी है और ऐसे सुबूत भी सामने आए हैं कि वहाँ के कुछ लोग पाकिस्तान में मौजूद ताक़तों के हाथों बिककर भारत के स्वर्ग कहे जाने वाले इस राज्य को तबाह करने में लगे हैं। इस हालात में कोई सुधार तो दिख नहीं रहा है अब वहाँ पर सिखों को अगर धर्म के आधार पर काटने की ऐसी कोशिश चल रही है और उन्हें वहाँ से निकल जाने के लिए कहा जा रहा है तो कश्मीर के इतिहास को देखते हुए यह भारत सरकार और कश्मीर सरकार दोनों के चौकन्ने होने की बात है। इससे परे भी हम यह चाहेंगे कि पूरे देश में मुस्लिम समाज के जो लोग अपने-आपको समुदाय का अगुवा कहते हैं, उनको चाहिए कि कश्मीर के तनाव में मज़हब वाला जितना रंग और ढंग है उसे लेकर वे खुलकर एक सामाजिक दबाव बनाएँ क्योंकि ऐसे नाज़ुक मौक़ों पर चुप रहने वाले लोगों को अक्सर हमलावरों से सहमति रखने वाला समझ लिया जाता है। जनता के बीच तस्वीर कैसी बन रही है यह देखने की सावधानी हर समाज को, हर नेता को, राजनीतिक दलों या सरकारों को रखनी चाहिए। जम्मू-कश्मीर राज्य के साथ एक बड़ी दिक्कत यह है कि यह राज्य तीन ऐसे भौगोलिक हिस्सों में बँटा हुआ है जिनमें से एक में मुसलमानों की अधिक आबादी है, एक में हिन्दुओं की और लद्दाख वाले हिस्से में बौद्ध धर्म मानने वालों की। राज्य एक रहते हुए भी अगर यहाँ पर किसी एक मज़हब से जुड़े हुए लोग देश के ख़िलाफ़ अभियान चलाते रहेंगे, आतंक के काम को ठेके पर करते रहेंगे और दूसरे धर्म के लोगों को निशाना बनाते रहेंगे तो वे कश्मीर से परे भी बाक़ी हिन्दुस्तान में एक बड़ा नुकसान कर रहे हैं। इस देश में लोगों के बीच एक गजब का बर्दाश्त है इसलिए तमाम तनाव के बाद भी आतंकी मज़हबी टकराव खड़ा नहीं कर पा रहे।
लेकिन यहाँ पर आज आतंकियों के एक दूसरे पहलू के बारे में हम बात करना चाहेंगे जो कि पाकिस्तान में सामने दिख रहा है। वहाँ पर बाढ़ से देश के कोई बीस फ़ीसदी हिस्से के डूब जाने के बाद जिस तरह सरकार पूरी तरह निकम्मी साबित हुई है उसके चलते वहाँ के तालिबानी संगठनों को यह मौक़ा मिल रहा है कि वे जनता की मदद करके उसकी हमदर्दी हासिल कर सकें और चाहे जैसी भी हो, पाकिस्तान की सरकार के ख़िलाफ़ लोगों के मन में अविश्वास पैदा कर सकें।
सरकारी नालायकी का यह एक इतना ख़तरनाक पहलू सामने आया है जिसमें लोग पाकिस्तान के ऐसे भयानक आंतरिक संघर्ष के दौर में आतंकियों के हाथों मदद के मोहताज़ हुए जा रहे हैं। न चाहते हुए भी हम यहाँ पर कुल एक लाइन में भारत के उन नक्सल प्रभावित इलाक़ों की चर्चा भर करना चाहेंगे जिनके बारे में भारतीय प्रधानमंत्री ने लालकिले से अपने भाषण में यह कहा है कि सरकारों की बरसों की लापरवाही का नतीज़ा है कि ऐसे इलाक़ों में नक्सल हिंसा फैली है।
पाकिस्तान जैसे देश को आज बाढ़ से निपटने की अपनी तैयारी की कमी से सबक लेना चाहिए वहीं दूसरी तरफ उससे बहुत बेहतर क़ाबिलीयत वाली भारत सरकार को कश्मीर से लेकर बस्तर और बंगाल-झारखंड तक के नक्सल इलाक़ों के बारे में यह सोचना चाहिए कि वहाँ की जनता के मन में लोकतंत्र के प्रति आस्था अगर बची नहीं रहेगी, अगर सरकारें जनता को उनका हक़ नहीं दिला पाएँगी, उनकी जान नहीं बचा पाएँगी तो पूरे अवाम का भरोसा सरकार पर से उठ जाएगा और जम्हूरियत पर से उठ जाएगा। यह सिलसिला थमना चाहिए और इसके लिए हम मोटे तौर पर सरकारों को ज़िम्मेदार मानते हुए भी उन तमाम धर्मों के मुखियाओं को भी ज़िम्मेदार मानते हैं जो उनके मज़हब के नाम पर किए जा रहे तनाव के बाद भी चुपचाप घर बैठे हैं।
यह मौक़ा सिर्फ़ सरकार को कोसने का न होकर कई तरह की चुनौतियों का है और कश्मीर का आज का सारा मामला इतना ख़तरनाक है कि कल को अगर दिल्ली में कश्मीरी पंडितों के शरणार्थी शिविरों के पास अगर बेदखल कश्मीरी सिखों के तंबू भी लगाने पड़ेंगे तो वह भारत के लिए बहुत अधिक 
तनाव की बात होगी। 
(साभार सृजनगाथा) 
सुनील कुमार
संपादक, दैनिक छत्तीसगढ़
रायपुर, छत्तीसगढ़

मजार का दिल धड़कते देखा?

२२ अगस्त की शाम सहारा समय (मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़) ने एक खास खबर चलाई। खबर के मुताबिक उज्जैन की एक मजार का दिल धड़क रहा था। इसके विजुवल शा‍‍‍‍ट्स भी दिखाए गए।एंकर ने कहा कि रमजान के महीने में यह खास पेशकश है। मुस्लिम विद्वानों ने टीवी पर कहा कि ऐसे चमत्कार मजारों पर आमतौर पर होते रहते हैं। इसमें कोई नई बात नहीं है।
(आप कुछ कहना चाहेंगे?)

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

जो आसमान से गिरा वो क्या था ?

दो रहस्यमयी खबरें हैं। दोनों ही छत्तीसगढ़ से ही हैं। पहली खबर यह है कि यहां के जशपुर इलाके में आसमान से कोई भारी-भरकम चीज एक खेत में गिरी। यह इतनी भारी थी कि खेत में गड्ढा हो गया। गिरने के बाद उस चीज का अतापता नहीं है, गायब हो चुकी है। कयास लगाए जा रहे हैं कि ये बर्फ का गोला हो सकता है, जो धरती पर गिरने के बाद शायद पिघल गया हो। या फिर यहां के वातावरण में पिघल जाने वाली कोई और आसमानी चीज भी हो सकती है। बहरहाल, वैग्यानिकों तक बात पहुंच गई है।
दूसरी खबर रायगढ़ जिले की है। वहां के जलगढ़ गांव में जमीन  धकसकने से एक तालाब का पानी रसातल में चला गया।

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

विज्ञापन सुंदरी

चौपाल की ओर गया था तो बाबा नागर्जुन की कविता मिल गई। अपनी ही समझकर साथ ले आया-




रमा लो मांग में सिन्दूरी छलना…
फिर बेटी विज्ञापन लेने निकलना…
तुम्हारी चाची को यह गुर कहाँ था मालूम!

हाथ न हुए पीले
विधि विहित पत्नी किसी की हो न सकीं
चौरंगी के पीछे वो जो होटल है
और उस होटल का
वो जो मुच्छड़ रौबीला बैरा है
ले गया सपने में बार-बार यादवपुर
कैरियर पे लाद के कि आख़िर शादी तो होगी ही
नहीं? मैं झूठ कहता हूँ?
ओ, हे युग नन्दिनी विज्ञापन सुन्दरी,
गलाती है तुम्हारी मुस्कान की मृदु मद्धिम आँच
धन-कुलिश हिय-हम कुबेर के छौनों को
क्या ख़ूब!
क्या ख़ूब
कर लाई सिक्योर विज्ञापन के आर्डर!
क्या कहा?
डेढ़ हज़ार?
अजी, वाह, सत्रह सौ!
सत्रह सौ के विज्ञापन?
आओ, बेटी, आ जाओ, पास बैठो
तफसील में बताओ…
कहाँ-कहाँ जाना पड़ा? कै-कै बार?
क्लाइव रोड?
डलहौजी?
चौरंगी?
ब्रेबोर्न रोड?
बर्बाद हुए तीन रोज़ : पाँच शामें ?
कोई बात नहीं…
कोई बात नहीं…
आओ, आओ, तफ़सील में बतलाओ!
रचनाकार: नागार्जुन
http://lti1.wordpress.com/2009/04/10/आओ-बेटी-आ-जाओ-पास-बैठो/

बुधवार, 18 अगस्त 2010

नत्था : ये है संघर्ष की असल दास्तां

 ठाकुरराम यादव
कि गिरते हैं जी भरकर पहुंचना है जिनको बुलंदियों पर, लिखते हैं तकदीर वही लकीरे न हों जिनकी हथेलियों पर...यह पंक्ति छत्तीसगढ़ के रंगमंच के कलाकार और आमिर खान की हिट फिल्म पीपली लाइव के हीरो ओंकारदास मानिकपुरी पर सार्थक होती है। जिनका, पूरा जीवन खुद को पहचान दिलाने कभी गिरते, कभी संभलते और कभी गिरकर संभलने में बीता। गरीबी में पला, गुमनामी में संवरा और हथेलियों पर किस्मत की लकीरें ढूंढता रंगमंच का यह कलाकार आज हिंदुस्तान के चलचित्र पटल पर जगमगा रहा है। छत्तीसगढ़ के माटी की सोंधी महक को देश और दुनिया तक पहुंचाने वाले तो कई कलाकार हुए हैं, लेकिन भिलाई के इस नाटे कद के कलाकार ने एक ऐसी इबारत लिखी है, जो रंगमंचीय कलाकारों को दूर तक ले जाएगी।
बचपन में ही पलायन की तपती धूप ने एक अबोध बालक के शरीर को कुम्हला दिया। बात 1980 की है। पिता श्यामदास और मां गुलाबबाई महुआभाठा जिला राजनांदगांव में रोजी-मजूरी करते थे। तब ओंकारदास की उम्र महज छह साल रही होगी। मुफलिसी की तंज झेलता उसका परिवार कमाने-खाने वर्धा (महाराष्ट्र) चला गया। माता-पिता कभी र्इंट भट्ठों में तो कभी तनतीं ऊंची इमारतों के नीचे मलबा ढोते थे। उन्हें काम करता देख ओंकारदास भी उनके साथ हो लेता था। कुछ दिनों बाद काम मिलना बंद हो गया तो फिर वे गांव लौट आए। उनके माता-पिता चाहते थे, कि बच्चा थोड़ा-बहुत पढ़ ले कि उसे भी मजदूरी नहीं करनी पड़े। इसलिए उसे पहली कक्षा में दाखिला दिलाया। यह गांव भी उन्हें रास नहीं आया, इसलिए सालभर बाद 1981 में वे परिवार सहित भिलाई आ गए। यहीं उनका छोटा भाई रमेशदास पैदा हुआ। पहले ही गरीबी की मार झेलते परिवार में एक सदस्य की जिम्मेदारी बढ़ गई। ओंकारदास के माता-पिता मजदूरी करने सुबह से निकल जाते, तब वह छोटे भाई की तिमारदारी में जुटा रहता। खुद का घर नहीं था, इसलिए किराए का मकान लेकर रहते थे। बड़ी मुश्किल से दो जून की रोटी नसीब होती, तो सिर छिपाने के लिए छप्पर के बारे में सोचना भी उनके लिए पहाड़ लांघने से भी कठिन था। लेकिन, तब भी अल्हड़, अलमस्त और खुद में रमा रहने वाला ओंकारदास गाने-बजाने में मस्त रहता था। टीन-टपरों पर दातून पीटकर ताल निकालने की कोशिश में लगा रहता। घरवालों ने उसका अल्हड़पन देखकर फिर से स्कूल में दाखिला करा दिया, चूंकि पहली कक्षा की पढ़ाई पूरी नहीं हुई थी, इसलिए दोबारा उसी क्लास में दाखिला दिला दिया। तब उसकी उम्र 12 साल की रही होगी। अपने से आधी उम्र के बच्चों के साथ बैठना उसे थोड़ा अटपटा लगता था। माता-पिता का कहना मानकर स्कूल तो चला जाता, लेकिन वहां भी वह अपनी ही धुनी रमाए रहता। दिनभर गाना-बजाना और नाचना।
मजबूरी में करनी पड़ी शादी
पिता की आमदनी खास नहीं थी, मजदूरी करते हुए मां की तबीयत दिन ब दिन खराब होने लगी। घर का काम करने वाला भी कोई नहीं था, लिहाजा उसे मजबूरन शादी करनी पड़ी। सुपेला की ही शिवकुमारी से उसकी शादी हो गई। तब वह 17 साल की उम्र में बीएसपी हाई स्कूल में छटवीं पढ़ता था। ओंकारदास बताता हैं कि तब तक उसकी दाढ़ी-मंूछ उग आई थी। बच्चे चिढ़ाते और उल्हाना देते थे। तंग आकर उसने पढ़ाई छोड़ दी। तभी गांव में एक सेठ के घर बच्चा हुआ तो जलसे में बैतलराम साहू का कार्यक्रम हुआ। इस कार्यक्रम को देखकर ओंकारदास के भीतर का कलाकार अंकुरित होने लगा। उसने उस दिन खुद को एक मुकाम तक पहुंचाने की जिद ठान ली। उसके इस मंसूबे को भांपते हुए पिता ने अमरदास मानिकपुरी से उसकी भेंट कराई, जो रंग मंच के कलाकार नवलदास मानिकपुरी के काफी करीबी थे। यहां से उनका नाटक और रंगमंच की दुनिया से जुड़ाव हुआ। रंगमंच के कलाकार झुमुकलाल देवांगन, तोरन ताम्रकार से नाटक और नृत्य सीखा। सहसपुर लोहारा में उसे एक कार्यक्रम में गम्मत (हास्य नाटक) करने बुलाया गया। यहां लोगों ने उसके अभिनय को सराहा। थोड़ा आगे चलकर सुभाष उपाध्याय से जुड़ने का मौका मिल गया। वे उस वक्त ‘नवा किसान’ नाम से साक्षरता कार्यक्रम चला रहे थे। उनके साथ उन्होंने 1999 में कुष्ठ पर जागरूकता कार्यक्रम किया। दुर्ग में साक्षरता भवन में भी बीबीसी के वर्कशाप से जुड़कर कई कार्यक्रम दिए। साक्षरता कार्यक्रम के समापन पर एक नाटक नन-पन के बिहाव किया। समापन अवसर के उनके इस कार्यक्रम को देखने हबीब तनवीर खुद साक्षरता भवन पहुंचे। वे इस नाटक को देखकर गदगद हो गए। इसके सप्ताहभर बाद साक्षरता भवन के डायरेक्टर डीआर शर्मा ने विभाष उपाध्याय को फोन पर बताया कि भोपाल से कलाकारों की मांग आई है। श्री तनवीर ने धन्नू लाल सिन्हा, भूपेंद्र साहू, महिला कलाकार स्वर्णलता सहित ओंकारदास को अपने ग्रुप में शामिल कर लिया। श्री तनवीर ने तब एक नाटक तैयार किया, जिसका नाम था ‘सुनबहरी’ था। इस नाटक का मंचन छत्तीसगढ़ के कई जिलों में हुआ। सन् 2000 में ओंकारदास, संतोष निषाद और धन्नू लाल सिन्हा को भोपाल बुलाया गया। इसके बाद ओंकार को छोटा-मोटा किरदार मिलने लगा। 2002 में हिरमा की अमर कहानी में लीड रोल मिला। इसमें उन्होंने एक रिक्शावाले की भूमिका निभाई जिसका हाथ कट जाता है। मानव संग्रहालय में चार तथा दिल्ली के ही एनएसडी में इसके दो शो हुए। यहां से उनकी   अभिनय क्षमता को वरिष्ठ कलाकारों ने पहचाना और लीड रोल मिलने लगा। चरणदास चोर, गांव के नाम ससुराल-मोर नाव दामाद, मुद्राराक्षस, काम देवता की अपनी बसंत ऋतु, जहरीली हवा, आगरा बाजार आदि में अभिनय किया।
मंच से कैमरे तक
हबीब तनवीर से जुड़ने के कारण ही ओंकारदास को 2008 में फिल्म पीपली लाइव का आफर मिला। इस फिल्म की राइटर अनुषा रिजवी दिल्ली नाटक देखने आती थीं। यहीं उन्होंने ओंकारदास को देखा। उन्होंने हबीब तनवीर से कलाकारों की मांग की, तब श्री तनवीर ने उन्हें दिल्ली भेजा। यहां हालांकि उसने एक अन्य रोल का आडिशन दिया, लेकिन आमिर खान ने उनका एक्ट देखते ही फिल्म के मुख्य कलाकार नत्था के लिए फाइनल कर दिया।
कलाकारों ने की आमिर की शिकायत
श्री मानिकपुरी ने कहा कि शूटिंग के दौरान आमिर खान कभी सेट पर नहीं आए। कलाकारों ने इसकी शिकायत अन्य लोगों से की। यह शिकायत आमिर खान तक पहुंची और उन्होंने इसे जायज समझा। एक दिन रात को अचानक साढ़े नौ बजे वे सेट पर पहुंच गए और पूरी रात और दिन कलाकारों के साथ बिताया। तब तक फिल्म का बहुत सा हिस्सा शूट हो चुका था। इससे पहले ओंकार को फिल्म की शुरुआत में काफी दिक्कत आई। अचानक कैमरे के सामने आने पर वे थोड़े असहज हो गए। तब सेट पर अनुषा रिजवी के पति मेहमूद फारुखी ने समझाया कि नाटक ही सोचककर अपना अभिनय करो। उनके समझाने के बाद ही वे एक्ट अच्छी तरह कर पाए।
( दैनिक नेशनल लुक के 19 अगस्त के अंक में ठाकुरराम यादव की रपट)

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

पैसा-वैसा शोहरत-वोहरत ठेंगे पर

  केवल कृष्ण
रायपुर। बरसों पहले पढ़ी एक कविता के कुछ शब्द याद आ रहे हैं:-
एक चिड़िया का बच्चा/ सूरज की तपिश से झुलसने लगा/ तो जाने क्या सूझी/ कि सिर उठाकर थूक दिया/ सूरज  के मुंह पर...
पता नहीं क्यों, नत्था से मुलाकात के वक्त यही कविता जेहन में गूंज रही थी। मीडिया बार-बार एक ही सवाल कर रहा था-कहीं गुम तो नहीं हो जाओगे नत्था? ये कामयाबी दुहरा पाओगे? नत्था ने पटक कर जवाब दिया-कामयाबी मिलती रहे तो ठीक, वरना मैं थिएटर में भी खुश हूं।
आमिर खान की फिल्म पीपली लाइव का मुख्य किरदार नत्था यानी ओंकारदास मानिकपुरी भारी कामयाबी के साथ अपने घर छत्तीसगढ़ लौटा है। अपने ठेठ छत्तीसगढ़िया रंग और ठेठ छत्तीसगढ़िया अंदाज में। धन-दौलत, नाम-वाम ठेंगे पर।
nattha apni patni ke sath, jamul (bhilai) me
कामयाब नत्था को दुनिया कंधे पर उठाकर नाच रही है। जगह-जगह जलसे हो रहे हैं। नत्था का स्वागत हो रहा है। फूल-मालाएं पहनाई जा रही हैं। एक जलसा जामुल में भी हुआ। जिन लोगों के साथ नत्था ने गरीबी की रोटियां बांटी, भूख बांटी, सुख बांटा, दुख बांटा, वे लोग नत्था के स्वागत के लिए मालाएं लिए खड़े थे। बिलकुल अपने लोग-मां, पत्नी, बेटियां, बेटा, भाई, बहनें, साले-समधी..थोड़े से नेता और थोड़े से अजनबी लोग। दुनियाभर के कैमरे जिस चेहरे को जूम करके क्लोज शॉट लेने को आतुर हों, जिस पर फ्लैशगन रौशनी की लगातार बौछार कर रहीं हों, सैटेलाइट की आंखें जिस पर आ टिकी हो, वो आदमी इस बेहद मासूम और बेहद मीठे पल में गदगद था। यह बेहद मामूली सा स्वागत उसे रोमांचित कर रहा था और जज्बात इस कदर हावी हो रहे थे कि शब्द कांप रहे थे। जामुल के रावणभाठा मैदान में एक छोटा-सा मंच है। टैंटवाले ने थोड़ा-बहुत कनात-पंडाल तान दिया था। एक माइक था, जैसा कि गांवों में होता है, लंबी-लंबी सीटियों वाला, माइक टेस्टिंग वन-टू-थ्री-फोर वाला। एक मंच संचालक पूरी श्रद्धा, आदर और सम्मान के साथ एक के बाद एक वक्ताओं  को न्योता दे रहा था। नत्था की छुटकी बिटिया गीतू कभी मंच पर डोल रही थी तो कभी मंच के नीचे बैठी अपनी मां की गोद में मचल रही थी। मीडिया के लोग रिश्तेदारों को टटोल रहे थे-नत्था गरीब है तो कितना गरीब है? वो रहता कहां है? खाता क्या है? पैसे मिले हैं तो अपनी झोपड़ी को दुरुस्त करवाएगा क्या? आगे भी रोजी-मजदूरी करेगा या फिर नौकरी करेगा? अब फिल्में ही करेगा कि थिएटर भी करता रहेगा?
दो लाख रुपए में से नत्था को डेढ़ लाख रुपए मिले थे। नत्था कहता है-वो तो मैंने खाकर उड़ा दिए। सन् 2008 में पीपली लाइव के लिए आडिशन हुआ था, इसके बाद से लेकर अब तक परिवार भी तो चलाना था। शूटिंग से लेकर फिल्म रिलीज होने तक आमदनी का और कोई जरिया भी तो नहीं था। अभी 50 हजार रुपए और मिलने हैं। अब इतने रुपयों से उसकी झोपड़ी तो बंगले में तब्दील होने से रही। बच्चे अच्छे स्कूलों में दाखिल होने से तो रहे। गरीबी और फांका-मस्ती तो जाने से रही। इस कलाकार का संघर्ष थमने से तो रहा। ...यानी इस बार भी नत्था की कामयाबी  का फुटेज जुटाने गई मीडिया की भीड़ को मायूसी ही हाथ लगी। अब वही सवाल एक बार फिर आकर खड़ा हो गया है-ये नत्था मरेगा कि जिएगा।
नत्था, सॉरी, ओंकारदास मानिकपुरी की मां गुलाबबाई बताती हैं कि बचपन में पिता ने बहुत चाहा कि नत्था थोड़ा-बहुत पढ़ लिख ले। नत्था को नहीं पढ़ना था, सो नहीं पढ़ा। बचपन में ही टीन-टप्परों की पीटकर देख लिया था कि इनसे कितनी तरह की ताल निकाली जा सकती है। इस रिदम पर डांस के कितने स्टेप निकाले जा सकते हैं। पता था कि नाटक-नौटंकी रोटी नहीं दे सकती, तब भी नौटकीबाज हो गया। गुरुओं को ढूंढ-ढूंढकर गुर सीखे और पक्का गम्मतिहा हो गया। हबीब तनवीर की नजर पड़ी तो 70 रुपए रोजी में अपने साथ ले लिया। जो कलाकर अपनी कला को जिंदा रखने के लिए र्इंट-गारे ढो रहा हो, उसे वही कला यदि पेटभर भोजन का भरोसा दे रही थी। इससे बढ़िया बात और क्या हो सकती थी। ओंकारदास उर्फ नत्था हबीब साहब के साथ हो लिए। धन्य है नत्था की बीवी शिवकुमारी, पति को टोका तक नहीं। उल्टे मौका मिला तो अपने बेटे देवेंद्र को भी इसी दुनिया में झोंक दिया। देवेंद्र ने पीपली लाइव में भी नत्था के बेटे का ही किरदार निभाया है। वैसे इस फिल्म में धनिया के किरदार के लिए खुद शिवकुमारी ने भी आडिशन दिया था, पर बेचारी कामयाब नहीं हो पाई। वह पति की कामयाबी पर ही कुप्पा हुई जा रही है, यहां हम जो तस्वीरें छाप रहे हैं उनमें जरा शिवकुमारी की आंखों में चमक तो देखिए।
किसी ने जामुल में नत्था से सवाल किया-क्या आप इसे किस्मत मानते हैं या कामयाबी प्रतिभा की बदौलत मिली? नत्था का जवाब ईमानदार था। उसने कहा कि किस्मत मेहरबान रही। नत्था की भूमिका के लिए भोपाल के सभी थिएटरों के कलाकारों का आडिशन लिया गया था। चूंकि पीपली लाइव की डायरेक्टर अनुषा रिजवी का हबीब तनवीर के ग्रुप नया थिएटर में आना-जाना था, इसलिए उन्होंने वहां से भी कलाकार मांग लिए। एक साथ पांच कलाकार आडिशन के लिए भेजे गए। पहले तीन कलाकारों का आॅडिशन होते तक समय पूरा हो गया। ओंकार को दूसरे दिन आने को कहा गया। दूसरे दिन ओंकार ने जिस रोल के लिए आॅडिशन   दिया, वह मछुआ का रोल था। हिस्से में सिर्फ दो लाइन का संवाद आया था। आमिर खान और अनुषा रिजवी ने सभी आॅडिशन के रिजल्ट देखे और ओंकार का परमार्मेंस देखर कहा-मिल गया नत्था। 
ओमकार तो इसे अपनी किस्मत मानते हैं। और आप क्या मानते हैं?

(नेशनल लुक में दिनांक 17 अगस्त को प्रकाशित रपट, फोटो-दिनेश यदु, नेशनल लुक, रायपुर)

इधर है नत्था

पिपली लाइव की जबर्दस्त सफलता के बाद नत्था यानी ओंमकारदास मानिकपुरी पहली बार अपने घर छत्तीसगढ़ आए हैं। .

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

jai zamil

कल मेरे मित्र ने मुझे एक किस्सा सुनाया। ये किस्सा तब निकला जब दोस्त लोग 15 अगस्त के दिन पिकनिक का प्रोग्राम बना रहे थे। बात निकली कि क्यों न इस बार सीता नदी अ•ायारण्य की सैर कर ली जाए। मित्र ने बताया कि बारिश के इस मौसम में वह सीतानदी का लुत्फ ले चुका है और एक फरिश्ते से भी उसकी वहां मुलाकात हुई थी।
उस फरिश्ते की लंबी-लंबी दाढ़ी है। वह गोली टोपी लगाता है। पान-बीड़ी-तम्बाकू कुछ नहीं खाता। कुर्ता-लुंगी पहनता है और सलाम-सलाम बोलता है। बस उसके बारे में इतना ही पता है। हां, उसका नाम जमील भाई  है।
सीतानदी के जंगल में एक पहाड़ी नदी बहती है। अब आप तो जानते ही हैं कि पहाड़ी नदियां कितनी मूडी और कितनी लापरवाह होती है। जब उछल-कूद करती हैं तो उनसे चंचल कोई नहीं, जब शांत रहती हैं तो उनसे सीधे-सच्ची कोई नहीं। जब उफनती हैं तो बस उफनती हैं, पुल-पुलियों का सीना तोड़कर उफनती है।
पिछली बार कुछ यूं हुआ कि मित्रमंडली पिकनिक मनाने उसी जंगल में चली गई। जंगल में भी नदी के उस पर चली गई। रात उधर ही रुकने का प्रोग्राम भी बना लिया। अचानक मौसम बदल गया और बारिश शुरू हो गई। सुबह लौटने लगे तो नदी का तो रूप ही बदला हुआ था। जिस पुल से गुजरे थे वह गायब था। सड़क पर इस पार और उस पार वाहनों की लंबी लाइन लग गई थी। अब जंगल में ऐसी मुसिबत आ जाए तो अल्लाह ही याद आते हैं।
अल्लाह को लोग वहां अक्सर याद करते होंगे इसीलिए अल्लामियां ने वहां परमानेंट इंतजाम कर दिया है। अल्ला को याद कीजिए और जमील भाई  हाजिर। नदी में जब भी  उफान आता है लोग अल्ला-अल्ला करते हुए जमील भाई  का इंतजार करते हैं। अब जमील•ााई कब आएंगे, किधर से आएंगे, किसी को नहीं पता, लेकिन सब को पता होता है कि वे आएंगे जरूर। और होता भी यही है, अपनी खटारा को खड़खड़ाते हुए जमील भाई पहुंच ही जाते हैं। आते ही काम पर लग जाते हैं। सब जानते हैं कि उफनती हुई नदी के उस  पर उनकी गाड़ियों को जमील भाई  ही ले जा सकते हैं।

aisi hoti hai pahadi nadiya
आते ही जमील भाई बिना कुछ बोले काम पर लग जाते हैं। वो हथेली पसारते हैं और लोग एक के बाद एक लोग अपनी-अपनी गाड़ियों की चाबियां उनकी हथेली में धर देते हैं। फिर एक गाड़ी इधर से उधर तो एक उधर से इधर। लाइन क्लीयर करने के बाद ही जमील भाई अपनी गाड़ी स्टार्ट कर बढ़ लेते हैं। वो खांटी मुसलमान हैं, ये सारा काम उनके नेकी के खाते का है।
अब ये जमील भाई  कौन हैं मैं नहीं जानता। मेरा मित्र भी  नहीं जानता। अपन तो बस उनकी जय बोलते हैं। दिल चाहे तो आप •ाी बोलिए। बोलो जमील भाई  की..


गुरुवार, 12 अगस्त 2010

जय जमील

कल मेरे मित्र ने मुझे एक किस्सा सुनाया। ये किस्सा तब निकला जब दोस्त लोग 15 अगस्त के दिन पिकनिक का प्रोग्राम बना रहे थे। बात निकली कि क्यों न इस बार सीता नदी अ•ायारण्य की सैर कर ली जाए। मित्र ने बताया कि बारिश के इस मौसम में वह सीतानदी का लुत्फ ले चुका है और एक फरिश्ते से •ाी उसकी वहां मुलाकात हुई थी।
उस फरिश्ते की लंबी-लंबी दाढ़ी है। वह गोली टोपी लगाता है। पान-बीड़ी-तम्बाकू कुछ नहीं खाता। कुर्ता-लुंगी पहनता है और सलाम-सलाम बोलता है। बस उसके बारे में इतना ही पता है। हां, उसका नाम जमील•ााई है।
सीतानदी के जंगल में एक पहाड़ी नदी बहती है। अब आप तो जानते ही हैं कि पहाड़ी नदियां कितनी मूडी और कितनी लापरवाह होती है। जब उछल-कूद करती हैं तो उनसे चंचल कोई नहीं, जब शांत रहती हैं तो उनसे सीधे-सच्ची कोई नहीं। जब उफनती हैं तो बस उफनती हैं, पुल-पुलियों का सीना तोड़कर उफनती है।
पिछली बार कुछ यूं हुआ कि मित्रमंडली पिकनिक मनाने उसी जंगल में चली गई। जंगल में •ाी नदी के उस पर चली गई। रात उधर ही रुकने का प्रोग्राम •ाी बना लिया। अचानक मौसम बदल गया और बारिश शुरू हो गई। सुबह लौटने लगे तो नदी का तो रूप ही बदला हुआ था। जिस पुल से गुजरे थे वह गायब था। सड़क पर इस पार और उस पार वाहनों की लंबी लाइन लग गई थी। अब जंगल में ऐसी मुसिबत आ जाए तो अल्लाह ही याद आते हैं।
अल्लाह को लोग वहां अक्सर याद करते होंगे इसीलिए अल्लामियां ने वहां परमानेंट इंतजाम कर दिया है। अल्ला को याद कीजिए और जमील•ााई हाजिर। नदी में जब •ाी उफान आता है लोग अल्ला-अल्ला करते हुए जमील•ााई का इंतजार करते हैं। अब जमील•ााई कब आएंगे, किधर से आएंगे, किसी को नहीं पता, लेकिन सब को पता होता है कि वे आएंगे जरूर। और होता •ाी यही है, अपनी खटारा को खड़खड़ाते हुए जमील•ााई पहुंच ही जाते हैं। आते ही काम पर लग जाते हैं। सब जानते हैं कि उफनती हुई नदी के उस  पर उनकी गाड़ियों को जमील•ााई ही ले जा सकते हैं।
aisi hoti hai pahadi nadiya
आते ही जमील•ााई बिना कुछ बोले काम पर लग जाते हैं। वो हथेली पसारते हैं और लोग एक के बाद एक लोग अपनी-अपनी गाड़ियों की चाबियां उनकी हथेली में धर देते हैं। फिर एक गाड़ी इधर से उधर तो एक उधर से इधर। लाइन क्लीयर करने के बाद ही जमील•ााई अपनी गाड़ी स्टार्ट कर बढ़ लेते हैं। वो खांटी मुसलमान हैं, ये सारा काम उनके नेकी के खाते का है।
अब ये जमील•ााई कौन हैं मैं नहीं जानता। मेरा मित्र •ाी नहीं जानता। अपन तो बस उनकी जय बोलते हैं। दिल चाहे तो आप •ाी बोलिए। बोलो जमील •ााई की..

थैंक्स क्वीस बैटन

क्वींस बैटन रायपुर पहुंची है। जोरदार स्वागत हो रहा है। बड़ा अच्छा माहौल है। बड़ी खुशखबर ये है कि क्वींस बैटन की याद में रायपुर में 50 हजार पौधे रोपे जा रहे हैं। ये पौधे जवां होकर जंगल हो जाएंगे और जब तक ये जंगल रहेगा, क्वींस बैटन याद आती रहेगी। थैंक्स क्वीस बैटन। थैंक यू रायपुर।

बुधवार, 11 अगस्त 2010

मज़ा किरकिरा मत करो यार

पीपली लाइव में दो लोकगीत सुनने को मिले, मजा आ गया। महंगाई डायन के बाद अब माटी का चोला धूम मचा रहा है। इनमें से माटी का चोला छत्तीसगढ़ का है। फिल्म में दोनों गानों को जितनी संजीदगी से लिया गया है, हम उतनी ही संजीदगी से सुन भी रहे हैं। महंगाई डायन जब पहली बार बजा तो लगा जैसे ये गीत मैंने ही लिखा है। यही हाल दूसरे गाने का भी है, मैं याद करने की कोशिश कर रहा हूं कि इसे मैंने कब लिखा होगा? ऐसा भी लगता है कि इन गीतों को मैंने ही पहली बार गाया था..आमिर खान कृपया इस ओर भी ध्यान दें। छत्तीसगढ़ी गाने चोला माटी के हे राम की रायल्टी हबीब तनवीर की बिटिया नगीन ने हासिल की है, इस गीत को लिखने का दावा करने वाले स्व.गंगाराम शिवारे का परिवार दुखी है। नगीन का कहना है कि इस गीत की रायल्टी उनके पास है और इसे लेकर किसी को गलतफहमी नहीं होनी चाहिए, यदि इसे गंगाराम शिवारे ने लिखा है तो उन्होंने हबीब साहब के निर्देशन लिखा होगा।...हबीब तनवीर काफी दिग्गज कलाकार थे, वे कवियों की संवेदना को भी निर्देशित करने की क्षमता रखते थे यह मुझे पहली बार पता चला है। नगीन ने मेरे मन में उनके प्रति सम्मान और बढ़ा दिया है। हबीब साहब की बिटिया होने के नाते नगीन के प्रति सम्मान तो है ही। अच्छा लग रहा है कि बेटी भी पिता की राह पर चल रही है। नगीन ने एक और बात कही है-इस गीत की धुन ट्राइबल है, इसका श्रेय किसी को नहीं लेना चाहिए। देखिये कितनी ईमानदारी है नगीन में। सास गारी देवे की धुन भी ट्राइबल थी, लेकिन तोड़मरोड़ कर उसका श्रेय रहमान ले उड़े। नगीन ने रिमिक्स नहीं किया नहीं तो ये गाना कुछ ऐसा होता..एखर का भरोसा चोला माटी के हे राम॥ओए होए...ओए होए।॥नगीन ने जो अहसान हम पर किया है कम से कम उसकी खातिर रायल्टी की दावेदारी हमें स्वीकार कर लेनी चाहिए। रही बात गंगाराम शिवारे की तो उनका परिवार तो गरीबी का आदी है ही, वो वैसे ही जी लेगा। उन लोगों को नाम की भी क्या जरूरत? हबीब साहब की बिटिया नगीन और गंगाराम शिवारे के बेटे •ौयालाल के इस पचड़े में घिस-घिस कर लोकगीत के शब्द भोथरे हो रहे है...एखर का भरोसा चोला माटी के हे राम। चलिए छोड़िए ये सब...इस वक्त कम से कम मुझे तो इस गीत का रस ले लेने दीजिए। मजा किरकिरा मत कीजिए प्लीज।

सोमवार, 9 अगस्त 2010

महंगाई डायन से याराना

आज एक किराना दुकानवाले से बात हो रही थी। वो दुखी था। दुख यह था कि वह सस्ती और अच्छी चीजें बेचना चाहता है, पर लोग महंगी ही लेना चाहते हैं। सिर्फ इसलिए कि सस्ती चीजें उसके पास खुले में उपलब्ध हैं और जो महंगी बिक रहीं हैं उन्हें बड़ी-बड़ी कंपनियों ने पैक करके बाजार में लांच किया है। उसे हैरानी होती है कि खुली हुई चीजें चैक की जा सकती हैं और पैक की हुई चीजें के साथ यह सहूलियत नहीं होती, इसके बावजूद लोग पैक की हुई चीजों की ओर ही लपकते हैं। दुकानवाले ने कहा कि बड़ी कंपनियां ईमानदार ही हों और छोटा दुकानदार बेईमान ही हो, इस बात की क्या गारंटी है?
बात छोटी सी है, लेकिन पते की है। उसने कहा कि जो चीज मैं 100 रुपए में बेच रहा हूं, उससे घटिया क्वालिटी की चीज यदि मैं 200 रुपए में आकर्षक पैकिंग में बेचूं तो बहुत से लोग 200 वाली ही खरीदना पसंद करेंगे। उसने बात थोड़ी और आगे बढ़ा दी...सस्ते स्कूलों की अच्छी पढ़ाई बहुत से लोग पसंद नहीं करते, महंगे स्कूलों में बच्चों को शौक से •ोजते हैं। असल में दुकानवाला कहना चाहता था कि आज लोग महंगी चीजों की खरीदारी को शान समझते हैं। बाजार में इस बात की तलाश कोई गरीब ही करता है कि वही चीज किस जगह पर ज्यादा सस्ती बिक रही है। बड़ी कंपनियां समाज के बदले हुए मनोविज्ञान को खूब समझती हैं, और इसीलिए ये प्रचारित •ाी करती हैं कि पड़ोसी की धोती से ज्यादा सफेद धोती आपकी त•ाी हो पाएगी, जब आप उनका साबुन इस्तेमाल करेंगे।...हो सकता है कि किराना दुकानवाले की बातों से आप पूरी तरह सहमत न हों, लेकिन उसने एक बात छेड़ी तो जरूर हैं। क्या इसे आप आगे बढ़ाना चाहेंगे?

शनिवार, 7 अगस्त 2010

पहली पाती


दोस्तों, इन दिनों में शहर में बारिश हो रही है। मौसम बड़ा ही प्यारा हो गया है। जो नदियां और तालाब सूख चुके थे, वे अब लबालब हैं। छलकती हुई नदी और तालाबों के किनारों पर बैठकर इनकी लहरों का मजा लेने की जी तो बहुत करता है, पर व्यस्तता की वजह से ले नहीं पाता। रास्ते से गुजरते हुए ही सुकून लूट लेता हूं। अभी थोड़े दिनों पहले तक जो धरती बेहद प्यासी नजर आ रही थी, अब अघाई हुई नजर आ रही है। बेहद संतुष्ट भी। हर तरफ इतनी हरियाली है कि देखकर मन भी हरा-भरा हो जाता है। मैं चाहता हूं कि ऐसी ही हरियाली हमेशा नजर आए, हर मौसम में, गरमी के मौसम में भी। मेरे शहर में मेरी तरह बहुत से लोग भी शायद ऐसा ही चाहते हैं। हम सबको पता है कि इतनी सारी हरियाली के लिए खूब सारे पेड़ लगाने होंगे। इस साल एक मैंने एक पेड़ लगाया है, यदि आपने भी लगाया हो तो लिखकर बताना जरूर।

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