रविवार, 22 अगस्त 2010

कश्मीर में सिखों को धमकी, पिछली बेदखली याद रखें


सुनील कुमार 
भारत और पाकिस्तान की ताज़ा घटनाओं को देखें तो लगता है कि किस तरह आतंकी मज़हब के नाम पर, मज़हब का इस्तेमाल करते हुए दहशत तो फैला ही सकते हैं, समाज के भीतर बिखराव भी कर सकते हैं और सरकार के निकम्मे होने पर वे कई चीज़ों को अपने कब्जे में भी कर सकते हैं। यहाँ पर हम नक्सली हिंसा से परे की बातें कर रहे हैं क्योंकि उसके बारे में तो आए दिन लिखना तो होता ही है, आज हम कश्मीर से बात की शुरुआत कर रहे हैं जहाँ बसे हुए सिखों को ऐसी गुमनाम धमकियाँ मिल रही हैं कि या तो वे कश्मीर के अलगाव के आंदोलन में शरीक़ हों या फिर कश्मीर छोडक़र चले जाएँ। उनसे कहा गया है कि वे अगर गोलियों से डरते हैं तो वे कम से कम गुरुद्वारों के भीतर प्रदर्शन करें वरना उनके लिए कश्मीर में कोई जगह नहीं है। हालाँकि ऐसी आतंकी धमकियों के ख़िलाफ़ ख़ुद कश्मीर के कुछ आक्रामक आंदोलनकारियों ने बयान जारी किए हैं और कहा है कि इस तरह की धमकियों उनकी लाश पर से होकर ही पूरी की जा सकेंगी, लेकिन इससे वहाँ सिखों के बीच एक बेचैनी है और आशंका तो है ही। यह याद रखने की ज़रूरत है कि कश्मीर का इतिहास वहाँ से कश्मीरी पंडितों को भगाने का है जिनके दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में दशकों रहने के बाद भी उनकी वापिसी का कोई रास्ता नहीं निकल पाया है।
यह भारत के समाज की महानता है कि यहाँ आम लोग हज़ार क़िस्म की ज़्यादती झेलकर बनते कोशिश अमनपसंद बने रहते हैं और साम्प्रदायिकता का जवाब आमतौर पर साम्प्रदायिकता से नहीं देते हैं। यही वजह है कि मोदी ने गुजरात में चाहे जो किया हो उसकी प्रतिक्रिया बाक़ी देश में नहीं हो पाई या नहीं की गई, मुंबई के धमाकों ने पाकिस्तान से आए मज़हबी आतंकियों के हाथों चाहे जितनी मौतें मुंबई के लोगों को दी हो, बाक़ी भारत में इसकी कोई साम्प्रदायिक प्रतिक्रिया नहीं हुई क्योंकि लोग इस बात को बख़ूबी जानते हैं कि धर्म के नाम पर आतंक फैलाने वाले या दंगे करने वाले लोग उस धर्म की भावना के प्रतिनिधि नहीं हैं और वे बस अपने डंडों में उस धर्म के झंडों का बेज़ा इस्तेमाल करके अपने अपराध को एक नई शक्ल देने की साज़िश करते रहते हैं।
लेकिन सवाल यह है कि कश्मीर से साम्प्रदायिक आधार पर निकाले गए कश्मीरी हिन्दुओं की ज़िंदगी जिस तरह अपने दूकान-मकान से बेदख़ल हो गई है और जिस तरह वे रातों-रात शरणार्थी हो गए हैं, उनकी इस हालत का क्या इलाज है? यह तो ठीक है कि वे इसे किसी साम्प्रदायिकता की शक्ल में बदल नहीं रहे और न ही कश्मीर के अलगाववादियों को देश के प्रति गद्दार क़रार देने की कोई कोशिश कर रहे हैं लेकिन मज़हब के आधार पर जिन लोगों के साथ भी ऐसी ज़्यादती होती है, वह फिर कश्मीर रहे या गुजरात, उनके नुकसान की क्या भरपाई हो सकती है? यह सिलसिला देश के अलग-अलग हिस्सों में अगर अलग-अलग तबक़ों को इसी तरह बांटते चलेगा तो इससे जख्मी होने वाले लोग कब तक बुद्ध बने रहेंगे? कश्मीर में बाहर से आई हुई या अपनी ख़ुद की दहशतगर्दी पैर जमा चुकी है और ऐसे सुबूत भी सामने आए हैं कि वहाँ के कुछ लोग पाकिस्तान में मौजूद ताक़तों के हाथों बिककर भारत के स्वर्ग कहे जाने वाले इस राज्य को तबाह करने में लगे हैं। इस हालात में कोई सुधार तो दिख नहीं रहा है अब वहाँ पर सिखों को अगर धर्म के आधार पर काटने की ऐसी कोशिश चल रही है और उन्हें वहाँ से निकल जाने के लिए कहा जा रहा है तो कश्मीर के इतिहास को देखते हुए यह भारत सरकार और कश्मीर सरकार दोनों के चौकन्ने होने की बात है। इससे परे भी हम यह चाहेंगे कि पूरे देश में मुस्लिम समाज के जो लोग अपने-आपको समुदाय का अगुवा कहते हैं, उनको चाहिए कि कश्मीर के तनाव में मज़हब वाला जितना रंग और ढंग है उसे लेकर वे खुलकर एक सामाजिक दबाव बनाएँ क्योंकि ऐसे नाज़ुक मौक़ों पर चुप रहने वाले लोगों को अक्सर हमलावरों से सहमति रखने वाला समझ लिया जाता है। जनता के बीच तस्वीर कैसी बन रही है यह देखने की सावधानी हर समाज को, हर नेता को, राजनीतिक दलों या सरकारों को रखनी चाहिए। जम्मू-कश्मीर राज्य के साथ एक बड़ी दिक्कत यह है कि यह राज्य तीन ऐसे भौगोलिक हिस्सों में बँटा हुआ है जिनमें से एक में मुसलमानों की अधिक आबादी है, एक में हिन्दुओं की और लद्दाख वाले हिस्से में बौद्ध धर्म मानने वालों की। राज्य एक रहते हुए भी अगर यहाँ पर किसी एक मज़हब से जुड़े हुए लोग देश के ख़िलाफ़ अभियान चलाते रहेंगे, आतंक के काम को ठेके पर करते रहेंगे और दूसरे धर्म के लोगों को निशाना बनाते रहेंगे तो वे कश्मीर से परे भी बाक़ी हिन्दुस्तान में एक बड़ा नुकसान कर रहे हैं। इस देश में लोगों के बीच एक गजब का बर्दाश्त है इसलिए तमाम तनाव के बाद भी आतंकी मज़हबी टकराव खड़ा नहीं कर पा रहे।
लेकिन यहाँ पर आज आतंकियों के एक दूसरे पहलू के बारे में हम बात करना चाहेंगे जो कि पाकिस्तान में सामने दिख रहा है। वहाँ पर बाढ़ से देश के कोई बीस फ़ीसदी हिस्से के डूब जाने के बाद जिस तरह सरकार पूरी तरह निकम्मी साबित हुई है उसके चलते वहाँ के तालिबानी संगठनों को यह मौक़ा मिल रहा है कि वे जनता की मदद करके उसकी हमदर्दी हासिल कर सकें और चाहे जैसी भी हो, पाकिस्तान की सरकार के ख़िलाफ़ लोगों के मन में अविश्वास पैदा कर सकें।
सरकारी नालायकी का यह एक इतना ख़तरनाक पहलू सामने आया है जिसमें लोग पाकिस्तान के ऐसे भयानक आंतरिक संघर्ष के दौर में आतंकियों के हाथों मदद के मोहताज़ हुए जा रहे हैं। न चाहते हुए भी हम यहाँ पर कुल एक लाइन में भारत के उन नक्सल प्रभावित इलाक़ों की चर्चा भर करना चाहेंगे जिनके बारे में भारतीय प्रधानमंत्री ने लालकिले से अपने भाषण में यह कहा है कि सरकारों की बरसों की लापरवाही का नतीज़ा है कि ऐसे इलाक़ों में नक्सल हिंसा फैली है।
पाकिस्तान जैसे देश को आज बाढ़ से निपटने की अपनी तैयारी की कमी से सबक लेना चाहिए वहीं दूसरी तरफ उससे बहुत बेहतर क़ाबिलीयत वाली भारत सरकार को कश्मीर से लेकर बस्तर और बंगाल-झारखंड तक के नक्सल इलाक़ों के बारे में यह सोचना चाहिए कि वहाँ की जनता के मन में लोकतंत्र के प्रति आस्था अगर बची नहीं रहेगी, अगर सरकारें जनता को उनका हक़ नहीं दिला पाएँगी, उनकी जान नहीं बचा पाएँगी तो पूरे अवाम का भरोसा सरकार पर से उठ जाएगा और जम्हूरियत पर से उठ जाएगा। यह सिलसिला थमना चाहिए और इसके लिए हम मोटे तौर पर सरकारों को ज़िम्मेदार मानते हुए भी उन तमाम धर्मों के मुखियाओं को भी ज़िम्मेदार मानते हैं जो उनके मज़हब के नाम पर किए जा रहे तनाव के बाद भी चुपचाप घर बैठे हैं।
यह मौक़ा सिर्फ़ सरकार को कोसने का न होकर कई तरह की चुनौतियों का है और कश्मीर का आज का सारा मामला इतना ख़तरनाक है कि कल को अगर दिल्ली में कश्मीरी पंडितों के शरणार्थी शिविरों के पास अगर बेदखल कश्मीरी सिखों के तंबू भी लगाने पड़ेंगे तो वह भारत के लिए बहुत अधिक 
तनाव की बात होगी। 
(साभार सृजनगाथा) 
सुनील कुमार
संपादक, दैनिक छत्तीसगढ़
रायपुर, छत्तीसगढ़

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