सोमवार, 21 नवंबर 2011
शनिवार, 19 नवंबर 2011
शुक्रवार, 18 नवंबर 2011
अग्नि-पुत्री
डीआरडीओ को मिसाइल मैन एपीजे अब्दुल कलाम की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए उत्तराधिकारी मिल गई हैं। 3000 किलोमीटर की मारक क्षमता वाली अग्नि-4 मिसाइल के सफल परीक्षण पर हर भारतीय की छाती गर्व से चौड़ी हो गई होगी, लेकिन कम लोगों को पता होगा कि इस प्रॉजेक्ट की डायरेक्टर हैं टेसी थॉमस। टेसी पहली भारतीय महिला हैं, जो देश के मिसाइल प्रॉजेक्ट को देख रही हैं।
आमतौर पर रणनीतिक हथियारों और न्यूक्लियर कैपेबल बैलिस्टिक मिसाइल के क्षेत्र में पुरुषों का वर्चस्व रहा है लेकिन पिछले 20 सालों से टेसी थॉमस इस फील्ड में मजबूती से जुड़ी हुई हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या आप अब भी असुरक्षित महसूस करती हैं, तो वह कहती हैं, 'नहीं, बिल्कुल भी नहीं। विज्ञान स्त्री-पुरुष के भेदभाव से परे है। मेरी टीम में पांच- छह महिलाएं हैं।'
डीआरडीओ साइंटिस्ट टेसी की टीम में 20 महिला साइंटिस्ट थीं। ये सभी अग्नि प्रोग्राम के लिए काम कर रही थीं। हैदराबाद की टेसी 2008 में अग्नि प्रॉजेक्ट डायरेक्टर बनीं। कोझीकोड के थिरूसर इंजिनियरिंग कॉलेज से बीटेक करने वालीं टेसी पुणे के डिफेंस इंस्टिट्यूट ऑफ अडवांस्ड टेक्नॉलजी से एमटेक हैं। डीरआडीओ के 'अ गाइडेड वेपन कोर्स' के लिए उनका चयन हुआ और इसी के साथ उनका मिसाइल वुमन के तौर पर सफर शुरू हुआ।
सफलता का यह परचम लहराने वालीं टेसी के लिए मंगलवार का दिन भले ही सफलता का माइलस्टोन रहा हो लेकिन पिछले दिसंबर अग्नि-2 प्राइम के बुरी तरह लड़खड़ा जाने से वह आहत हुई थीं। दरअसल, अग्नि 2 प्राइम अपनी उड़ान के 30 सेकंड बाद ही बंगाल की खाड़ी में गिर गई थी।
अग्नि- 4 की सफलता पर मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा, 'यह विफलता थी लेकिन पूरी नहीं। हमें बहुत सारा सपोर्ट और प्रोत्साहन मिला। इससे हमें और मेहनत करने की प्रेरणा मिली। वह कहती हैं, 'अब हमें अग्नि 5 का परीक्षण करना है।' अग्नि- 5 के बारे में अनुमान है कि फरवरी तक इसका पहला टेस्ट किया जा सकता है।
मंगलवार को टेस्ट की गई अग्नि-4 मिसाइल को 2013 तक सेना में शामिल किया जा सकेगा। टेसी ने बताया, 'डॉक्टर एपीजे कलाम मेरे असली गुरु हैं। वह मेरे डायरेक्टर थे। मैं अग्नि प्रोग्राम से 1988 से जुड़ी हूं। मैने अग्नि मिसाइल्स के लिए गाइडेंस प्रोग्राम्स बनाए।'
(नवभारत टाइम्स से सभार)
आमतौर पर रणनीतिक हथियारों और न्यूक्लियर कैपेबल बैलिस्टिक मिसाइल के क्षेत्र में पुरुषों का वर्चस्व रहा है लेकिन पिछले 20 सालों से टेसी थॉमस इस फील्ड में मजबूती से जुड़ी हुई हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या आप अब भी असुरक्षित महसूस करती हैं, तो वह कहती हैं, 'नहीं, बिल्कुल भी नहीं। विज्ञान स्त्री-पुरुष के भेदभाव से परे है। मेरी टीम में पांच- छह महिलाएं हैं।'
डीआरडीओ साइंटिस्ट टेसी की टीम में 20 महिला साइंटिस्ट थीं। ये सभी अग्नि प्रोग्राम के लिए काम कर रही थीं। हैदराबाद की टेसी 2008 में अग्नि प्रॉजेक्ट डायरेक्टर बनीं। कोझीकोड के थिरूसर इंजिनियरिंग कॉलेज से बीटेक करने वालीं टेसी पुणे के डिफेंस इंस्टिट्यूट ऑफ अडवांस्ड टेक्नॉलजी से एमटेक हैं। डीरआडीओ के 'अ गाइडेड वेपन कोर्स' के लिए उनका चयन हुआ और इसी के साथ उनका मिसाइल वुमन के तौर पर सफर शुरू हुआ।
सफलता का यह परचम लहराने वालीं टेसी के लिए मंगलवार का दिन भले ही सफलता का माइलस्टोन रहा हो लेकिन पिछले दिसंबर अग्नि-2 प्राइम के बुरी तरह लड़खड़ा जाने से वह आहत हुई थीं। दरअसल, अग्नि 2 प्राइम अपनी उड़ान के 30 सेकंड बाद ही बंगाल की खाड़ी में गिर गई थी।
अग्नि- 4 की सफलता पर मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा, 'यह विफलता थी लेकिन पूरी नहीं। हमें बहुत सारा सपोर्ट और प्रोत्साहन मिला। इससे हमें और मेहनत करने की प्रेरणा मिली। वह कहती हैं, 'अब हमें अग्नि 5 का परीक्षण करना है।' अग्नि- 5 के बारे में अनुमान है कि फरवरी तक इसका पहला टेस्ट किया जा सकता है।
मंगलवार को टेस्ट की गई अग्नि-4 मिसाइल को 2013 तक सेना में शामिल किया जा सकेगा। टेसी ने बताया, 'डॉक्टर एपीजे कलाम मेरे असली गुरु हैं। वह मेरे डायरेक्टर थे। मैं अग्नि प्रोग्राम से 1988 से जुड़ी हूं। मैने अग्नि मिसाइल्स के लिए गाइडेंस प्रोग्राम्स बनाए।'
(नवभारत टाइम्स से सभार)
गुरुवार, 17 नवंबर 2011
रामगढ़ की प्राचीनतम नाट्यशाला
इलाहाबाद से रामेश्वरम के प्राचीन मार्ग पर सरगुजा के उदयपुर में स्थित एक ऊंची पहाड़ी रामपुर टप्पा के समतल मैदानों में अचानक ही उठ खड़ी हुई है। समतल भू-सतह से 308 मीटर की ऊंचाई तक उत्तर से दक्षिण में फैली एक पहाड़ी और इस पहाड़ी के दक्षिण-पश्चिमी भाग में लगभग 310 मीटर ऊंची एख सीधी खड़ी चट्टान, इस पूरी पहाड़ी को एक सूंड में उठाए हुए हाथी की शक्ल देते हैं। इस पहाड़ी को रामगढ़ कहते हैं।
पारंपरिक कथाओं के अनुसार रामायण काल में यह स्थल दंडकारण्य था एवं सीताजी पहाड़ी स्थित गुफा सीता-बेंगरा में निवास करती थीं। पहाड़ी के समीप ही बहने वाली नदी रिहन्द या रेण प्राचीन काल में मंदाकिनी थी। इतिहासविद् कनिंघम रामगढ़ की पहाड़ियों को रामायण में वर्णित चित्रकूट मानते हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार महाकवि कालिदास ने जब राजा भोज से नाराज हो उज्जयिनी का परित्याग किया था तब उन्होंने यहीं शरण ली थी और महाकाव्य मेघदूत की रचना इन्हीं पहाड़ियों पर बैठकर की थी।
दर्शनीय स्थल
हाथी पोल
रामगढ़ के उत्तरी छोर के निचले भाग में एक विशाल सुरंग है जो लगभग 39 मीटर लंबी एवं मुहाने पर 17 मीटर ऊंची एवं इतनी ही चौड़ी है। इसे हाथपोल या हाथीपोल कहते हैं। अंदर इसकी ऊंचाई इतनी है कि इसमें हाथी आसानी से गुजर सकता है। बरसात में इसमें से एक नाला बहता है। अंदर चट्टानों के बीच एक कुंड है, जो सीता कुंड के नाम से जाना जाता है। इसका पानी अत्यंत निर्मल एवं शीतल है।
नाट्यशाला
सीता बेंगरा की रचना को देखकर आभास होता है कि इसका उपयोग प्राचीन काल में नाट्यशाला के रूप में किया जाता था। पूरी व्यवस्था बहुत ही कलात्मक है। गुफा के बाहर लगभग 50-60 लोगों के बैठने के लिए अर्धचंद्राकार में आसन बने हुए हैं। गुफा के प्रवेश स्थल की फर्श पर दो छिद्र हैं जिनका उपयोग संभवतः पर्दे में लगाई जाने वाली लकड़ी के डंडों को फंसाने के लिए किया जाता था। पूरा परिदृश्य रोमन रंगभूमि की याद दिलाता है। प्रतिवर्ष आषाढ़ के प्रथम दिवस पर इस नाट्यशाला में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
सीता बेंगरा गुफा की समतल चट्टान पर दो पंक्तियों का एक शिलालेख है, जिसकी प्रत्येक पंक्ति की लंबाई एक मीटर है। यह लेख गुप्तकालीन शासकों के शिलालेख में उत्कीर्ण ब्राह्मी लिपि के समान उकेरे गए हैं। एक अन्य शिलालेख मध्यकालीन नागरी लिपि में है। इसके अलावा मौर्यों के समय का एक संयुक्त अक्षर भी उत्कीर्ण किया गया है। कुछ संख्यात्मक मान भी लिखे गए हैं, मानों किसी ने किसी तथ्य की गिनती संभालकर रखी हो।
जोगीमारा
सीता बेंगरा से सटी हुई एक दूसरी गुफा है जो जोगीमारा के नाम से जानी जाती है। इसकी छत की बाहरी एवं भीतरी सतह पर पक्षियों, पुष्पों, मछलियों, वृक्षों एवं मनुष्यों की आकृतियां लाल, पीले, भूरे, हरे तथा काले रंगों में चित्रित की गई है। कई स्थानों पर प्राचीन चैत्य झरोखों का भी चित्रण किया गया है। दो पहियों से युक्त रथ, जिसे तीन घोड़े खीच रहे हैं और छतरियों से ढंके हैं, सांची एवं भरहुत की खुदाई में प्राप्त परिदृश्यों के समान हैं।
नमी से इन प्राचीन चित्रणों का बड़ा हिस्सा पूर्णतः नष्ट होकर अदृश्य हो गया है। तो भी कला के ये हिस्से प्राचीनतम भित्ती चित्रों के रूप में मानें जाते हैं, जो ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के समय के हैं। इस गुफा में पांच पंक्तियों का एक शिलालेख है, जो सम्राट अशोक के शिलालेखों के समान ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है। इसकी भाषा विशुद्ध मागधी है।
तुर्रापानी
सीता बेंगरा से आगे खड़ी चट्टान के तल में चट्टान के बीच से पानी की धारा बहती है। इसका जल अत्यंत स्वच्छ एवं शीतल है। यह तुर्रापानी कहलाता है। इस स्थान को तिलकमाटी भी कहते हैं। यहां की मिट्टी का रंग लाल है। किंवदंती है कि श्रीरामचंद्रजी ने सीताजी के मस्तक पर इसी स्थान पर इस मिट्टी से तिलक लगाया था। यहां प्रतिवर्ष माघ (जनवरी-फरवरी), चैत्र (मार्च-अप्रैल) एवं बैशाख (मई-जून) के महीनों में मेला भरता है।
पउरी दरवाजा या पउरी द्वारी
मुख्य पहाड़ी के मार्ग पर एक जीर्ण-शीर्ण द्वार है, जो दो प्रस्तर स्तंभों को कई पत्थरों के टुकड़ों से जोड़कर बनाया गया है। इस द्वार पाथ के दूसरी तरफ कटे हुए पत्थर के टुकड़ों के विशाल खंड पड़े हुए हैं, जिनका उपयोग कभी एक घेरनुमा दीवार के निर्माण में हुआ था। इस द्वार से आगे कबीर चौरा नामक चबूतरा है, जो धर्मदास नामक योगी की समाधि है। वे रामगढ़ पहाड़ी के अंतिम योगी थे। यहीं पर एक विशाल प्रस्तर खंड है, जिसमें अंदर जाने का एक छोटा सा रास्ता बना है। इसे वशिष्ठ गुफा के नाम से जाना जाता है।
सिंह दरवाजा या रावण दरवाजा
वशिष्ठ गुफा से आगे विशाल पत्थरों को तराशकर बनाया गया मेहराब आज भी खड़ा है। सीधी खड़ी चट्टानों पर इतने विशाल प्रस्तर खंडों से किया गया निर्माणकार्य आश्चर्यजनक है। यह सिंह दरवाजा कहलाता है। सिंह दरवाजे से टूटी हुई सीढ़ियों के पायदान (गणेश सीढ़ी) रावण दरवाजे तक ले जाते हैं।
रावण दरवाजा रावण, कुंभकरण, कुछ नाचती हुई नारियों की प्रतिमाओं तथा सीताजी तथा हनुमानजी की प्रतिमाओं से युक्त है। आस-पास कुछ अन्य मूर्तियां भी हैं, जिनके परिधान एवं वास्तुकला गुप्तकाल की मूर्तियों के समान है। पहाड़ी की चोटी पर बहुत अच्छी हालत में एक मंदिर है, जिसमें राम, लक्ष्मण एवं सीताजी की मूर्तियां रखी हैं। पहाड़ी के शिखर से लगभग 61 मीटर नीचे खड़ी चट्टान की सतह पर एक प्राकृतिक गुफा है। गुफा में नमीयुक्त चाक मिट्टी पाई जाती है। मंदिर में पूजा के बाद भक्तों द्वारा इस मिट्टी को अपने कपाल पर पवित्र चिन्ह के रूप में लगाया जाता है। गुफा के ठीक नीचे एक स्वच्छ जल का कुंड है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका जलस्तर हमेशा एक समान बना रहता है।
महेशपुर
रामगढ़ के उत्तर में 88 किलोमीटर की दूरी पर रेण (रेणुका) नदी के किनारे स्थित महेशपुर में 12 विशाल मंदिरों के भग्नावशेष हैं, जो मुख्यतः भगवान शिव एवं विष्णु से संबंधित हैं। एक स्थान पर जैन तीर्थंकर वृषभनाथ की प्रतिमा प्राप्त हुई है। ये सभी अवशेष 7वीं से लेकर 10वीं शताब्दी ईसवी के माने जाते हैं। यहां मुख्यरूप से कलचुरीकाल की शैवकला एवं संस्कृति के दर्शन होते हैं। भगवान शिव के मुख्य शिवलिंग के चारों तरफ एकादश रूद्र स्थापित है। यहां संभवतः द्रविड़ प्रजातियों का प्रभुत्व था।
कैसे पहुंचे
रामगढ़, अंबिकापुर-बिलासपुर मुख्यमार्ग पर स्थित उदयपुर से 3 किमी और अंबिकापुर से 43 किमी दूर है। अंबिकापुर एवं बिलासपुर से उदयपुर पक्की सड़क से जुड़ा है।
आवास
ठहरने के लिए उदयपुर में पीडब्लूडी विभाग का विश्रामगृह बना है। इसके अतिरिक्त उदयपुर में 18 किलोमीटर दूर लखनपुर में ठहरने हेतु धर्मशाला एवं समीप के कुंवरपुर में सिंचाई विभाग का विश्रामगृह है। अंबिकापुर में ठहरने के लिए उच्च विश्रामगृह, विश्राम भवन, होटल, गेस्ट हाउस आदि उपलब्ध है।
(छत्तीसगढ़ जनमन, वर्ष-1, अंक-4 से साभार, संपादक-उमेश द्विवेदी, स्रोत छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल रायपुर)
पारंपरिक कथाओं के अनुसार रामायण काल में यह स्थल दंडकारण्य था एवं सीताजी पहाड़ी स्थित गुफा सीता-बेंगरा में निवास करती थीं। पहाड़ी के समीप ही बहने वाली नदी रिहन्द या रेण प्राचीन काल में मंदाकिनी थी। इतिहासविद् कनिंघम रामगढ़ की पहाड़ियों को रामायण में वर्णित चित्रकूट मानते हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार महाकवि कालिदास ने जब राजा भोज से नाराज हो उज्जयिनी का परित्याग किया था तब उन्होंने यहीं शरण ली थी और महाकाव्य मेघदूत की रचना इन्हीं पहाड़ियों पर बैठकर की थी।
दर्शनीय स्थल
हाथी पोल
रामगढ़ के उत्तरी छोर के निचले भाग में एक विशाल सुरंग है जो लगभग 39 मीटर लंबी एवं मुहाने पर 17 मीटर ऊंची एवं इतनी ही चौड़ी है। इसे हाथपोल या हाथीपोल कहते हैं। अंदर इसकी ऊंचाई इतनी है कि इसमें हाथी आसानी से गुजर सकता है। बरसात में इसमें से एक नाला बहता है। अंदर चट्टानों के बीच एक कुंड है, जो सीता कुंड के नाम से जाना जाता है। इसका पानी अत्यंत निर्मल एवं शीतल है।
नाट्यशाला
सीता बेंगरा की रचना को देखकर आभास होता है कि इसका उपयोग प्राचीन काल में नाट्यशाला के रूप में किया जाता था। पूरी व्यवस्था बहुत ही कलात्मक है। गुफा के बाहर लगभग 50-60 लोगों के बैठने के लिए अर्धचंद्राकार में आसन बने हुए हैं। गुफा के प्रवेश स्थल की फर्श पर दो छिद्र हैं जिनका उपयोग संभवतः पर्दे में लगाई जाने वाली लकड़ी के डंडों को फंसाने के लिए किया जाता था। पूरा परिदृश्य रोमन रंगभूमि की याद दिलाता है। प्रतिवर्ष आषाढ़ के प्रथम दिवस पर इस नाट्यशाला में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
सीता बेंगरा गुफा की समतल चट्टान पर दो पंक्तियों का एक शिलालेख है, जिसकी प्रत्येक पंक्ति की लंबाई एक मीटर है। यह लेख गुप्तकालीन शासकों के शिलालेख में उत्कीर्ण ब्राह्मी लिपि के समान उकेरे गए हैं। एक अन्य शिलालेख मध्यकालीन नागरी लिपि में है। इसके अलावा मौर्यों के समय का एक संयुक्त अक्षर भी उत्कीर्ण किया गया है। कुछ संख्यात्मक मान भी लिखे गए हैं, मानों किसी ने किसी तथ्य की गिनती संभालकर रखी हो।
जोगीमारा
सीता बेंगरा से सटी हुई एक दूसरी गुफा है जो जोगीमारा के नाम से जानी जाती है। इसकी छत की बाहरी एवं भीतरी सतह पर पक्षियों, पुष्पों, मछलियों, वृक्षों एवं मनुष्यों की आकृतियां लाल, पीले, भूरे, हरे तथा काले रंगों में चित्रित की गई है। कई स्थानों पर प्राचीन चैत्य झरोखों का भी चित्रण किया गया है। दो पहियों से युक्त रथ, जिसे तीन घोड़े खीच रहे हैं और छतरियों से ढंके हैं, सांची एवं भरहुत की खुदाई में प्राप्त परिदृश्यों के समान हैं।
नमी से इन प्राचीन चित्रणों का बड़ा हिस्सा पूर्णतः नष्ट होकर अदृश्य हो गया है। तो भी कला के ये हिस्से प्राचीनतम भित्ती चित्रों के रूप में मानें जाते हैं, जो ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के समय के हैं। इस गुफा में पांच पंक्तियों का एक शिलालेख है, जो सम्राट अशोक के शिलालेखों के समान ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है। इसकी भाषा विशुद्ध मागधी है।
तुर्रापानी
सीता बेंगरा से आगे खड़ी चट्टान के तल में चट्टान के बीच से पानी की धारा बहती है। इसका जल अत्यंत स्वच्छ एवं शीतल है। यह तुर्रापानी कहलाता है। इस स्थान को तिलकमाटी भी कहते हैं। यहां की मिट्टी का रंग लाल है। किंवदंती है कि श्रीरामचंद्रजी ने सीताजी के मस्तक पर इसी स्थान पर इस मिट्टी से तिलक लगाया था। यहां प्रतिवर्ष माघ (जनवरी-फरवरी), चैत्र (मार्च-अप्रैल) एवं बैशाख (मई-जून) के महीनों में मेला भरता है।
पउरी दरवाजा या पउरी द्वारी
मुख्य पहाड़ी के मार्ग पर एक जीर्ण-शीर्ण द्वार है, जो दो प्रस्तर स्तंभों को कई पत्थरों के टुकड़ों से जोड़कर बनाया गया है। इस द्वार पाथ के दूसरी तरफ कटे हुए पत्थर के टुकड़ों के विशाल खंड पड़े हुए हैं, जिनका उपयोग कभी एक घेरनुमा दीवार के निर्माण में हुआ था। इस द्वार से आगे कबीर चौरा नामक चबूतरा है, जो धर्मदास नामक योगी की समाधि है। वे रामगढ़ पहाड़ी के अंतिम योगी थे। यहीं पर एक विशाल प्रस्तर खंड है, जिसमें अंदर जाने का एक छोटा सा रास्ता बना है। इसे वशिष्ठ गुफा के नाम से जाना जाता है।
सिंह दरवाजा या रावण दरवाजा
वशिष्ठ गुफा से आगे विशाल पत्थरों को तराशकर बनाया गया मेहराब आज भी खड़ा है। सीधी खड़ी चट्टानों पर इतने विशाल प्रस्तर खंडों से किया गया निर्माणकार्य आश्चर्यजनक है। यह सिंह दरवाजा कहलाता है। सिंह दरवाजे से टूटी हुई सीढ़ियों के पायदान (गणेश सीढ़ी) रावण दरवाजे तक ले जाते हैं।
रावण दरवाजा रावण, कुंभकरण, कुछ नाचती हुई नारियों की प्रतिमाओं तथा सीताजी तथा हनुमानजी की प्रतिमाओं से युक्त है। आस-पास कुछ अन्य मूर्तियां भी हैं, जिनके परिधान एवं वास्तुकला गुप्तकाल की मूर्तियों के समान है। पहाड़ी की चोटी पर बहुत अच्छी हालत में एक मंदिर है, जिसमें राम, लक्ष्मण एवं सीताजी की मूर्तियां रखी हैं। पहाड़ी के शिखर से लगभग 61 मीटर नीचे खड़ी चट्टान की सतह पर एक प्राकृतिक गुफा है। गुफा में नमीयुक्त चाक मिट्टी पाई जाती है। मंदिर में पूजा के बाद भक्तों द्वारा इस मिट्टी को अपने कपाल पर पवित्र चिन्ह के रूप में लगाया जाता है। गुफा के ठीक नीचे एक स्वच्छ जल का कुंड है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका जलस्तर हमेशा एक समान बना रहता है।
महेशपुर
रामगढ़ के उत्तर में 88 किलोमीटर की दूरी पर रेण (रेणुका) नदी के किनारे स्थित महेशपुर में 12 विशाल मंदिरों के भग्नावशेष हैं, जो मुख्यतः भगवान शिव एवं विष्णु से संबंधित हैं। एक स्थान पर जैन तीर्थंकर वृषभनाथ की प्रतिमा प्राप्त हुई है। ये सभी अवशेष 7वीं से लेकर 10वीं शताब्दी ईसवी के माने जाते हैं। यहां मुख्यरूप से कलचुरीकाल की शैवकला एवं संस्कृति के दर्शन होते हैं। भगवान शिव के मुख्य शिवलिंग के चारों तरफ एकादश रूद्र स्थापित है। यहां संभवतः द्रविड़ प्रजातियों का प्रभुत्व था।
कैसे पहुंचे
रामगढ़, अंबिकापुर-बिलासपुर मुख्यमार्ग पर स्थित उदयपुर से 3 किमी और अंबिकापुर से 43 किमी दूर है। अंबिकापुर एवं बिलासपुर से उदयपुर पक्की सड़क से जुड़ा है।
आवास
ठहरने के लिए उदयपुर में पीडब्लूडी विभाग का विश्रामगृह बना है। इसके अतिरिक्त उदयपुर में 18 किलोमीटर दूर लखनपुर में ठहरने हेतु धर्मशाला एवं समीप के कुंवरपुर में सिंचाई विभाग का विश्रामगृह है। अंबिकापुर में ठहरने के लिए उच्च विश्रामगृह, विश्राम भवन, होटल, गेस्ट हाउस आदि उपलब्ध है।
(छत्तीसगढ़ जनमन, वर्ष-1, अंक-4 से साभार, संपादक-उमेश द्विवेदी, स्रोत छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल रायपुर)
मंगलवार, 15 नवंबर 2011
खतों का ताबीज
बड़े दिनों बाद चिट्ठी जैसी चिट्ठी आई। नागपुर वाले आरीफ जमाली साहब की चिट्ठी। जमाली साहब जब रायपुर आए थे, तब उनकी कुछ गजलें मैंने जरा इधर भी में पोस्ट की थी। उन्होंने चिट्ठी में कुछ बेहतरीन गजलें और भेजी हैं। पेश है
गजल-1
सुकूं अपने दिल का गंवाया न कर
नजूमी की बातों में आया न कर
तेरे प्यार का भेद खुल जाएगा
अकेले में भी गुनगुनाया न कर
बना उनके ताविज तकिये में रख
हमारे खतों को जलाया न कर
तेरा रिज्क तुझ तक पहुंच जाएगा
गलत रास्तों से बुलाया न कर
न फिर जी सकेगा कहीं चैन से
कभी मां के दिल को दुखाया न कर
अगर है तुझे, जान अपनी अजीज
हर एक को गले से लगाया न कर
फरिश्ते ही झांकें तेरी आंख में
तू आरिफ से नजरें मिलाया न कर
नजूमी-ज्योतिषी, हाथों की लकीरें पढ़नेवाला।
रिज्क-रोजी रोटी
अजीज-प्यारी
गजल-2
जो नफरतों को मिटा दे वह गीत गाता हूं
जो दिल से दिल को मिला दे वह गीत गाता हूं
मैं शब्द-शब्द से एक रौशनी बिखेरुंगा
अंधेरा जग से मिटा दे, वह गीत गाता हूं
कोई किसी से खफा हो, मैं सह नहीं सकता
मुहब्बतों को हवा दे वह गीत गाता हूं
यह कुर्सियों ने लगाई है आग शहरों में
जो गीत आग बुझा दे वह गीत गाता हूं
खुदा के नाम पे बने हैं मस्जिद व मंदिर
खुदा की याद दिला दे वह गीत गाता हूं
मैं अपने गीतों के मरहम लगाऊं जख्मों पर
तड़पती रूहें दुआ करे वह गीत गाता हूं
जगाऊं दर्द मैं आरीफ सभी के सीने में
जो पत्थरों को रुला दे वह गीत गाता हूं
गजल-3
जिंदगी के गम को हंस कर झेलता है आदमी
यह बलाओं को खबर क्या खुद बला है आदमी
साथ मेरे तुम चलो तूफां से लड़ने के लिए
हलकी लहरों पर तो अकसर खेलता है आदमी
जंगलों में सब दरिंदे सुन के हैरत में पड़े
शहर में अब आदमी को खा रहा है आदमी
आदमी को आदमी की बात क्यूं भाती नहीं
बोझ नादानी का अपनी ढो रहा है आदमी
सब के दिल में झांकता था, आज आईना मिला
यानी बरसों बाद आरीफ को मिला है आदमी
-आरीफ जमाली, कामठी (नागपुर) महाराष्ट्र
रविवार, 13 नवंबर 2011
नमामि अहं
मंजू साईंनाथ |
This is a parody devoted to the notorious man from Karnataka who was minister and is now in a Hyderabad Jail.
जय जनार्दना, प्रभु बेल्लारी पते,
जनविमर्दना, स्वामी लोक भक्षणा.
गगनगामी त्वं, विमान वाहना.
लौह पुरुष त्वं, सदा स्वर्ण धारणा.
दुर्जन बान्धवा, सदा दुष्ट सहायका
सुजन नाशना प्रभु त्वं भयंकरा,
वैभवं यथा, इन्द्रयो समः
विलास जीवना, प्रबल प्रवंचना
प्रचंड प्रहारका, स्वामी त्वं मारका,
अदृष्टवशात कारागृहे वासवस्थितौ.
मृत्युतुल्य त्वं येड्डी गर्वभंजना,
प्रचोदयेत सदा, असंत्रुप्ती भावना.
(फेसबुक पर मंजू साईंनाथ की पोस्ट ज्यों की त्यों)
शनिवार, 12 नवंबर 2011
आज मुक्तिबोध
13 नवंबर जन्मदिन पर विशेष
प्रस्तुति-अतुल श्रीवास्तव
(मूल स्रोत-विकीपीडिया
गजानन माधव 'मुक्तिबोध' (१३ नवंबर १९१७ - ११ सितंबर १९६४) हिन्दी साहित्य की स्वातंत्र्योत्तर प्रगतिशील काव्यधारा के शीर्ष व्यक्तित्व थे। हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक भी। उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है। इनके पिता पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर थे और उनका तबादला प्रायः होता रहता था। इसीलिए मुक्तिबोध जी की पढाई में बाधा पड़ती रहती थी। सन १९३० में मुक्तिबोध ने मिडिल की परीक्षा, उज्जैन से दी और फेल हो गए। कवि ने इस असफलता को अपने जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना के रूप में स्वीकार किया है। उन्होंने १९५३ में साहित्य रचना का कार्य प्रारम्भ किया और सन १९३९ में इन्होने शांता जी से प्रेम विवाह किया। १९४२ के आस-पास वे वामपंथी विचारधारा की ओर झुके तथा शुजालपुर में रहते हुए उनकी वामपंथी चेतना मजबूत हुई। राजनांदगांव जिले के दिग्विजय कालेज में उन्होंने प्राध्यापक के रूप में काम किया और इसी दौरान अपनी कालजयी रचनाएं लिखीं।
मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे। मनुष्य की अस्मिता, आत्मसंघर्ष और प्रखर राजनैतिक चेतना से समृद्ध उनकी कविता पहली बार 'तार सप्तक' के माध्यम से सामने आई, लेकिन उनका कोई स्वतंत्र काव्य-संग्रह उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो पाया। मृत्यु के पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी केवल 'एक साहित्यिक की डायरी' प्रकाशित की थी, जिसका दूसरा संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से उनकी मृत्यु के दो महीने बाद प्रकाशित हुआ। ज्ञानपीठ ने ही 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' प्रकाशित किया था। इसी वर्ष नवंबर १९६४ में नागपुर के विश्वभारती प्रकाशन ने मुक्तिबोध द्वारा १९६३ में ही तैयार कर दिये गये निबंधों के संकलन नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध' को प्रकाशित किया था। परवर्ती वर्षो में भारतीय ज्ञानपीठ से मुक्तिबोध के अन्य संकलन 'काठ का सपना', तथा 'विपात्र' (लघु उपन्यास) प्रकाशित हुए। पहले कविता संकलन के १५ वर्ष बाद, १९८० में उनकी कविताओं का दूसरा संकलन 'भूरी भूर खाक धूल' प्रकाशित हुआ और १९८५ में 'राजकमल' से पेपरबैक में छ: खंडों में 'मुक्तिबोध रचनावली' प्रकाशित हुई, वह हिंदी के इधर के लेखकों की सबसे तेजी से बिकने वाली रचनावली मानी जाती है।
इसके बाद मुक्तिबोध पर शोध और किताबों की भी झड़ी लग गयी। १९७५ में प्रकाशित अशोक चक्रधर का शोध ग्रंथ 'मुक्तिबोध की काव्यप्रक्रिया' इन पुस्तकों में प्रमुख था।[2] कविता के साथ-साथ, कविता विषयक चिंतन और आलोचना पद्धति को विकसित और समृद्ध करने में भी मुक्तिबोध का योगदान अन्यतम है। उनके चिंतन परक ग्रंथ हैं- एक साहित्यिक की डायरी, नयी कविता का आत्मसंघर्ष और नये साहित्य का सौंदर्य शास्त्र। भारत का इतिहास और संस्कृति इतिहास लिखी गई उनकी पुस्तक है। काठ का सपना तथा सतह से उठता आदमी उनके कहानी संग्रह हैं तथा विपात्रा उपन्यास है। उन्होंने 'वसुधा', 'नया खून' आदि पत्रों में संपादन-सहयोग भी किया।
(अतुल श्रीवास्तव राजनांदगांव के वरिष्ठ पत्रकार है,)
प्रस्तुति-अतुल श्रीवास्तव
(मूल स्रोत-विकीपीडिया
गजानन माधव 'मुक्तिबोध' (१३ नवंबर १९१७ - ११ सितंबर १९६४) हिन्दी साहित्य की स्वातंत्र्योत्तर प्रगतिशील काव्यधारा के शीर्ष व्यक्तित्व थे। हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक भी। उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है। इनके पिता पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर थे और उनका तबादला प्रायः होता रहता था। इसीलिए मुक्तिबोध जी की पढाई में बाधा पड़ती रहती थी। सन १९३० में मुक्तिबोध ने मिडिल की परीक्षा, उज्जैन से दी और फेल हो गए। कवि ने इस असफलता को अपने जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना के रूप में स्वीकार किया है। उन्होंने १९५३ में साहित्य रचना का कार्य प्रारम्भ किया और सन १९३९ में इन्होने शांता जी से प्रेम विवाह किया। १९४२ के आस-पास वे वामपंथी विचारधारा की ओर झुके तथा शुजालपुर में रहते हुए उनकी वामपंथी चेतना मजबूत हुई। राजनांदगांव जिले के दिग्विजय कालेज में उन्होंने प्राध्यापक के रूप में काम किया और इसी दौरान अपनी कालजयी रचनाएं लिखीं।
मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे। मनुष्य की अस्मिता, आत्मसंघर्ष और प्रखर राजनैतिक चेतना से समृद्ध उनकी कविता पहली बार 'तार सप्तक' के माध्यम से सामने आई, लेकिन उनका कोई स्वतंत्र काव्य-संग्रह उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो पाया। मृत्यु के पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी केवल 'एक साहित्यिक की डायरी' प्रकाशित की थी, जिसका दूसरा संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से उनकी मृत्यु के दो महीने बाद प्रकाशित हुआ। ज्ञानपीठ ने ही 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' प्रकाशित किया था। इसी वर्ष नवंबर १९६४ में नागपुर के विश्वभारती प्रकाशन ने मुक्तिबोध द्वारा १९६३ में ही तैयार कर दिये गये निबंधों के संकलन नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध' को प्रकाशित किया था। परवर्ती वर्षो में भारतीय ज्ञानपीठ से मुक्तिबोध के अन्य संकलन 'काठ का सपना', तथा 'विपात्र' (लघु उपन्यास) प्रकाशित हुए। पहले कविता संकलन के १५ वर्ष बाद, १९८० में उनकी कविताओं का दूसरा संकलन 'भूरी भूर खाक धूल' प्रकाशित हुआ और १९८५ में 'राजकमल' से पेपरबैक में छ: खंडों में 'मुक्तिबोध रचनावली' प्रकाशित हुई, वह हिंदी के इधर के लेखकों की सबसे तेजी से बिकने वाली रचनावली मानी जाती है।
इसके बाद मुक्तिबोध पर शोध और किताबों की भी झड़ी लग गयी। १९७५ में प्रकाशित अशोक चक्रधर का शोध ग्रंथ 'मुक्तिबोध की काव्यप्रक्रिया' इन पुस्तकों में प्रमुख था।[2] कविता के साथ-साथ, कविता विषयक चिंतन और आलोचना पद्धति को विकसित और समृद्ध करने में भी मुक्तिबोध का योगदान अन्यतम है। उनके चिंतन परक ग्रंथ हैं- एक साहित्यिक की डायरी, नयी कविता का आत्मसंघर्ष और नये साहित्य का सौंदर्य शास्त्र। भारत का इतिहास और संस्कृति इतिहास लिखी गई उनकी पुस्तक है। काठ का सपना तथा सतह से उठता आदमी उनके कहानी संग्रह हैं तथा विपात्रा उपन्यास है। उन्होंने 'वसुधा', 'नया खून' आदि पत्रों में संपादन-सहयोग भी किया।
(अतुल श्रीवास्तव राजनांदगांव के वरिष्ठ पत्रकार है,)
इन तालों को जल्दी खोलो भैया
अनिल पुसदकर
छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक और पुरात्तात्विक वैभव अब भी पूरी तरह दुनिया के सामने नहीं आ पाया है। लोग इससे ठीक उसी तरह अंजान हैं, जैसे इस राज्य के निर्माण से पहले यहां की संभावनाओं से अंजान थे। वे इस साजिशाना अफवाहों को ही सच मानते रहे कि यह राज्य बेहद पिछड़ा हुआ है। अब जाकर दुनिया इसे जान-समझ रही है। अब जाकर यहां के पुरातात्विक स्थलों की सुध ली जा रही है। कई स्थान अब भी अछूते हैं। रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार अनिल पुसदकर जिस पुरावैभव और सास्कृतिक संपन्नता का परिचय दे रहे हैं, उसकी खोज थोड़ी सी पुरानी है, लेकिन इसकी चर्चा खास तबके तक ही सिमट कर रह गई। आम तबका तो जानता तक नहीं। पुराविदों से इस अनुरोध के साथ यह पोस्ट कि छत्तीसगढ़ के असली वैभव की चाबियां आप ही लोगों के पास है, इन तालों को जल्दी खोलो भैयाः-
-केवलकृष्ण
महाकाल रूद्रशिव की इकलौती ज्ञात प्रतिमा है ताला में
रायपुर से बिलासपुर राजमार्ग पर 85 किलोमीटर दूर है ग्राम ताला। यहां अनूठी और अद्भूत मूर्तियां मिली है। शैव संस्कृति के 2 मंदिर देवरानी-जेठानी के नाम से विख्यात है। यहां ढाई मीटर ऊंची और 1 मीटर चौड़ी जीव-जंतुओं की मुखाकृतियों से बने अंग-प्रत्यंगों वाली प्रतिमा मिली है, जिसे रूद्र शिव का नाम दिया गया है। महाकाल रूद्र शिव की प्रतिमा भारतीय कला में अपने ढंग की एकमात्र ज्ञात प्रतिमा है। कुछ विद्वान धारित बारह राशियों के आकार पर इसका नाम कालपुरूष भी मानते हैं।
हाईवे से कुछ किलोमीटर अंदर ताला गांव में मनियारी नदी के तट पर 2 शैव मंदिर हैं। इनको देवरानी-जेठानी के मंदिरों के नाम से जाना जाता है। ताला गांव की पहली सूचना 1873-74 में उस समय के कमिश्नर फिशर ने भारतीय पुरातत्व के पहले महानिदेशक एलेक्जेंडर कनिंघम के सहयोगी जे.डी. बेगलर को दी थी। एक विदेशी महिला पुराविद्वान जोलियम विलियम्स ने इन मंदिरों को चंद्रगुप्त काल का बताया। शरभपुरीय शासकों के प्रसाद की 2 रानियों देवरानी-जेठानी ने ये मंदिर बनवाए। पुरात्तव विद्वान इसके निर्माण काल का निर्धारण पांचवीं-छठवीं शताब्दी करते हैं। यहां पास ही सरगांव का धूमनाथ मंदिर, धोबिन, देवकिरारी, गुड़ी ने शैव मंदिर मिले हैं। ऐतिहासिक नगर मल्हार यहां से मात्र 5 किलोमीटर दूर है।
उत्खनन के बाद वहां मूर्ति व स्थापत्य कला का जो रूप सामने आया, उससे ऐसा माना जाता है कि ईसा पूर्व से दसवीं शताब्दी तक ये बेहद समृद्ध इलाका रहा होगा। मूर्तियों की शैली और अवशेषों से प्रतीत होता है कि यहां अलग-अलग संस्कृति और धर्म फलते-फूलते रहे होंगे। अधिकांश शिव पूजक और तांत्रिक अनुष्ठान वाले रहे होंगे। चूंकि यहां मिली महाकाल रूद्र शिव की प्रतिमा का अलंकरण बारह राशियों और नौ ग्रहों के साथ हुआ है, इसलिए विद्वानों का मत है कि यदि इस प्रतिमा को पुन: प्राण-प्रतिष्ठित किया जाए तो कालसर्प के निदान के लिए हवन शुरू किया जा सकता है। भक्तजन यहां महामृत्युंजय जाप और शिव की पूजा करने के लिए आते रहते हैं।
महाकाल रूद्रशिव की प्रतिमा भारी भरकम है। 2.54 मीटर ऊंची और 1 मीटर चौड़ी प्रतिमा के अंग-प्रत्यंग अलग-अलग जीव-जंतुओं की मुखाकृतियों से बने हैं, इस कारण प्रतिमा में रौद्र भाव साफ नज़र आता है। प्रतिमा संपाद स्थानक मुद्रा में है। इस महाकाय प्रतिमा के रूपांकन में गिरगिट, मछली, केकड़ा, मयूर, कछुआ, सिंह और मानव मुखों की मौलिक रूपाकृति का अद्भूत संयोजन है। मूर्ति के सिर पर मंडलाकार चक्रों में लिपटे 2 नाग पगड़ी के समान नज़र आते हैं। नाक नीचे की ओर मुंह किए हुए गिरगिट से बनी है। गिरगिट के पिछले 2 पैरों ने भौहों का आकार लिया है। अगले 2 पैरों ने नासिका रंध्र की गोलाई बनाई है। गिरगिट का सिर नाक का अगला हिस्सा है। बड़े आकार के मेंढक के खुले मुख से नेत्रपटल और बड़े अण्डे से गोलक बने हैं। छोटे आकार की मछलियों से मुछें और निचला होंठ बना है। कान की जगह बैठे हुए मयूर स्थापित हैं। कंधा मगर के मुंह से बना है। भुजाएं हाथी के सूंड़ के समान हैं, हाथों की उंगलियों सांप के मुंह के आकार की है, दोनों वक्ष और उदर पर मानव मुखाकृतियां बनी है। कछुए के पिछले हिस्से कटी और मुंह से शिश्न बना है। उससे जुड़े अगले दोनों पैरों से अण्डकोष बने हैं और उन पर घंटी के समान लटकते जोंक बनी है। दोनों जंघाओं पर हाथ जोड़े विद्याधर और कमर के दोनों हिस्से में एक-एक गंधर्व की मुखाकृति बनी है। दोनों घुटनों पर सिंह की मुखाकृति है, मोटे-मोटे पैर हाथी के अगले पैर के समान है। प्रतिमा के दोनों कंधों के ऊपर 2 महानाग रक्षक की तरह फन फैलाए नज़र आते हैं। प्रतिमा के दाएं हाथ में मोटे दंड का खंडित भाग बचा हुआ है। प्रतिमा के आभूषणों में हार, वक्षबंध, कंकण और कटिबंध नाग के कुण्डलित भाग से अलंकृत है। सामान्य रूप से इस प्रतिमा में शैव मत, तंत्र और योग के सिद्धांतों का प्रभाव और समन्वय दिखाई पड़ता है।
उत्खनन से प्राप्त मूर्तियों में चतुर्भुज कार्तिकेय की मयूरासन प्रतिमा है, द्विभुजीय गणेश की प्रतिमा अपने दांत को अपने हाथ में लिए चंद्रमा के प्रक्षेपण के लिए तैयार मुद्रा में है। अर्धनारिश्वर, ऊमा महेश, नागपुरूष, यक्ष मूर्तियां अनेक पौराणिक कथाओं की झलक दिखलाती है। देवरानी-जेठानी के मंदिरों के निचले हिस्से में शिव-पार्वती के विवाह के दृश्य उत्कीर्ण हैं। प्रवेशद्वार के उत्तरी ओर के दोनों किनारों में विशाल स्तंभ के दोनों ओर 6-6 फीट के हाथी बैठी हुई मुद्रा में हैं। मुख्य प्रवेश द्वार के अलावा पश्चिम और पूर्व दिशा में भी द्वार हैं। ताला की मूर्तियां अद्भूत और अनूठी है। यहां महाकाल रूद्र शिव की प्रतिमा के दर्शन करने मात्र से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है।
बिलासपुर से ताला तीस और रायपुर से 85 किलोमीटर दूर है। रायपुर-बिलासपुर रेलमार्ग पर छोटे-से स्टेशन दगौरी से मात्र 2 किलोमीटर दूर है ताला। ठहरने के लिए बिलासपुर और रायपुर दोनों जगह अच्छे होटल, धर्मशालाएं और रेस्टहाउस उपलब्ध हैं। करीब का हवाई अड्डा रायपुर है जो देश के सभी महानगरों से जुड़ा है। नजदीक का रेलवे स्टेशन हावड़ा-मुंबई मार्ग पर बिलासपुर है। यहां साल भर जा सकते हैं। कैसा लगा अद्भूत और अनूठी मूर्ति कला का केन्द्र गांव ‘ताला’।
छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक और पुरात्तात्विक वैभव अब भी पूरी तरह दुनिया के सामने नहीं आ पाया है। लोग इससे ठीक उसी तरह अंजान हैं, जैसे इस राज्य के निर्माण से पहले यहां की संभावनाओं से अंजान थे। वे इस साजिशाना अफवाहों को ही सच मानते रहे कि यह राज्य बेहद पिछड़ा हुआ है। अब जाकर दुनिया इसे जान-समझ रही है। अब जाकर यहां के पुरातात्विक स्थलों की सुध ली जा रही है। कई स्थान अब भी अछूते हैं। रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार अनिल पुसदकर जिस पुरावैभव और सास्कृतिक संपन्नता का परिचय दे रहे हैं, उसकी खोज थोड़ी सी पुरानी है, लेकिन इसकी चर्चा खास तबके तक ही सिमट कर रह गई। आम तबका तो जानता तक नहीं। पुराविदों से इस अनुरोध के साथ यह पोस्ट कि छत्तीसगढ़ के असली वैभव की चाबियां आप ही लोगों के पास है, इन तालों को जल्दी खोलो भैयाः-
-केवलकृष्ण
महाकाल रूद्रशिव की इकलौती ज्ञात प्रतिमा है ताला में
अनिल पुसदकर |
रायपुर से बिलासपुर राजमार्ग पर 85 किलोमीटर दूर है ग्राम ताला। यहां अनूठी और अद्भूत मूर्तियां मिली है। शैव संस्कृति के 2 मंदिर देवरानी-जेठानी के नाम से विख्यात है। यहां ढाई मीटर ऊंची और 1 मीटर चौड़ी जीव-जंतुओं की मुखाकृतियों से बने अंग-प्रत्यंगों वाली प्रतिमा मिली है, जिसे रूद्र शिव का नाम दिया गया है। महाकाल रूद्र शिव की प्रतिमा भारतीय कला में अपने ढंग की एकमात्र ज्ञात प्रतिमा है। कुछ विद्वान धारित बारह राशियों के आकार पर इसका नाम कालपुरूष भी मानते हैं।
हाईवे से कुछ किलोमीटर अंदर ताला गांव में मनियारी नदी के तट पर 2 शैव मंदिर हैं। इनको देवरानी-जेठानी के मंदिरों के नाम से जाना जाता है। ताला गांव की पहली सूचना 1873-74 में उस समय के कमिश्नर फिशर ने भारतीय पुरातत्व के पहले महानिदेशक एलेक्जेंडर कनिंघम के सहयोगी जे.डी. बेगलर को दी थी। एक विदेशी महिला पुराविद्वान जोलियम विलियम्स ने इन मंदिरों को चंद्रगुप्त काल का बताया। शरभपुरीय शासकों के प्रसाद की 2 रानियों देवरानी-जेठानी ने ये मंदिर बनवाए। पुरात्तव विद्वान इसके निर्माण काल का निर्धारण पांचवीं-छठवीं शताब्दी करते हैं। यहां पास ही सरगांव का धूमनाथ मंदिर, धोबिन, देवकिरारी, गुड़ी ने शैव मंदिर मिले हैं। ऐतिहासिक नगर मल्हार यहां से मात्र 5 किलोमीटर दूर है।
उत्खनन के बाद वहां मूर्ति व स्थापत्य कला का जो रूप सामने आया, उससे ऐसा माना जाता है कि ईसा पूर्व से दसवीं शताब्दी तक ये बेहद समृद्ध इलाका रहा होगा। मूर्तियों की शैली और अवशेषों से प्रतीत होता है कि यहां अलग-अलग संस्कृति और धर्म फलते-फूलते रहे होंगे। अधिकांश शिव पूजक और तांत्रिक अनुष्ठान वाले रहे होंगे। चूंकि यहां मिली महाकाल रूद्र शिव की प्रतिमा का अलंकरण बारह राशियों और नौ ग्रहों के साथ हुआ है, इसलिए विद्वानों का मत है कि यदि इस प्रतिमा को पुन: प्राण-प्रतिष्ठित किया जाए तो कालसर्प के निदान के लिए हवन शुरू किया जा सकता है। भक्तजन यहां महामृत्युंजय जाप और शिव की पूजा करने के लिए आते रहते हैं।
ताला में मिली अद्भुत प्रतिमा , इसकी पहचान रौद्रशिव के रूप में की गई है। |
उत्खनन से प्राप्त मूर्तियों में चतुर्भुज कार्तिकेय की मयूरासन प्रतिमा है, द्विभुजीय गणेश की प्रतिमा अपने दांत को अपने हाथ में लिए चंद्रमा के प्रक्षेपण के लिए तैयार मुद्रा में है। अर्धनारिश्वर, ऊमा महेश, नागपुरूष, यक्ष मूर्तियां अनेक पौराणिक कथाओं की झलक दिखलाती है। देवरानी-जेठानी के मंदिरों के निचले हिस्से में शिव-पार्वती के विवाह के दृश्य उत्कीर्ण हैं। प्रवेशद्वार के उत्तरी ओर के दोनों किनारों में विशाल स्तंभ के दोनों ओर 6-6 फीट के हाथी बैठी हुई मुद्रा में हैं। मुख्य प्रवेश द्वार के अलावा पश्चिम और पूर्व दिशा में भी द्वार हैं। ताला की मूर्तियां अद्भूत और अनूठी है। यहां महाकाल रूद्र शिव की प्रतिमा के दर्शन करने मात्र से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है।
बिलासपुर से ताला तीस और रायपुर से 85 किलोमीटर दूर है। रायपुर-बिलासपुर रेलमार्ग पर छोटे-से स्टेशन दगौरी से मात्र 2 किलोमीटर दूर है ताला। ठहरने के लिए बिलासपुर और रायपुर दोनों जगह अच्छे होटल, धर्मशालाएं और रेस्टहाउस उपलब्ध हैं। करीब का हवाई अड्डा रायपुर है जो देश के सभी महानगरों से जुड़ा है। नजदीक का रेलवे स्टेशन हावड़ा-मुंबई मार्ग पर बिलासपुर है। यहां साल भर जा सकते हैं। कैसा लगा अद्भूत और अनूठी मूर्ति कला का केन्द्र गांव ‘ताला’।
गुरुवार, 10 नवंबर 2011
आई एम सारी
कुछ लघुकथाएं
सारी-1
‘आपने मेरी गाड़ी को पीछे से क्यों ठोंका?’
‘‘सारी!’’
‘क्या सारी? मेरी गाड़ी की बैकलाइट फूट गयी।’
‘‘मैंने कहा ना सारी।’’
‘अरे आप तो सारी ऐसे कह रहे हैं, जैसे अहसान कर रहे हों।’
‘‘अबे साले जब से सारी बोल रहा हूँ। तेरे को समझ में नहीं आता है क्या? बताऊँ क्या तेरे को?’’
‘मुआफ़ कीजियेगा भाई-साहब ग़लती मेरी ही थी। दरअसल मैं ही आपकी गाड़ी के सामने आ गया था...सारी।’
सारी-2
आफिस पहुँचने की ज़ल्दी में वह तेज़-तेज़ क़दमों से फ़ुटपाथ पर चला जा रहा था कि अचानक एक व्यक्ति से टकरा गया । अपनी ग़लती उस पर थोपने की गरज़ से उसने उलटे उसे ही फटकारना शुरू कर दिया-‘‘अंधे हो क्या ? देखकर नहीं चल सकते ।’’
मुआफ़ कीजियेगा भाईसाहब मेरा ध्यान कहीं और था...पर साहब मैं अंधा नहीं हूँ...उस व्यक्ति ने कांपते हाथों से अपनी लाठी और काला चश्मा टटोलते हुए कहा ।
सारी-3
‘‘और क्या कर रहे हो भई आजकल...?’’ प्रश्नकर्ता ने प्रश्न किया
‘जी बेरोज़गार हूं अंकल अभी तो...।’ उसने सर झुकाये अपनी टूटी चप्पलों की ओर देखते हुए अपराधबोध से कहा।
‘‘मेरा लड़का तो अपने धंधे से लग गया है...अच्छा कमा खा रहा
है...।’’ प्रश्नकर्ता ने बताया ।
‘तो...? तो मैं क्या करूं...? आप जानबूझकर मेरे जख़्मों पर नमक़ छिड़कते हैं...।’ उसने अवसाद में कहा ।
‘‘मेरा ऐसा तो उद्देश्य नहीं था ।’’ कहते हुए प्रश्नकर्ता के अधरों पर कुटिल मुस्कुराहट आ गयी ।
सारी-4
मैं अपने बच्चे को नर्सरी में एडमिशन दिलाने स्कूल ले गया। स्कूल की प्रिसिपल ने चहकर मुझसे पूछा-अरे आप लोग तो महाराष्ट्रीयन है। हम लोग भी महाराष्ट्रीयन हैं। बातों ही बातों में उसने घुमा-फिराकर मेरी जाति पूछ ली और फिर उसने दर्प के साथ मुझसे कहा हम तो मराठी ब्राहमण हैं। ऐसा कहते हुए उसके व्यवहार में अचानक कठोरता आ गयी। चार-पाँच दिनों बाद मैं देख रहा हूँ कि शराब पीकर मेरे घर के पास नाली में एक आदमी पड़ा हुआ है। लोग उसे घृणा से देखकर निकल रहें हैं। तभी वह प्रिंसपल आती है, और उसे उठाने की कोशिश करती है। फिर असफल होने पर मुझसे कहती है-बेटा ये मेरे पति हैं। इन्हें घर तक पहुंचाने में ज़रा मेरी मदद कर दो। उस दिन के बाद से वह मेरे घर के सामने से नज़रें नीची करके गुजरती है। जाति दर्प न जाने कहाँ छू हो गया है।
-आलोक कुमार सातपुते
सारी-1
‘आपने मेरी गाड़ी को पीछे से क्यों ठोंका?’
‘‘सारी!’’
‘क्या सारी? मेरी गाड़ी की बैकलाइट फूट गयी।’
‘‘मैंने कहा ना सारी।’’
‘अरे आप तो सारी ऐसे कह रहे हैं, जैसे अहसान कर रहे हों।’
‘‘अबे साले जब से सारी बोल रहा हूँ। तेरे को समझ में नहीं आता है क्या? बताऊँ क्या तेरे को?’’
‘मुआफ़ कीजियेगा भाई-साहब ग़लती मेरी ही थी। दरअसल मैं ही आपकी गाड़ी के सामने आ गया था...सारी।’
सारी-2
आफिस पहुँचने की ज़ल्दी में वह तेज़-तेज़ क़दमों से फ़ुटपाथ पर चला जा रहा था कि अचानक एक व्यक्ति से टकरा गया । अपनी ग़लती उस पर थोपने की गरज़ से उसने उलटे उसे ही फटकारना शुरू कर दिया-‘‘अंधे हो क्या ? देखकर नहीं चल सकते ।’’
मुआफ़ कीजियेगा भाईसाहब मेरा ध्यान कहीं और था...पर साहब मैं अंधा नहीं हूँ...उस व्यक्ति ने कांपते हाथों से अपनी लाठी और काला चश्मा टटोलते हुए कहा ।
सारी-3
‘‘और क्या कर रहे हो भई आजकल...?’’ प्रश्नकर्ता ने प्रश्न किया
‘जी बेरोज़गार हूं अंकल अभी तो...।’ उसने सर झुकाये अपनी टूटी चप्पलों की ओर देखते हुए अपराधबोध से कहा।
‘‘मेरा लड़का तो अपने धंधे से लग गया है...अच्छा कमा खा रहा
है...।’’ प्रश्नकर्ता ने बताया ।
‘तो...? तो मैं क्या करूं...? आप जानबूझकर मेरे जख़्मों पर नमक़ छिड़कते हैं...।’ उसने अवसाद में कहा ।
‘‘मेरा ऐसा तो उद्देश्य नहीं था ।’’ कहते हुए प्रश्नकर्ता के अधरों पर कुटिल मुस्कुराहट आ गयी ।
सारी-4
मैं अपने बच्चे को नर्सरी में एडमिशन दिलाने स्कूल ले गया। स्कूल की प्रिसिपल ने चहकर मुझसे पूछा-अरे आप लोग तो महाराष्ट्रीयन है। हम लोग भी महाराष्ट्रीयन हैं। बातों ही बातों में उसने घुमा-फिराकर मेरी जाति पूछ ली और फिर उसने दर्प के साथ मुझसे कहा हम तो मराठी ब्राहमण हैं। ऐसा कहते हुए उसके व्यवहार में अचानक कठोरता आ गयी। चार-पाँच दिनों बाद मैं देख रहा हूँ कि शराब पीकर मेरे घर के पास नाली में एक आदमी पड़ा हुआ है। लोग उसे घृणा से देखकर निकल रहें हैं। तभी वह प्रिंसपल आती है, और उसे उठाने की कोशिश करती है। फिर असफल होने पर मुझसे कहती है-बेटा ये मेरे पति हैं। इन्हें घर तक पहुंचाने में ज़रा मेरी मदद कर दो। उस दिन के बाद से वह मेरे घर के सामने से नज़रें नीची करके गुजरती है। जाति दर्प न जाने कहाँ छू हो गया है।
-आलोक कुमार सातपुते
बुधवार, 9 नवंबर 2011
नीली धूल के पहाड़ पर
नीली धूल के पहाड़ पर
सबकुछ नीला
इतना नीला कि
काला-काला सा।
एक सफेद-
तुम्हारा पसीना
एक सफेद-
मुस्कुराहट तुम्हारी
नीली धूल के पहाड़ पर
बेरंग आसमान
चमचम चमचम एक सूरज
पीली-पीली चट्ट-चट्ट धूप
ठंडा है तो बस
तुंबी का पानी।
नीली धूल में
कित्ता लोहा
इत्ता लोहा कि
पट जाए सारी धरती
बच जाए तो बस
हृदय तुम्हारा।
नीली धूल में
कितने फूल
बस उतने ही
जितने खोंच रखे हैं तुमने
कानों में।
नीली धूल में
कितना बारूद
इतना बारूद कि
चिथड़ी हो जाए जिंदगी
नीली धूल में किनका बारूद
उनका बारूद
उन-उन सबका बारूद
जो कहते हैं-
हम हैं साथ तुम्हारे।
-केवलकृष्ण
नीली धूल-बस्तर के आखिरी छोर पर बैलाडीला की लौह खदानों से निकलने वाला फाइन ओर। उत्तमकोटि का अयस्क। इसे ब्लू डस्ट भी कहते हैं। यानी नीली धूल। यहां प्रतीकात्मक रूप में नीली धूल का पहाड़-बस्तर, केंद्रीय पात्र-बस्तरिया।
इस कविता के बारे में-मेरे पुराने मित्र और ब्लागर राजीवरंजन बैलाडीला जाते हुए रायपुर में रुके। राजीव और मुझे बस्तर छोड़े जमाना बीत गया। फिलहाल वे देहरादून में है, मैं रायपुर में। हमारा बचपन बैलाडीला में साथ-साथ बीता। हमने अपनी स्मृति के बस्तर की सैर की। पाया कि ये बस्तर उस बस्तर जैसा तो बिलकुल नहीं है। बस्तरिया की जिंदगी में अब बारूद ही बारूद है। बस्तर में शांति की स्थापना की दुआ के साथ यह कविता। राजीव को आभार सहित। इस बारूद के खाद में बदलने की कामना के साथ।
सबकुछ नीला
इतना नीला कि
काला-काला सा।
एक सफेद-
तुम्हारा पसीना
एक सफेद-
मुस्कुराहट तुम्हारी
नीली धूल के पहाड़ पर
बेरंग आसमान
चमचम चमचम एक सूरज
पीली-पीली चट्ट-चट्ट धूप
ठंडा है तो बस
तुंबी का पानी।
नीली धूल में
कित्ता लोहा
इत्ता लोहा कि
पट जाए सारी धरती
बच जाए तो बस
हृदय तुम्हारा।
नीली धूल में
कितने फूल
बस उतने ही
जितने खोंच रखे हैं तुमने
कानों में।
नीली धूल में
कितना बारूद
इतना बारूद कि
चिथड़ी हो जाए जिंदगी
नीली धूल में किनका बारूद
उनका बारूद
उन-उन सबका बारूद
जो कहते हैं-
हम हैं साथ तुम्हारे।
-केवलकृष्ण
नीली धूल-बस्तर के आखिरी छोर पर बैलाडीला की लौह खदानों से निकलने वाला फाइन ओर। उत्तमकोटि का अयस्क। इसे ब्लू डस्ट भी कहते हैं। यानी नीली धूल। यहां प्रतीकात्मक रूप में नीली धूल का पहाड़-बस्तर, केंद्रीय पात्र-बस्तरिया।
इस कविता के बारे में-मेरे पुराने मित्र और ब्लागर राजीवरंजन बैलाडीला जाते हुए रायपुर में रुके। राजीव और मुझे बस्तर छोड़े जमाना बीत गया। फिलहाल वे देहरादून में है, मैं रायपुर में। हमारा बचपन बैलाडीला में साथ-साथ बीता। हमने अपनी स्मृति के बस्तर की सैर की। पाया कि ये बस्तर उस बस्तर जैसा तो बिलकुल नहीं है। बस्तरिया की जिंदगी में अब बारूद ही बारूद है। बस्तर में शांति की स्थापना की दुआ के साथ यह कविता। राजीव को आभार सहित। इस बारूद के खाद में बदलने की कामना के साथ।
रविवार, 6 नवंबर 2011
असुर ही नहीं बचेंगे तो इस बोली की जरुरत किसे होगी
सुनील शर्मा जशपुर से लौटकर
सादरी और कुड़ुख के लोकगीतों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि महाभारत के युद्ध के लिये हथियारों का निर्माण असुरों ने किया था. रामायण में तो असुरों को बजाप्ता युद्ध करने वाला बताया जाता है लेकिन किस्से कहानियों और धर्मग्रंथों से अलग आज की तारीख में असुर अपनी ज़िंदगी की लड़ाई हार रहे हैं. पिछले कुछ सालों में उनकी आबादी लगातार कम होती जा रही है. जाहिर है, जिस रफ्तार के साथ असुरों की आबादी सिमट रही है, उसमें अब ये सवाल खड़ा होने लगा है कि क्या असुरों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा ?
आज की तारीख में छत्तीसगढ़ में असुरों की कुल आबादी केवल 305 है. आदिवासी बहुल जशपुर के मनोरा तहसील के दोनापाट, बुरजूपाट, जरहापाट, हाड़ीकोना और घुईपाट नामक पांच गांवों में सिमटी हुई इस जनजाति का हाल यह है कि सरकार इस जनजाति को उन संरक्षित जनजातियों की श्रेणी में शामिल नहीं करना चाहती, जिन्हें विशेष संरक्षण और सुविधाएं प्राप्त हैं. सैकड़ों सालों से जशपुर के इस इलाके में रहने वाले असुरों को झारखंड में विशेष संरक्षित जनजाति की श्रेणी में रखा गया है. लेकिन छत्तीसगढ़ में ये उपेक्षित हैं. 1872 में जब देश में पहली जनगणना हुई थी, तब जिन 18 जनजातियों को मूल आदिवासी श्रेणी में रखा गया था, उसमें असुर आदिवासी पहले नंबर पर थे, लेकिन इन डेढ़ सौ सालों में जैसे इस आदिवासी समुदाय को भुला दिया गया.
छत्तीसगढ़ में अबुझमाड़िया, बैगा, बिरहोर, पहाड़ी कोरवा और कमार यानी कुल पांच संरक्षित जनजातियां है. 67 हजार से भी कहीं अधिक आबादी वाले बैगा तो संरक्षित जनजातियों में शामिल हैं लेकिन महज 305 लोगों की असुर जनजाति को गोंड, मारिया, दोरला, मुरिया, हिल माड़िया, बायसन हार्न माड़िया के साथ श्रेणीबद्ध कर दिया गया है. जाहिर है, असुविधाओं की मार झेलने वाले असुर लगातार कम होते जा रहे हैं. कुल 305 असुरों में से अब पुरानी पीढ़ी के कुछ ही लोग हैं, जो असुर बोली बोलते हैं. कुड़ूख या उरांव से भिन्न कुड़ुख बोली के अस्तित्व पर भी अब प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है.
वैसे दोनापाट के एक बुजुर्ग असुर आदिवासी इस सवाल का अपने ही तरीके से जवाब देते हैं- “हम असुर ही नहीं बचेंगे तो इस बोली की जरुरत किसे होगी ? हमारी बोली का बचना अब मुश्किल है.”
लेकिन हमारे जैसे शहरों में रहने वालों के लिये तो दोनापाट पहुंचना ही सबसे मुश्किल काम लगता है. इन गांवों में पहुंचना इतना सरल भी तो नहीं है. पाट पर बसे इन गांवों में जाने के लिए पहाड़ के बेहद खराब रास्ते को चुनना ही एकमात्र विकल्प है और उसमें भी इस बात की कतई गारंटी नहीं कि वहां तक सही सलामत पहुंचा ही जा सकता है. अगर हाथी से भेंट हो गई तो...?
मनोरा तहसील मुख्यालय से बेहद खराब रास्ते से गुजरते हुए असुरों का सबसे पहला गांव पड़ता है दोनापाट. यह एक छोटा सा गांव है जहां महज सात घर असुरों के हैं. घर क्या मिट्टी और घास-फूस की झोपड़ियां है.
सरहुल को छोड़ दें तो इनके जीवन में साल भर कोई उत्सव नहीं होता. बाकी दिन तो ये अपनी समस्याओं से ही घिरे रहते है. सरहुल के मांदर की थाप थमने के साथ ही मुश्किलें अपने तरीके से हमला बोलने लग जाती हैं. बारिश शुरू होते ही ये मलेरिया, हैजा जैसी बीमारियों से लड़ने लगते हैं और अपनी जान खोने लगते हैं. बीमार पड़ने पर परडीकांदा और करौंदाजरी खा कर ही इलाज करना इनकी नियती है. बच गये तो ठीक वरना तो... !
वैसे दोनापाट के परशु असुर इस मामले में भाग्यशाली हैं. परशु असुर को हर साल मलेरिया अपनी चपेट में ले लेता है लेकिन वह बजरंगबली की ही कृपा मानते हैं कि अब तक जिंदा हैं. वे कहते हैं- “हमें इंसान नहीं समझा जाता साहब. क्या करें ? कई बार मरते-मरते बचा हूं. डाक्टर इलाज में आनाकानी करते हैं और कई बार तो भगा भी देते हैं. बच्चों को पालने की जिम्मेदारी नहीं होती तो मौत को गले लगा लेता.”
परशु अकेले नहीं हैं, जिन्हें बीमारी हर साल जकड़ लेती है. इन असुरों के परिवार में कोई न कोई सदस्य हमेशा बीमार रहता है. बीमारी से जानें भी जाती रहती हैं.
परशु बताते हैं- "हमारे पांच गांवों में हर साल बीमारी से दस-पंद्रह की मौत हो जाती है. मरने वालों में बुजुर्गों के अलावा बच्चे और युवा भी होते हैं. हमारी पंचायत बैठती है तो हम इस बात की चिंता भी करते हैं लेकिन किया भी क्या जा सकता है.’’
गंभीर बीमारियों से मौत एक सामान्य बात है लेकिन सामान्य बीमारियों से मौत होना गंभीर. पर यहां पिछले कई सालों से यह सिलसिला जारी है. हालांकि वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा यहां मेडिकल कैंप लगाया जाता है लेकिन एक कैंप में सबका इलाज हो सके यह संभव भी नहीं.
इन असुर आदिवासियों में अधिकतर बच्चे कुपोषित हैं. उसका एकमात्र कारण है संतुलित भोजन का अभाव. वनविभाग के अधिकारी इन्हें जंगल के भीतर घुसने नहीं देते. पाट का इलाका होने के कारण खेतों में कोदो, ज्वार और आलू के अलावा कुछ नहीं उगता. उस पर हाथियों का आतंक. हाथी इनके मकान तो तोड़ते ही हैं, फसल को भी नष्ट कर देते हैं. हाथियों के कारण क्षतिग्रस्त मकान, खराब हुई फसल और विकलांग हो चुके लोगों को पिछले चार सालों से मुआवजा भी नहीं मिला है.
बुरजूपाट के गोविंद दयानंद युवा हैं और वे यहां नहीं रहना चाहते पर वृद्ध मां-बाप को छोड़कर नहीं जा सकते. वे कहते हैं - ‘’ हमारे चारो तरफ केवल मौत है. चारे की तलाश में भटकते हाथी हों, सरकारी तंत्र की उपेक्षा हो, मौसम की मार हो या फिर बीमारियों का खतरा. लगता है जीवन के सारे दुख हमारे ही हिस्से में हैं. कुछ काम भी तो नहीं है हमारे पास, जिससे हम जिंदा रह सकें.’’
दस्तावेजों को देखें तो पता चलता है कि छत्तीसगढ़ के इलाके में 19वीं शताब्दी के शुरुवात में 441 आदिवासी परिवार घरेलू भट्ठियों में आयरन ओर को गला कर लोहे के सामान बनाते थे. पोला यानी मैग्नेटाइट, बिची यानी कोयले से निकला हेमेटाइट और गोटा यानी लेटेराइट से निकला हेमेटाइट को बेहतर तरीके से जानने वाले और आयरन ओर को गला कर लोहा बनाने व उनसे तरह-तरह की जरुरत का सामान बनाने में असुर आदिवासियों को महारत हासिल था और समाज में इनका विशिष्ठ स्थान था. लेकिन आधुनिक सभ्यता में कल कारखानों और आधुनिक मशीनों के प्रवेश के साथ ही असुरों का यह कौशल हाशिये पर जाने लगा. आज़ादी के बाद भी असुर अपना कार्य-व्यापार किसी तरह चलाते रहे लेकिन धीरे-धीरे उनके काम को नई मशीनों ने बेदखल कर दिया. अब इन असुरों के पास लोहे की स्मृतियां और उससे जुड़े किस्से ही बचे हैं.
योजना आयोग के दस्तावेजों में असुर आदिवासियों को ‘शिल्पकार’ कहा जाता है लेकिन अब कहां का शिल्प और कैसे शिल्पकार. हालांकि अभी भी गांव के कुछ बड़े-बुढ़े आयरन ओर के टुकड़ों को कभी-कभार गला कर अपनी जरुरत का कुछ सामान बनाते हैं लेकिन अब यह आजीविका का कार्य नहीं है. आजीविका क्या है, यह एक बड़ा सवाल है. इन असुरों के खेत इस लायक नहीं हैं कि उसमें कुछ खास उपजाया जा सके. खेतों में सिंचाई की सुविधा नहीं है. बड़ी मुश्किल से कुछ उपजा तो वह खाने-पकाने में ही खत्म हो जाता है.
घुईपाट के टोपरी, रीझू, डीमू, शिबू, बिवसा, ठेरहा और टीपान अपने परिवार के मुखिया हैं. गांव पहुंचते ही ये अपनी समस्याएं बताने पहुंच जाते हैं. इन सबके पास समस्याओं की लंबी फेहरिस्त है. यह पता चलने पर कि मैं केवल उनकी बात अखबारों में लिख सकता हूं, सबकी आंखों में गहरी निराशा झलकती है पर चेहरे पर फीकी हंसी भी.
गांव के टीपान बताते हैं- ‘’ हम अपने बुर्जुगों को दिये गये वचन से यदि बंधे नहीं होते तो कभी के यहां से चले गये होते. मरने के लिए यहां कौन रहता ? न यहां शिक्षा की व्यवस्था है और न स्वास्थ्य का. फसल उगाकर भी क्या करेंगे. हाथी चट कर जाते हैं. रात में नींद भी नहीं आती, पता नहीं कब हाथी आ जाये और हमारे कच्चे मकानों को तोड़ दे और हमे मार डाले !’’
संतुलित भोजन तो छोड़िये असुरों को भरपेट खाना भी मुश्किल से नसीब होता है. बुरे वक्त में भोजन के लिए भूखों न मरना पड़े, इसके लिए ये अग्रिम तैयारी भी रखते हैं. दोनापाट के भीकम असुर का घर बाहर से भले ही झोपड़ी की तरह दिखाई देता है लेकिन वह अपनी बिरादरी में अभी सबसे संपन्न हैं. क्योंकि उनके पास दो महीने का राशन जो है.
और खाद्य के बाद इनके रोजगार पर जब नजर जाती है तो दूर-दूर तक कुछ दिखाई नहीं देता. चालीस परिवारों में से बीस के पास ही महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना का जॉब कार्ड है लेकिन जॉब किसी के पास नहीं.
रामकिशुन बताते हैं- “रोजगार गारंटी में नाम जोड़ लिया गया है लेकिन कुछ काम यहां हुआ नहीं. बहुत पहले भूमि सुधार का काम हुआ था और कुछ दिन काम भी मिला था लेकिन मजदूरी के लिए चार महीने इंतजार करना पड़ा था. इसके बारे में पूछने पर बस इतना कहते है, जब पैसा आएगा तब तो काम मिलेगा.”
हालांकि यह सब होने पर भी इन आदिवासियों ने शिक्षा के महत्व को समझा है और सबकी कोशिश है कि बच्चे किसी तरह पढ़-लिख जायें. दोनापाट के शिवचरण और उसके भाई भीखम तो बजाप्ता ग्रेजुएट हैं. मनोज बारहवीं पास है. जगसाय असुर को शिक्षाकर्मी वर्ग तीन की नौकरी भी मिली है. वह अकेला व्यक्ति है, जो अपने पूरे असुर समाज में नौकरी पर है.
लेकिन यह इन असुरों की आधी तस्वीर है. तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि रोजी-रोटी की अनिश्चिंतता के कारण अधिकांश असुर निरक्षर है. दोनापाट और सीकरी के स्कूलों में लटकते ताले असुरों के बीच शिक्षा की स्थिति को उजागर करते हैं. दोनापाट में पहली से पांचवीं तक 12 बच्चे पढ़ते हैं, इनमें असुर बच्चों की संख्या महज पांच है. जबकि इस गांव में पच्चीस से अधिक बच्चे है. शिक्षक शैलेंद्र सोनी कहते है - ‘’ बार-बार बुलाने पर भी न तो बच्चे आते हैं और न उनके माता-पिता उन्हें स्कूल भेजते हैं. वे सीधे कहते है, पढ़-लिखकर क्या करेंगे.’’
जशपुर के पत्रकार विश्वबंधु शर्मा कहते हैं ‘’ शिक्षक शैलेंद्र की बातों में सच्चाई है लेकिन सवाल इस बात का है कि क्या इसके लिए अकेले असुर दोषी है. शासन की शिक्षा संबंधी योजनाएं यहां आज तक नहीं पहुंची हैं. साल में बमुश्किल सौ दिन खुलने वाले स्कूल चालू कर देने से और स्कूल चलें हम का नारा दे देने से सरकार का बच्चों के प्रति दायित्व पूरा नहीं हो जाता.’’
जनता को भूख और शोषण का शिकार बनाने के लिये जो मसौदा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तौर पर बनाया गया था, उसकी जमीनी हकीकत असुरों के इन गांवों में देखी जा सकती है. छत्तीसगढ़ में भी ज्यादातर असुर परिवार इस लाभ से वंचित है. दोनापाट में सात परिवार है लेकिन केवल दो के पास ही बीपीएल कार्ड है, पांच घरों में आज भी कोदो पकता है. दोनापाट के साथ ही अगर सभी असुर परिवारों को लें जिनकी संख्या चालीस के करीब है तो इनमें से महज दस के पास ही ये कार्ड है. शेष आज भी सस्ते सरकारी चावल से वंचित हैं. यहां न खाद्य की सुरक्षा है और न जीने की गारंटी .
असुरों के बीच कोदो खाने के एक बड़े कारण की ओर ध्यान खींचते हुए परशु बताते हैं कि इस इलाके में हाथियों का आतंक है और हाथी मकानों के धान और अन्य फसल को भी बर्बाद कर देते हैं लेकिन कोदो की फसल को नुकसान नहीं पहुंचाते. इसका कारण पूछने पर परशु कहते है कि कोदो से निकनले वाली एक विशेष गंध की वजह से हाथी इसके आसपास भी नहीं फटकते. इसलिए कोदो लगाते हैं और उसे ही भोजन के रूप में खाते हैं.
लेकिन अकेले कोदो इनके जीवन की रक्षा करने में सक्षम नहीं है और जो चीजें इनका जीवन बचा सकती हैं, वो इनकी पहुंच से दूर हैं.
रामकिशुन बताते हैं- “रोजगार गारंटी में नाम जोड़ लिया गया है लेकिन कुछ काम यहां हुआ नहीं. बहुत पहले भूमि सुधार का काम हुआ था और कुछ दिन काम भी मिला था लेकिन मजदूरी के लिए चार महीने इंतजार करना पड़ा था. इसके बारे में पूछने पर बस इतना कहते है, जब पैसा आएगा तब तो काम मिलेगा.”
हालांकि यह सब होने पर भी इन आदिवासियों ने शिक्षा के महत्व को समझा है और सबकी कोशिश है कि बच्चे किसी तरह पढ़-लिख जायें. दोनापाट के शिवचरण और उसके भाई भीखम तो बजाप्ता ग्रेजुएट हैं. मनोज बारहवीं पास है. जगसाय असुर को शिक्षाकर्मी वर्ग तीन की नौकरी भी मिली है. वह अकेला व्यक्ति है, जो अपने पूरे असुर समाज में नौकरी पर है.
लेकिन यह इन असुरों की आधी तस्वीर है. तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि रोजी-रोटी की अनिश्चिंतता के कारण अधिकांश असुर निरक्षर है. दोनापाट और सीकरी के स्कूलों में लटकते ताले असुरों के बीच शिक्षा की स्थिति को उजागर करते हैं. दोनापाट में पहली से पांचवीं तक 12 बच्चे पढ़ते हैं, इनमें असुर बच्चों की संख्या महज पांच है. जबकि इस गांव में पच्चीस से अधिक बच्चे है. शिक्षक शैलेंद्र सोनी कहते है - ‘’ बार-बार बुलाने पर भी न तो बच्चे आते हैं और न उनके माता-पिता उन्हें स्कूल भेजते हैं. वे सीधे कहते है, पढ़-लिखकर क्या करेंगे.’’
जशपुर के पत्रकार विश्वबंधु शर्मा कहते हैं ‘’ शिक्षक शैलेंद्र की बातों में सच्चाई है लेकिन सवाल इस बात का है कि क्या इसके लिए अकेले असुर दोषी है. शासन की शिक्षा संबंधी योजनाएं यहां आज तक नहीं पहुंची हैं. साल में बमुश्किल सौ दिन खुलने वाले स्कूल चालू कर देने से और स्कूल चलें हम का नारा दे देने से सरकार का बच्चों के प्रति दायित्व पूरा नहीं हो जाता.’’
जनता को भूख और शोषण का शिकार बनाने के लिये जो मसौदा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तौर पर बनाया गया था, उसकी जमीनी हकीकत असुरों के इन गांवों में देखी जा सकती है. छत्तीसगढ़ में भी ज्यादातर असुर परिवार इस लाभ से वंचित है. दोनापाट में सात परिवार है लेकिन केवल दो के पास ही बीपीएल कार्ड है, पांच घरों में आज भी कोदो पकता है. दोनापाट के साथ ही अगर सभी असुर परिवारों को लें जिनकी संख्या चालीस के करीब है तो इनमें से महज दस के पास ही ये कार्ड है. शेष आज भी सस्ते सरकारी चावल से वंचित हैं. यहां न खाद्य की सुरक्षा है और न जीने की गारंटी .
असुरों के बीच कोदो खाने के एक बड़े कारण की ओर ध्यान खींचते हुए परशु बताते हैं कि इस इलाके में हाथियों का आतंक है और हाथी मकानों के धान और अन्य फसल को भी बर्बाद कर देते हैं लेकिन कोदो की फसल को नुकसान नहीं पहुंचाते. इसका कारण पूछने पर परशु कहते है कि कोदो से निकनले वाली एक विशेष गंध की वजह से हाथी इसके आसपास भी नहीं फटकते. इसलिए कोदो लगाते हैं और उसे ही भोजन के रूप में खाते हैं.
लेकिन अकेले कोदो इनके जीवन की रक्षा करने में सक्षम नहीं है और जो चीजें इनका जीवन बचा सकती हैं, वो इनकी पहुंच से दूर हैं.
(रविवार डाट काम से सभार)http://raviwar.com/news/630_asur-tribe-in-chhattisgarh-sunil-sharma.shtml
सुनील शर्मा के बारे में
पिछले आठ वर्षों से पत्रकारिता के क्षेत्र में. इन दिनों वेब पत्रिका www.raviwar.com में विशेष संवाददाता के तौर पर कार्य. दैनिक भास्कर, दैनिक हरिभूमि, तरुण पथ, दैनिक अखबारो में उप संपादक व मासिक पत्रिका जंगल बुक में कार्यकारी संपादक रहते हुए कृषि, वन, आदिवासी जनजीवन और मानवाधिकार के मुद्दे पर लगातार रिपोर्टिंग. सूचना के अधिकार और वन अधिकार के मुद्दे पर विशेष काम. भारत-पाक क्रिकेट मैच, देश के कई महत्वपूर्ण खिलाड़ियों . कुछ वैवाहिक कुप्रथाओ, महिलाओ की हालत सहित कृषि और आदिवासी मुद्दों पर कुछ शोधपरक रिपोर्ट. राज्य सरकार की नीतियों की समीक्षा. पंचायत चुनाव पर श्रृंखलाबद्ध फीचर. दैनिंदन रिपोर्ट्स के अलावा आंचलिक इलाकों से आने वाली खबरों का संपादन. समय-समय पर विशेष समाचारों की योजना.देश के अलग अलग इलाको से आने वाले आलेख,रिपोर्ट्स का संपादन,जल संकट, वन रिजर्व एरिया और अन्य मुद्दों पर कवर स्टोरी कुछ साक्षातकार भी. आदिवासी मुद्दों पर स्तम्भ लेखन. खेल, शिक्षा, कृषि, अन्धविश्वास, आदिवासी विकास, के साथ ही पर्यावरण और साहित्य की रिपोर्ट. बाल शिक्षा, कुपोषण पर कुछ रिपोर्ट्स का प्रकाशन.
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