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गुरुवार, 10 नवंबर 2011

आई एम सारी

कुछ लघुकथाएं

सारी-1


‘आपने मेरी गाड़ी को पीछे से क्यों ठोंका?’
‘‘सारी!’’
‘क्या सारी? मेरी गाड़ी की बैकलाइट फूट गयी।’
‘‘मैंने कहा ना सारी।’’
‘अरे आप तो सारी ऐसे कह रहे हैं, जैसे अहसान कर रहे हों।’
‘‘अबे साले जब से सारी बोल रहा हूँ। तेरे को समझ में नहीं आता है क्या? बताऊँ क्या तेरे को?’’
‘मुआफ़ कीजियेगा भाई-साहब ग़लती मेरी ही थी। दरअसल मैं ही आपकी गाड़ी के सामने आ गया था...सारी।’
सारी-2


आफिस पहुँचने की ज़ल्दी में वह तेज़-तेज़ क़दमों से फ़ुटपाथ पर चला जा रहा था कि अचानक एक व्यक्ति से टकरा गया । अपनी ग़लती उस पर थोपने की गरज़ से उसने उलटे उसे ही फटकारना शुरू कर दिया-‘‘अंधे हो क्या ? देखकर नहीं चल सकते ।’’
मुआफ़ कीजियेगा भाईसाहब मेरा ध्यान कहीं और था...पर साहब मैं अंधा नहीं हूँ...उस व्यक्ति ने कांपते हाथों से अपनी लाठी और काला चश्मा टटोलते हुए कहा ।


सारी-3


‘‘और क्या कर रहे हो भई आजकल...?’’ प्रश्नकर्ता ने प्रश्न किया
‘जी बेरोज़गार हूं अंकल अभी तो...।’ उसने सर झुकाये अपनी टूटी चप्पलों की ओर देखते हुए अपराधबोध से कहा।
‘‘मेरा लड़का तो अपने धंधे से लग गया है...अच्छा कमा खा रहा
है...।’’ प्रश्नकर्ता ने बताया ।
‘तो...? तो मैं क्या करूं...? आप जानबूझकर मेरे जख़्मों पर नमक़ छिड़कते हैं...।’ उसने अवसाद  में कहा ।
‘‘मेरा ऐसा तो उद्देश्य नहीं था ।’’ कहते हुए प्रश्नकर्ता के अधरों पर कुटिल मुस्कुराहट आ गयी ।


सारी-4
मैं अपने बच्चे को नर्सरी में एडमिशन दिलाने स्कूल ले गया। स्कूल की प्रिसिपल ने चहकर मुझसे पूछा-अरे आप लोग तो महाराष्ट्रीयन है। हम लोग भी महाराष्ट्रीयन हैं। बातों ही बातों में उसने घुमा-फिराकर मेरी जाति पूछ ली और फिर उसने दर्प के साथ मुझसे कहा हम तो मराठी ब्राहमण हैं। ऐसा कहते हुए उसके व्यवहार में अचानक कठोरता आ गयी। चार-पाँच दिनों बाद मैं देख रहा हूँ कि शराब पीकर मेरे घर के पास नाली में एक आदमी पड़ा हुआ है। लोग उसे घृणा से देखकर निकल रहें हैं। तभी वह प्रिंसपल आती है, और उसे उठाने की कोशिश करती है। फिर असफल होने पर मुझसे कहती है-बेटा ये मेरे पति हैं। इन्हें घर तक पहुंचाने में ज़रा मेरी मदद कर दो। उस दिन के बाद से वह मेरे घर के सामने से नज़रें नीची करके गुजरती है। जाति दर्प न जाने कहाँ छू हो गया है।


-आलोक कुमार सातपुते