रविवार, 19 दिसंबर 2010

अग्निवेश पर आचार्य धर्मेंद्र की अग्निवर्षा

 रपट-मनोज व्यास
रिपोर्ट -मनोज व्यास
हिंदूवादी नेता आचार्य धर्मेन्द्र महाराज ने रविवार को रायपुर में पत्रकारों से चर्चा करते हुए कहा कि अग्निवेश कामरेडों के दलाल हैं। उन्होंने कहा कि नक्सलियों की वकालत करने वालों पर केंद्र सरकार को कार्रवाई करनी चाहिए, लेकिन कांग्रेस के नेता नक्सलियों के खिलाफ बोलने से भी डरते हैं। श्री हनुमंत जागरण समिति के तत्वावधान में आयोजित धर्मसभा को संबोधित करने पहुंचे आचार्य धर्मेन्द्र  राज्य अतिथि गृह पहुना में पत्रकारों से चर्चा कर रहे थे। इस दौरान नक्सवाद के मुद्दे पर उन्होंने कांग्रेस नेताओं सहित तथाकथित नक्सल समर्थकों पर जमकर तीर बरसाए। स्वामी अग्निवेश को उन्होंने सीधे तौर पर नक्सलियों का दलाल कहा। आचार्य ने अरुंधति राय को भी अपने निशाने पर लिया और कहा कि बेकसूर स्लीमा पर प्रतिबन्ध लगाए जा रहे हैं और अरुंधति खुले में घूम रही है। उन्होंने कहा कि केंद्रीय रेल  मंत्री ममता बैनर्जी नक्सालियों की वकालत करती है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी और बाबा रामदेव को उन्होंने छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में कुछ दिन रहने की चुनौती दी है।

लालाजी का भीतर और बाहर सबकुछ निर्मल और पारदर्शी जल जैसा

हरिहर वैष्णव
प्रायः ऐसा होता है कि हमें किसी को जानने के लिये उसका गहन अध्ययन करना पड़ता है। उसे बहुत करीब से और भीतर तक पढ़ना पड़ता है। और इस प्रक्रिया में एक लम्बा समय निकल जाता है। कभी-कभी तो पूरा का पूरा जीवन ही निकल जाता है और हम कुछ लोगों को समझ ही नहीं पाते। कोई बाहर से कुछ होता है तो भीतर से कुछ और। आप पढ़ते कुछ हैं और लिखा कुछ और ही होता है। .... और आपका अध्ययन बेकार हो जाता है। लेकिन यदि मैं यह कहूँ कि ऐसे लोगों में लालाजी, यानी बस्तर के यशस्वी और तपस्वी साहित्यकार लाला जगदलपुरीजी को शुमार करना उचित नहीं होगा तो मैं कहीं गलत नहीं होऊँगा। कारण, लालाजी का बाह्य और अन्तर दोनों एक समान है। उनका व्यक्तित्व पारदर्शी है। उन्हें पढ़ने के लिये न तो आपको घंटों लगेंगे, न दिन और महीने या साल। केवल कुछ पल... और लालाजी का भीतर और बाहर सबकुछ आपके सामने किसी झरने के निर्मल और पारदर्शी जल जैसा झलकने लगेगा। जो कुछ उनके लेखन में है, वही उनके व्यक्तित्व में भी। लेखन खरा है तो व्यक्तित्व भी खरा। इसीलिये उन्हें समझना बहुत ही सहज है।

बात १९७२-७३ की होगी। मैं बी.ए. प्रथम वर्ष का छात्र था। यों तो कविताएँ मैं १९७०-७१ से लिखने लगा था किन्तु प्रकाशन के नाम पर शून्य था। तो मैंने अपनी 'धनाकर्षण' शीर्षक एक कविता जगदलपुर से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र ‘अंगारा' में प्रकाशनार्थ भेज दी और सुखद आश्चर्य! कि वह कविता उस पत्र में प्रकाशित हो गयी। यह मेरा पहला प्रकाशन था। प्रकाशन के कुछ ही दिनों के भीतर उसके सम्पादक का पत्र भी मिला। सम्पादक थे लाला जगदलपुरी जी। नाम तो बहुत सुना था किन्तु उनके दर्शन का सौभाग्य तब तक नहीं मिल पाया था। उनका पत्र पा कर हौसला बढ़ा। एक दिन मैं अपने मित्र भाई केसरी कुमार सिंह के साथ उनके दर्शन करने पहुँच गया। उन्होंने यह जान कर कि उस कविता का कवि मैं हूँ, मेरी पीठ थपथपायी और कहा, अच्छी रचना है। लिखते रहो। आगे और अच्छा लिखोगे, ऐसा मेरा विश्वास है।' मेरे लिये उनका यह आशीर्वाद किसी अनमोल रत्न से कम नहीं था। आज भी कम नहीं है। और उसके बाद लालाजी से सम्पर्क का सिलसिला चल निकला। मेरी कई रचनाओं के परिमार्जन में लालाजी ने पूरे मन से समय दिया। भी कुछ वर्षों तक भी वे उसी दुलार और स्नेह के साथ मेरी रचनाओं को ठीकठाक करने में अपना महत्त्वपूर्ण समय देते रहे हैं। यह मेरे लिये न केवल सौभाग्य अपितु गौरव की भी बात है। यहाँ यह कहना ज्यादा समीचीन होगा कि वे प्रत्येक उस रचनाकार की रचना को बड़े ही ममत्व से पढ़ते और उस पर अपना रचनात्मक सुझाव देते हैं, जो उनसे अपनी रचना को देख लेने का आग्रह करता है। ऐसे रचनाकारों में सुप्रसिद्घ आलोचक डॉ. धनञ्जय वर्मा, सुरेन्द्र रावल, योगेन्द्र देवांगन, लक्ष्मीनारायण पयोधि और त्रिलोक महावर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। यह अलग बात है कि ऐसे रचनाकारों में से कई उनके इस अवदान को भुला चुके हैं। किन्तु इसमें लालाजी का भला क्या दोष?

किन्तु वे दोषी हैं। और उनका दोष यह है कि वे निर्दोष हैं। सच ही तो है, निर्दोष होना ही तो आज के युग में दोष है। वे निर्लिप्त हैं, प्रचारप्रसार से कोसों नहीं बल्कि योजनों दूर रहने में भरोसा करते हैं। वे दोषी इस बात के भी हैं कि वे सरकारी सुविधायें नहीं झटक सके जबकि उनके चरणों की धूलि से भी समानता करने में अक्षम लोगों ने सारी सरकारी सुविधाएँ बटोर लीं। यदि स्वाभिमानी होना गलत है, तो वे गलत हैं। कारण, स्वाभिमान तो उनमें कूटकूट कर भरा है। साहित्य की साधना करना दोष है तो वे दोषी हैं, क्योंकि वे तो साहित्यसाधक हैं; तपस्वी हैं। एकनिष्ठ होना यदि दोष है तो वे दोषी हैं, क्योंकि उनका एकमात्र उद्यम है साहित्यसाधना। साहित्य की राजनीति और गुटबाजी से पने आप को दूर रख कर रचनाकर्म में लगे रहना यदि दोष है तो लालाजी दोषी हैं, क्योंकि न तो उन्होंने साहित्य की राजनीति को पने पास फटकने दिया और न गुटबाजी की दुर्गन्ध की ओर कभी नाक ही दी। अपने आप को प्रगतिशील, जनवादी और न जाने किनकिन अलंकरणों से सुसज्जित करने में लगे कुछ नौसीखियों की दृष्टि में लालाजी बुर्जुवा हैं। लेकिन ऐसे महानुभावों को सम्भवतः यह पता नहीं कि लालाजी कितने प्रगतिशील और जनवादी हैं। ऐसे लोगों की बुद्घि पर गुस्सा नहीं मात्र तरस आती है। गीदड़ यदि शेर की खाल ओढ़ ले तो थोड़ी देर के लिये भ्रम की स्थिति तो निर्मित हो सकती है किन्तु क्या वह इतने से ही शेर बन सकता है? लालाजी तो शेर हैं। उनकी खिल्ली गीदड़ उड़ा लें तो क्या फर्क पड़ता है भला?

जगदलपुर की सड़कों पर छाता लिये, धोती का एक सिरा उँगलियों के बीच दबा पैदल घूमते लालाजी का मन हुआ तो घुस गये किसी होटल में नाश्ता करने के लिये ऑर मन हुआ तो वहीं सड़क के किनारे खोमचे के पास खड़ेखड़े ही कुछ खा पी लिया। शहर में एक छोटे से बच्चे से ले कर बड़े बूढ़े तक सभी तो पहचानते हैं उन्हें। यह अलग बात है कि पढ़े लिखे लोग लालाजी और अनपढ़ से लोग लाला ‘डोकरा' के नाम से जानते हैं। कुछ वर्षों पूर्व स्कूटर पर से गिर जाने के बाद से वे प्रायः पैदल नहीं चलते। रिक्शे से आते जाते हैं। शहर के सारे रिक्शे वाले उनके घर से भली भाँति परिचित हैं और एक बँधी बँधायी किन्तु रियायती रकम ही उनसे लेते हैं। इस तरह रिक्शे वाले भी उनके प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित करते हैं। संवेदनशील इतने कि आज ९१ वर्ष की आयु में भी उन्हें अपनी माता की याद सताती है। वे अपनी स्वर्गीया माता को याद करके किसी शिशु की तरह भावविह्वल हो जाते हैं। दूसरों का ध्यान इतना अधिक रखते हैं कि कोई सगा भी क्या रखता होगा। अभी पिछले वर्ष नवम्बर में मैं जब उनसे मिला था तो वे अपनी स्मरणशक्ति के क्षीण होते जाने को ले कर बहुत परेशान थे। उनकी परेशानी यह थी कि यदि किसी ने उन्हें देख कर नमस्कार किया तो उन्होंने उस नमस्कार का जवाब दिया या नहीं। वे कहने लगे थे, मैं व्यथित हो जाता हूँ जब मुझे यह स्मरण नहीं रहता कि मैंने मेरा अभिवादन करने वाले महानुभाव को उसके अभिवादन का प्रत्युत्तर दिया अथवा नहीं। एक अपराध बोध होता है और आत्मा कचोटती है कि यदि मैंने नमस्कार का जवाब नमस्कार से नहीं दिया तो यह अवश्य ही उस व्यक्ति का मेरे -द्वारा किया गया अपमान ही होगा। मैं इसी बात को ले कर चिन्तित रहा करता हूँ।'
साक्षात्कारों से लालाजी प्रायः दूर रहते आये हैं। उनका कहना रहा है कि साक्षात्कार ले कर कोई क्या करेगा? आप हमसे रचनाएँ लीजिये। साक्षात्कार में क्या रखा है?' वे कहते हैं।

वर्षों पूर्व बस्तर पर पुस्तक लिखने के लिये एक तथाकथित और स्वयंभू साहित्यकार को मध्यप्रदेश शासन ने किसी प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारीसी सारी सुविधाएँ और धनराशि मुहैया करवायी किन्तु उन्होंने क्या और कैसा लिखा, आज तक कोई नहीं जानता। किन्तु सुविधाओं और आर्थिक सहायता के बिना लालाजी ने बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति' तथा बस्तर लोक : कला एवं संस्कृति', बस्तर की लोक कथाएँ', बस्तर की लोकोक्तियाँ', हल्बी लोक कथाएँ', आंचलिक कविताएँ', मिमियाती ज़िंदगी दहाड़ते परिवेश' आदि महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का प्रणयन कर यह सिद्घ कर दिया कि शासकीय सहायता के बिना भी काम किया जा सकता है। और किसी भी तरह की सहायता का मुखापेक्षी होना सृजनात्मकता को निष्क्रिय कर देता है। यही कारण है कि राजकीय सहायता का मुखापेक्षी होना लालाजी को कभी रास नहीं आया। राजभाषा एवं संस्कृति संचालनालय से मिलने वाली सहायता राशि के सन्दर्भ में प्रतिवर्ष माँगे जाने वाले जीवन प्रमाणपत्र के विषय में लालाजी ने स्पष्ट कह दिया था कि उनसे उनके जीवित होने का प्रमाणपत्र न माँगा जाये। शासन उन्हें जीवित समझे तो सहायता राशि दे अन्यथा बन्द कर दे। उनका कहना था कि सहायता माँगने के लिये उन्होंने शासन से कोई याचना नहीं की थी और न करेंगे। वे कहते हैं कि उनकी अर्थव्यवस्था आकाश वृत्ति पर निर्भर करती है।

पिछले कुछ वर्षों से वे मौन साध लेने को अधिक उपयुक्त मानने लगे हैं। मैंने काफी दिनों से उनका कोई पत्र न आने पर जब उनसे शिकायत की तो उन्होंने मुझे अपने दिनांक १८.०१.०४ के पत्र में लिखा : ....परिस्थितियों ने इन दिनों मुझे मौन रहने को बाध्य कर दिया है। चुप्पी ही विपर्यय की महौषधि होती है। मेरे मौन का कारण तुम नहीं हो।'

कोई रचना उन्हें भा जाये तो रचनाकार की तारीफ करने में वे कंजूसी बिल्कुल ही नहीं करते। बस्तर की वाचिक परम्परा पर केन्द्रित मेरी पुस्तकों के विषय में उन्होंने अपने एक पत्र में लिखा, बस्तर के लोक साहित्य को समर्पित तुम्हारे चिन्तन, लेखन और प्रकाशन की सारस्वतसेवा का मैं पक्षधर और प्रशंसक हूँ। बधाई शुभकामनाएँ।'' आज जब हम थोथी आत्ममुग्धता के चरम पर हैं और दूसरों की सृजनात्मकता और उपलब्धि हमारे लिये सबसे बड़ा दुःख का कारण हो गयी हैः लालाजी की यह औदार्यपूर्ण प्रतिक्रिया मायने रखती है।

लालाजी ने जो कुछ लिखा उत्कृष्ट लिखा। बस्तर की संस्कृति और इतिहास पर कलम चलायी तो उसकी प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगे ऐसी सम्भावना से भी उसे छूता रखा। यही कारण है कि उनके बस्तर सम्बन्धी लेखों की प्रायः चोरी होती रही है। चोरों में बड़े नाम भी शामिल रहे हैं। नामोल्लेख के बिना कहना चाहूँगा कि यह चोरी लगातार और धड़ल्ले से होती रही है। आज भी जारी है। भी पिछले वर्ष एक महाविद्यालय द्वारा प्रकाशित तथाकथित ग्रन्थ में भी बस्तर दशहरा पर लालाजी का पूर्व प्रकाशित लेख जस का तस किसी और ने चुरा कर अपने नाम से प्रकाशित करा लिया है। ऐसी ही चोरियों के सन्दर्भ में जब मेरी उनसे बातचीत हो रही थी तब लालाजी कहने लगे थे, हमें इस बात का गौरव है कि हमने कुछ ऐसा लिखा कि लोग उसे चुराने लगे हैं। चोरी तो बहुमूल्य और महत्त्वपूर्ण वस्तुओं की ही होती है, न?'



घोटुल पर लोगों ने ऊलजलूल लिखा और बस्तर की इस महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर के विषय में भ्रामक प्रचार किया। उसे लांछित किया। किन्तु लालाजी ने घोटुल की आत्मा को समझा और सच्चाई लिखी। अपनी बहुचर्चित पुस्तक बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति'' के लेखकीय में वे कहते हैं, मैं शास्त्रीय लेखन का धनी नहीं हूँ। बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति' में मेरा अनुभवलेखन संकलित है। ग्रियर्सन, ग्रिग्सन, ग्लासफर्ड और एल्विन आदि जिन विख्यात मनीषियों के उद्घरण देदे कर तथ्यों की पुष्टि की जाती है, उन्होंने जिन क्षेत्रीय रचे बसे लोगों से पूछताछ कर प्रामाणिक सामग्री जुटायी थी, अंचल के वैसे ही लोग मेरे तथ्य प्रदाता भी रहे थे। लेखकीय दृष्टि मेरी स्वतः की है।'' क्या इतनी ईमानदारी किसी और लेखक के आत्मस्वीकार में मिल पाती है? वे बस्तर के बेजुबान लोगों के विषय में इसी लेखकीय में आगे कहते हैं, प्रकृति की खुली पुस्तक में मैंने बस्तर के विगत वनवासी जीवनदर्शन का थोड़ा सा आत्मीय अध्ययन किया है। एक ऐसा लोकजीवन मेरी सृजनशीलता को प्रभावित करता आ रहा है, जिसने जाने नजाने प्रबुद्घ समाज को बहुत कुछ दिया है और जिसके नाम पर गुलछर्रे उड़ाये जाते थे। लँगोटियाँ छिन जाने के बावजूद भी जिसे लँगोटियाँ अपनी जगह सही सलामत मालूम पड़ती थीं। सोचिये, आदमी सामने है। उसका कण्ठ गा रहा है, उसके होंठ मुस्करा रहे हैं और चेहरा उत्फुल्लता निथार रहा है। उसका शरीर गठा हुआ है। समझ में यह नहीं आता कि उसकी इस मस्ती का कारण क्या है? उसकी इस निश्चिंन्तता का रहस्य क्या है? जबकि उसका उत्तरदायित्व बड़ा है और उसके घर कल के लिये भोजन की कोई व्यवस्था नहीं है। उसके नसीब में केवल श्रम ही श्रम है, दुःख ही दुःख है, परन्तु वह दुःख को सुख की तरह जी रहा है। उसका यह जीवनदर्शन कितना प्रेरक है......सोचिये।''

लालाजी के लिये कोई भी व्यक्ति बुरा नहीं है। देखें उनकी कविता सब अच्छे हैं' की कुछ पंक्तियाँ :

किस किस की बोलें बतियाएँ, सब अच्छे हैं,
आगे पीछे, दाएँ बाएँ सब अच्छे हैं।
सबको खुश रखने की धुन में सबके हो लें,
मिल बैठें सब, पियें पिलायें सब अच्छे हैं।

यह कहना होगा कि यदि हममें अक्षरादित्य लालाजी का स्वाभिमान, उनकी ईमानदारी, उनकी सच्चाई और लगन, परिश्रम तथा निष्ठा का एक छोटा सा अंश भी आ जाये तो यह हमारे लिये बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। आज के इस कठिन दौर में लालाजी जैसा व्यक्तित्व मिल पाना सहज नहीं है। हम सब सौभाग्यशाली हैं कि हमें उनका नैकटय सहज ही उपलब्ध है। इसके लिये हमें लालाजी का आभारी होना चाहिये।

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हरिहर वैष्णव
सरगीपाल पारा, कोंडागाँव ४९४२२६, बस्तर (छ.ग.)
(sahitya shilpi se sabhar)

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

वेदांता ने की सुप्रीम कोर्ट की अवहेलना (bbc)

 

बाल्को में निर्माण कार्य (फ़ाइल फ़ोटो)
बीबीसी के पास उपलब्ध दस्तावेज़ों से पता चलता है कि वेदांता रिसोर्सेस की सहयोगी संस्था स्टरलाइट इंडस्ट्रीज़ (इंडिया) लिमिटेड ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना करते हुए कई एकड़ वन भूमि पर पेड़ों की कटाई की है.
यह कटाई छत्तीसगढ़ के कोरबा में स्टरलाइट के नियंत्रण वाली भारत अल्यूमिनियम कंपनी (बाल्को) में हुई है.
वहाँ सिर्फ़ पेड़ों की कटाई ही नहीं हुई है बल्कि बाल्को क़ानून का उल्लंघन करते हुए एक नया स्मेल्टर प्लांट और एक बिजली घर भी बना रहा है. इसी निर्माणाधीन बिजली घर की चिमनी पिछले साल सितंबर में गिर गई थी जिसमें कम से कम 40 लोग मारे गए थे.
सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी रही बाल्को में अब स्टरलाइट का हिस्सा 51 फ़ीसदी है. दस्तावेज़ बताते हैं कि बाल्को ने 1751 एकड़ की वन भूमि पर कब्ज़ा कर रखा है जिसका भू-स्वामित्व उसके पास नहीं है. इस भूमि पर बिना पूर्व अनुमति के बहुत सी ग़ैर-वन गतिविधियाँ भी चलाई जा रही हैं.
स्टरलाइट के अधिकारी इन आरोपों का खंडन करते हैं और कहते हैं कि उन्होंने सिर्फ़ उसी भूमि पर पेड़ों की कटाई की है जो निजी भूमि है न कि सरकारी वन भूमि.
लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार के दस्तावेज़ बताते हैं कि बाल्को में सरकारी वन भूमि पर पेड़ों की कटाई हुई और बहुत सी ऐसी गतिविधियाँ हुईं जिससे वन को नुक़सान पहुँच सकता है. उदाहरण के तौर पर कोरबा के तहसीलदार ने 26 अक्तूबर 2010 को जारी पत्र में और कोरबा के वन मंडलाधिकारी ने दो जून 2008 को जारी पत्र में इसके विवरण दिए हैं.
वेदांता रिसोर्सेस का नाम हाल ही में उड़ीसा के नियामगिरी को लेकर चर्चा में आया था. वहाँ पर्यावरण को होने वाले नुक़सान को लेकर सरकार ने बॉक्साइट के खनन की अनुमति वापस ले ली थी.

सुप्रीम कोर्ट की अनदेखी

बाल्को का सैटेलाइट चित्र
बाल्को : तीन मार्च, 2008 को सुप्रीम कोर्ट की रोक के तुरंत बाद का सैटेलाइट चित्र
सैटेलाइट से लिया गया बाल्को का चित्र
बाल्को: दो जून, 2010 को लिया गया चित्र जिसमें वन/वनस्तपतियों की कमी स्पष्ट दिख रही है
बाल्को में वेदांता की ओर से सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की जाँच ख़ुद सुप्रीम कोर्ट भी करवा रहा है. इससे पहले सुप्रीम कोर्ट की वन मामलों की समिति, सेंट्रल एम्पॉवर्ड कमेटी (सीईसी) की एक रिपोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 29 फ़रवरी, 2008 को बाल्को के कब्ज़े वाली भूमि पर किसी भी तरह से पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी थी.
लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि बाल्को ने सु्प्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना करते हुए उस भूमि पर भी पेड़ों की कटाई की जो सरकारी रिकॉर्ड में वन भूमि है और वहाँ भी पेड़ों की कटाई की जिसे उसने निजी भू-स्वामियों से हासिल किया था.
इस पूरे मामले पर सुप्रीम कोर्ट में दो जनहित याचिकाएँ दायर की गई थीं. एक कोरबा के स्वयंसेवी संगठन सार्थक की ओर से और दूसरा छत्तीसगढ़ के कांग्रेस पार्टी के नेता भूपेश बघेल की ओर से.
इस जनहित याचिका के अलावा याचिकाकर्ता भूपेश बघेल ने सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का भी एक मामला दायर किया है. इस याचिका में उन्होंने बाल्को के अधिकारियों को अवमानना के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है जिसमें वेदांता के प्रमुख अनिल अग्रवाल शामिल हैं.
जब बीबीसी हिंदी ने भूपेश बघेल से संपर्क किया तो उन्होंने कहा, "मैंने सीईसी के समक्ष पर्याप्त सबूत पेश कर दिए हैं जिससे यह ज़ाहिर होता है कि बाल्को में सुप्रीम कोर्ट के रोक की अनदेखी की गई. यह स्पष्ट तौर पर सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना का मामला है."
उन्होंने कहा, "अब यह सीईसी पर है कि वह सबूतों की जाँच करे."
जबकि सार्थक के संचालक लक्ष्मी चौहान ने बीबीसी हिंदी से कहा, "यह बड़ा मामला है और सीईसी को ख़ुद बाल्को आकर देखना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट की अवमानना हुई है."

खंडन और सबूत

बाल्को में निर्माण कार्य
बाल्को में संयंत्र के विस्तार के लिए निर्माण कार्य तेज़ी से चल रहा है
स्टरलाइट या वेदांता के अधिकारियों ने बीबीसी हिंदी के सवालों का कोई जवाब नहीं दिया. लेकिन सुप्रीम कोर्ट में और सीईसी में प्रस्तुत दस्तावेज़ों में उसने इन आरोपों का खंडन किया है.
वेदांता के अधिकारियों का कहना है कि पेडों की कटाई ज़िला अधिकारियों की अनुमति से और निजी भूमि पर ही हुई है और सुप्रीम कोर्ट ने निजी भूमि पर पेड़ों की कटाई पर कोई रोक नहीं लगाई थी.
उनका कहना है कि वन भूमि पर कोई कटाई नहीं हुई है.
लेकिन बीबीसी हिंदी के पास वो दस्तावेज़ उपलब्ध हैं जो इस दावे को ग़लत साबित करते हैं.
हैदराबाद स्थित एक निजी एजेंसी ने रिमोट सेंसिंग टेक्नालॉजी की मदद से बाल्को संयंत्र के क्षेत्र का आकलन किया है.
इसके लिए एजेंसी ने बाल्को संयंत्र क्षेत्र के 14 दिसंबर, 2006 के सैटेलाइट चित्र और इंडियन रिसर्च ऑर्गेनाइज़ेशन (इसरो) के तीन मार्च, 2008 और दो जून, 2010 के सैटेलाइट चित्रों की तुलना की है.
दोनों चित्रों की तुलना करने पर पता चलता है कि बाल्को संयंत्र क्षेत्र में इस दौरान पेड़ों की संख्या में बहुत कमी आई है.
29 फ़रवरी 2008 और दो जून, 2010 के बीच वन/वनस्पतियों को नुक़सान पहुँचा है. यह नुक़सान 35.79 हेक्टेयर या लगभग 90 एकड़ के क्षेत्र में हुआ है
सैटेलाइट चित्रों के विश्लेषण पर रिपोर्ट
इस एजेंसी ने सैटेलाइट से मिले आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद अपनी रिपोर्ट में लिखा है, "29 फ़रवरी 2008 और दो जून, 2010 के बीच वन/वनस्पतियों को नुक़सान पहुँचा है. यह नुक़सान 35.79 हेक्टेयर या लगभग 90 एकड़ के क्षेत्र में हुआ है."
एजेंसी अपनी रिपोर्ट में कहती है, "वन/वनस्पतियों को नुक़सान बाल्को संयंत्र परिसर के उत्तरी इलाक़े में हुआ है जो मुख्य रुप से 'दो पेड़ों'के प्रतीकों से दर्शाया गया है. "
'दो पेड़ों' का प्रतीक सरकार के राजस्व रिकॉर्डों में बड़े झाड़ के जंगल के लिए उपयोग में लाया जाता है.
याचिकाकर्ताओं के अनुसार ये सारे सबूत अब सुप्रीम कोर्ट के वन मामलों की समिति सीईसी के पास है जिसने अवमानना के मामले में सुनवाई पूरी कर ली है और अब वह अंतिम रिपोर्ट तैयार कर रही है.

वन भूमि पर कब्ज़ा और कटाई

पहले बाल्को सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी हुआ करती थी. वर्ष 2001 में भारत सरकार ने बाल्को का विनिवेश करने का फ़ैसला किया था. वेदांता की भारतीय सहयोगी कंपनी स्टरलाइट ने 551 करोड़ रुपए में बाल्को के 51 फ़ीसदी शेयर ख़रीद लिए थे.
इस सौदे के ज़रिए स्टरलाइट को बाल्को में एक लाख टन के एक स्मेल्टर प्लांट, एक अल्यूमिनियम रोलिंग प्लांट, 270 मेगावॉट के एक कैप्टिव पॉवर प्लांट और 2,780 एकड़ भूमि पर कब्ज़ा मिल गया था.
बाल्को में हुई दुर्घटना (फ़ाइल फो़टो)
सरकारी अधिकारी कहते हैं कि जहाँ निर्माणाधीन चिमनी गिरी वह सरकारी ज़मीन है और वहाँ जंगल दर्ज है
ऐसा प्रतीत होता है कि बाल्को ने इस सौदे के समय भूमि के स्वामित्व की ठीक तरह से जाँच नहीं की क्योंकि जो भूमि उसे कब्ज़े में मिली उसमें निजी और वन भूमि भी थी.
लेकिन जब भू-स्वामित्व का विवाद सामने आया तो छत्तीसगढ़ सरकार ने इसकी जाँच के लिए एक समिति का गठन किया. वर्ष 2005 में अपनी रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ सरकार की समिति ने कहा था कि कुल 1,751 एकड़ भूमि राजस्व वनभूमि है और बाल्को को पास इसके उपयोग की कोई अनुमति नहीं है.
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में दोनों जनहित याचिकाएँ दायर की गईं जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने सीईसी से इस मामले की जाँच करने को कहा.
सीईसी ने 17 अक्तूबर को अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया कि बाल्को के पास भू-स्वामित्व नहीं है लेकिन उसे इस मामले में 'पोस्ट फ़ैक्टो क्लियरेंस' यानी आधिपत्य के आधार पर उपयोग की अनुमति दी जा सकती है. लेकिन बाल्को ने सीईसी की रिपोर्ट को स्वीकार करने की जगह इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का फ़ैसला किया.
इस चुनौती याचिका के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 29, फ़रवरी, 2008 में बाल्को में पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया.
इस समय बाल्को में संयंत्र के विस्तार का कार्य चल रहा है. वहाँ एक नया स्मेल्टर प्लांट और एक नए बिजली घर की स्थापना की जा रही है.
दस्तावेज़ बताते हैं कि इस विस्तार कार्य के लिए बड़ी संख्या में पेड़ों की कटाई की है जिसमें वन भूमि के पेड़ भी शामिल हैं.
(बीबीसी से साभार)

    गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

    कुतुब मीनार से ऊंचा जैतखाम

     

    5175-161210
    छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 145 किलोमीटर की दूरी पर अठारहवीं सदी के महान समाज सुधारक गुरू बाबा घासीदास की जन्म भूमि और तपोभूमि गिरौदपुरी में अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के जरिए बन रहा 243 फीट की ऊंचाई का जैतखाम दुनिया में आधुनिक भारतीय इंजीनियरिंग प्रतिभा का एक शानदार उदाहरण होगा। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली स्थित लगभग आठ सौ वर्ष पुराना 237.8 फीट (72.5 मीटर) ऊंची कुतुब मीनार भारतीय इतिहास और पुरातत्व की बहुमूल्य धरोहर के रूप में यूनेस्को की विश्व धरोहर स्मारक सूची में शामिल है, जिसकी ऊंचाई छत्तीसगढ़ के गिरौदपुरी में 51 करोड़ रूपए से भी अधिक लागत से बन रहे विशाल जैतखाम से लगभग पांच मीटर कम है। गिरौदपुरी में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा बनवाए जा रहे इस गगन चुम्बी जैतखाम की ऊंचाई 243 फीट (करीब 77 मीटर) होगी। इस प्रकार कुतुब मीनार से करीब पांच मीटर ऊंचे इस जैतखाम का निर्माण पूर्ण होने पर इसकी गिनती भी इतिहास और आधुनिक स्थापत्य कला की दृष्टि से दुनिया की एक अनमोल धरोहर के रूप में होने लगेगी और यह यूनेस्को की विश्व धरोहर स्मारकों के समकक्ष आ जाएगा।
        सतनाम पंथ के प्रवर्तक बाबा गुरू घासीदास का जन्म गिरौदपुरी में लगभग ढाई सौ साल पहले, 18 दिसम्बर 1756 को हुआ था। उन्होंने इसी गांव के नजदीक छाता पहाड़ में कठिन तपस्या की और अपने आध्यात्मिक ज्ञान के जरिए देश और दुनिया को सत्य, अहिंसा, दया, करूणा, परोपकार जैसे सर्वश्रेष्ठ मानवीय मूल्यों की शिक्षा देकर सत्य के मार्ग पर चलने का संदेश दिया। इसके फलस्वरूप यह गांव विशेष रूप से छत्तीसगढ़ की जनता की आस्था का प्रमुख केन्द्र बन गया, जहां बाबा घासीदास के महान विचारों के साथ-साथ उनकी यश-कीर्ति को जन-जन तक पहुंचाने और दूर-दूर तक फैलाने के लिए प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में राज्य सरकार के लोक निर्माण विभाग ने गिरौदपुरी में करीब तीन वर्ष पहले कुतुब मीनार से भी ऊंचे इस विशाल जैतखाम का निर्माण शुरू किया था, जो अब तेजी से पूर्णता की ओर अग्रसर है। प्रति दिन वहां आने वाले श्रध्दालुजन और पर्यटक इस विशाल जैतखाम की निर्माण्ा प्रक्रिया को उत्सुकता से निहारते नजर आते हैं। गिरौदपुरी धाम के सौन्दर्यीकरण और वहां निर्मित विभिन्न बुनियादी सुविधाओं के फलस्वरूप अब स्कूली बच्चे भी बड़ी संख्या में शैक्षणिक भ्रमण के लिए वहां आने लगे हैं। छायादार वृक्षों के नीचे इन हंसते-खेलते बच्चों को तीर्थ यात्रा में एक साथ बैठकर भोजन करते और घूमते-फिरते देखने पर सचमुच काफी सुखद अनुभूति होती है।
        बाबा घासीदास जैसे महान संत के प्रखर व्यक्तित्व और उनके कृतित्व ने छत्तीसगढ़ सहित सम्पूर्ण भारत के सांस्कृतिक इतिहास में गिरौदपुरी का नाम स्वर्णिम अक्षरों में अंकित कर दिया है। इसे ध्यान में रखकर वहां इस विशाल जैतखाम का निर्माण किया जा रहा है। डॉ. रमन सिंह ने जहां 23 दिसम्बर 2007 को जनप्रतिनिधियों और समाज प्रमुखों की उपस्थिति में इस विशाल जैतखाम के निर्माण कार्य का शुभारंभ किया था। यह विशाल जैतखाम भारत की आधुनिक इंजीनियरिंग प्रतिभाओं का एक शानदार कमाल भी होगा। छत्तीसगढ़ सरकार के लोक निर्माण विभाग द्वारा इसका निर्माण भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.), रूड़की के वरिष्ठ और अनुभवी विशेषज्ञों से बनवाए गए नक्शे और डिजाईन के अनुरूप किया जा जा रहा है। यह सम्पूर्ण रूप से भूकम्परोधी और अग्निरोधी होगा। सतनाम पंथ के गौरवशाली प्रतीक के रूप में दुनिया को मानव कल्याण और विश्व शांति संदेश देने के लिए इस पर परम्परागत श्वेत ध्वज भी फहराया जाएगा।
        वर्ष 2004 में गिरौदपुरी के ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए इस गांव के समग्र विकास के लिए समाज प्रमुखों और जनप्रतिनिधियों की बैठक में सलाह-मशविरा कर एक समन्वित विशेष कार्य योजना बनाने का निर्णय लिया। वित्तीय वर्ष 2004-05 में इस कार्य योजना पर अमल शुरू किया गया। इसके क्रियान्वयन के लिए आदिम जाति और अनुसूचित जाति विकास विभाग को नोडल विभाग के रूप में जिम्मेदारी दी गयी। विशेष कार्ययोजना के तहत गिरौदपुरी धाम के विकास के लिये वर्ष 2004 से अब तक लगभग 18 करोड़ रूपये की धनराषि मंजूर की जा चुकी है। यह राशि वहां बनाए जा रहे कुतुब मीनार से भी ऊंचे जैतखाम के लिए निर्धारित 51 करोड़ 43 लाख रूपए की धनराशि से अलग है। इस तीर्थ भूमि के विकास के लिए प्रथम वर्ष में विशेष कार्य-योजना के तहत पांच करोड़ रूपए आवंटित किए गए और यह सम्पूर्ण राशि विभिन्न विकास कार्यों पर खर्च की गयी। अगले वर्ष 2005-06 में भी लगभग पांच करोड़ रूपए का आवंटन दिया गया और बुनियादी सुविधाओं के विकास पर शत-प्रतिशत राशि व्यय की गयी। वर्ष 2006-07 में तीन करोड़ रूपए आवंटन किए गए। इसमें से विभिन्न निर्माण कार्यों पर लगभग दो करोड़ 13 लाख रूपए खर्च हुए। पिछले साल करीब दो करोड़ 35 लाख रूपए का आवंटन जारी किया गया।
        समन्वित विकास की कार्य-योजना के तहत हुए विभिन्न निर्माण कार्यों के फलस्वरूप गिरौदपुरी की तस्वीर एकदम से बदल गयी है। पहाड़ी पर स्थित मुख्य मंदिर और मेला परिसर काफी व्यवस्थित हो गया है। गुरू दर्शन मेले में वहां हर साल आने वाले लाखों श्रध्दालुओं के लिए अब पगडंडी नहीं, बल्कि साफ-सुथरी चौड़ी और पक्की सड़कें हैं, जिन पर मार्ग विभाजक बनाकर सूर्य किरणों पर आधारित सौर ऊर्जा प्रणाली सहित परम्परागत विद्युत प्रकाश की भी व्यवस्था है। समन्वित विकास कार्यों से इस तपोभूमि की छटा अब आकर्षक और मनोरम हो गयी है। मेला और मंदिर परिसर में हजारों की संख्या में विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे लगाये गये हैं। इन हरे-भरे पौधों से जहां मन को षांति मिलती है, वहीं मंदिर परिसर के आध्यात्मिक वातावरण से बाबा गुरू घासीदास के सद्भावना, भाईचारा, सच्चाई,सादगी, दया, करूणा, अहिंसा और परोपकार का संदेष भी मिलता है।
    लगभग चार सौ एकड़ में फैले इस विषाल परिसर में विशेष कार्य-योजना के तहत अनेक विकास कार्य सम्पन्न हुए है। मंदिर परिसर साफ सुथरा है और वहां कांक्रीटीकरण किया गया है। मेला परिसर में सघन वृक्षारोपण, विद्युतीकरण्ा, यात्री षेड, पेयजल की व्यवस्था और पार्किंग स्थल विकसित किया गया है। मुख्य मंदिर, जैतखाम और विषाल प्रवेष द्वार को संगमरमर जड़ कर बेहद आकर्षक और वैभवपूर्ण बनाया गया है। सभी पवित्र स्थलों को जोड़ने सड़क, सीढ़ी और सुरक्षा दीवाल बनाये गये हैं। गिरौदपुरी मेला परिसर वृक्षारोपण से आच्छादित है। मुख्य मंदिर के पास हाई मास्ट लाईट की व्यवस्था है। दूरस्थ अंचलों से आने वाले श्रध्दालुओं के ठहरने के लिये 09 विषाल यात्री षेड बनाये गये हैं। यह स्थल पहले की तुलना में कई गुना आकर्षक, सुविधायुक्त और मनोरम स्थल के रूप में विकसित हो गया है। तीर्थ यात्रियों के ठहरने के लिए अब तक नौ विशाल प्रतीक्षालय भवनों (शेडों) का निर्माण हो चुका है, जहां श्रध्दालुजन आराम से रात्रि में भी रूक सकते हैं।
        कार्य-योजना के प्रथम वर्ष में सम्पूर्ण मंदिर परिसर की साज-सज्जा की गई और आस-पास के क्षेत्र में भूमि समतलीकरण, मुरमीकरण और वृक्षारोपण भी किया गया। मुख्य बस्ती से मंदिर स्थल तक चौड़ी कांक्रीट सड़क और प्रवेष द्वार बनाया गया। सड़क के बीचों-बीच विद्युत के खम्भे लगाये गये। मंदिर परिसर में आकर्षक मुख्य प्रवेष द्वार और निर्गम द्वार बनाया गया। मंदिर परिसर में अहाते का निर्माण और जैतखाम का पुनर्निर्माण किया गया। मेला परिसर को आकर्षक बनाने समतली करण एवं मुख्य प्रवेष द्वार का विस्तार किया गया। गिरौदपुरी बस्ती के भीतर सीमेंट कांक्रीट की सड़कें बनवायी गयी हैं। ग्राम महराजी से पंचकुण्डी तक मार्ग बनाया गया। मंदिर से चरण कुण्ड तक कांक्रीट का सीढ़ीदार मार्ग एवं प्रवेष द्वार बनाया गया। इसी प्रकार चरण कुण्ड से अमृत कुण्ड तक सीढ़ीदार कांक्रीट का मार्ग और सुरक्षा दीवार बनाया गया। मुख्य प्रवेष द्वार से मंदिर तक के मार्ग का कांक्रीटीकरण और मंदिर क्षेत्र का कांक्रीटीकरण किया गया। यहां बड़ी संख्या में आने वाले श्रध्दालुओं के ठहरने के लिये तीन विश्राम गृह का निर्माण किया गया। महराजी से पवित्र छातापहाड़ तक सीमेंट कांक्रीट सड़क बनाया गया। गिरौदपुरी धाम से मात्र छह किलोमीटर पर स्थित छातापहाड़ में ही गुरू घासीदासजी ने कठोर तपस्या कर ज्ञान प्राप्त किया था। वहां पर फाल्गुन शुक्ल षष्ठी के दिन जैतखाम में जगत गुरू द्वारा ध्वजारोहण भी किया जाता है। गिरौदपुरी धाम के मेला स्थल पर पेयजल व्यवस्था के साथ ही पंचकुण्डी में भी पेयजल व्यवस्था के साथ ही पौध रोपण के रखरखाव के लिये ड्रिप कोर्स सिंचाई की व्यवस्था की गयी है। इसके अलावा ग्राम महराजी से छाता पहाड़ तक नल जल योजना भी प्रारंभ की गयी है। गिरौदपुरी बस्ती और मेला सड़क, मेला स्थल, मुख्य मंदिर परिसर, चरणकुण्ड का विद्युतीकरण किया गया। गिरौदपुरी बस्ती से मंदिर प्रवेष द्वार तक के क्षेत्र में पार्किग स्थल विकसित किया गया। पूरे क्षेत्र में आकर्षक ग्लो साइन बोर्ड लगाया गया। मेला बाजार स्थल का भी समतलीकरण किया गया। मेला स्थल और मंदिर परिसर में 10 हजार पौधों का रोपण किया गया।
        विशेष कार्य-योजना के तहत वर्ष 2005-06 में मेला परिसर, चरणकुण्ड और अमृतकुण्ड में विद्युतीकरण और वृक्षारोपण के रखरखाव एवं महराजी से छाता पहाड़ तक डब्ल्यू.बी.एम. सड़क और श्रध्दालुओं की सुविधा के लिये चबूतरा निर्माण किया गया। गिरौदपुरी में लगभग 55 लाख रूपये की लागत से विश्राम गृह, सिविक सेन्टर में अतिरिक्त कमरों का निर्माण, 10-10 लाख रूपये की लागत से हाई स्कूल और माध्यमिक षाला, 55 लाख रूपये की लागत से चार यात्री षेड का निर्माण और 59 लाख रूपये की लागत से गिरौदपुरी धाम में पेयजल और निस्तार की अतिरिक्त व्यवस्था की गई है। इसके साथ ही हेलीपेड स्थल तक पहुंच मार्ग, 59.28 लाख रूपये की लागत से मुख्य मार्ग से जन्म स्थली और मुख्य मार्ग से मंदिर पहुंच मार्ग तक कांक्रीटीकरण, साढे 26 लाख रूपये की लागत से डब्ल्यू.बी.एम. सड़क और वन्य जीवों के पेयजल के लिये स्टापडेम का निर्माण कराया गया है। 79 लाख 76 हजार रूपये की लागत से गिरौदपुरी बस्ती की आंतरिक मार्गों का कांक्रीटीकरण कराया गया।
    इसके बाद वर्ष 2006-07 में इस विशेष कार्य-योजना के तहत मेला क्षेत्र में 10 लाख रूपये की लागत से पार्किंग स्थल विकसित किया गया। करीब 43 लाख 31 हजार रूपये की लागत से तीन यात्री षेड बनवाए गए, 23 लाख रूपये की लागत से महराजी से छातापहाड़ मार्ग में पुलिया सह स्टाप डेम का निर्माण कराया गया और महराजी तालाब का गहरीकरण कार्य भी हुआ। इसी प्रकार छातापहाड़ के पास स्थित तालाब का राहत कार्य में गहरीकरण कराया गया। सात लाख रूपये की लागत से सुलभ षौचालय का निर्माण कराया गया। छोटे षेरपंजा मंदिर से बछिया जीवन दान षोरपा तालाब तक कांक्रीट सड़क 24 लाख 83 हजार रूपये में पूर्ण किया गया है। इसके अलावा 18 लाख 17 हजार रूपये की लागत से मुख्य मार्ग से मटियाटोली तक पहुंच मार्ग और छाता पहाड़ मार्ग में डामरीकरण कराया गया। मेला क्षेत्र में 32 लाख 21 हजार रूपये की लागत से पार्किंग स्थल विकसित किया गया। महराजी के पास तालाब और ब्रिज का निर्माण किया गया। साथ ही गिरौदपुरी में 29 लाख रूपये की लागत से तालाब गहरीकरण एवं पिचिंग का कार्य पूर्ण कराया गया है। छाता पहाड़ के सौंदर्यीकरण पर 6 लाख और अनुसूचित जाति कन्या आश्रम के जीर्णोध्दार पर 10 लाख रूपये की राषि व्यय की गई है। वर्ष 2007-08 में 13 लाख 77 हजार रूपये की लागत से यात्री निवास षेड का निर्माण कराया गया है।
          वर्ष 2007-08 में 27 लाख 54 हजार रूपये की लागत से मेला परिसर में दो यात्री षेड का निर्माण किया गया। इनमें प्रत्येक पर 13 लाख 77 हजार रूपये की राषि व्यय की गई है।  वर्ष 2008-09 में गिरौदपुरी के समन्वित विकास कार्यों के लिये दो करोड़ 34 लाख रूपये की राषि आबंटित की गई है। इनमें मुख्य रूप से गिरौदपुरी में हाई मास्ट लाइट पर 19 लाख और मेला परिसर पर सीमेंन्ट कांक्रीट सड़क निर्माण पर साढे 24 लाख रूपये की राषि व्यय की गई है। मेला परिसर, महराजी से पंचकुण्डी, छाता पहाड़ एवं पंचकुण्डीय महराजी बायपास से गिरौदपुरी से छातापहाड़ तक सीमेंट कांक्रीट रोड का कार्य एक करोड़ 67 लाख रूपये की लागत से पूर्ण कर लिया गया है।
        गिरौदपुरी धाम में हर रोज दूर-दूर से आने वाले श्रध्दालुजन इस विशाल जैतखाम की निर्माण प्रक्रिया को भी काफी उत्साह और उत्सुकता से निहारते नजर आते हैं। पहले यहां पर यात्री प्रतीक्षालयों की काफी कमी थी, लेकिन अब राज्य सरकार ने इस अभाव को दूर करते हुए विशाल यात्री शेडों का निर्माण करवा दिया है। निस्तारी की भी अच्छी सुविधा विकसित की गयी है। यहां आने वाले तीर्थ यात्रियों के अनुसार कुछ वर्ष पहले तक यहां चरण कुण्ड, अमृत-कुण्ड और छाता पहाड़ आने-जाने के लिए पगडंडीनुमा उबड़-खाबड़ रास्ते हुआ करते थे, लेकिन अब चरण कुण्ड से अमृत कुण्ड तक सीढ़ीदार सुन्दर और सुगम रास्ता बन चुका है, वहीं छाता पहाड़ जाने के लिए पक्की सड़क भी बनवा दी गयी है। छाता पहाड़ चढ़ने के लिए सीढ़ीदार मार्ग तथा सौर ऊर्जा आधारित विद्युत खंभों सहित सुरक्षा की दृष्टि से रेलिंग और नाले पर पुलिया निर्माण के फलस्वरूप यहां का सौन्दर्य और भी बढ़ गया है। एक तीर्थ यात्री ने कहा कि गिरौदपुरी तक आने-जाने के लिए राज्य सरकार द्वारा बनवायी गयी सड़कों का उल्लेख करते हुए कहा कि इससे अब हमारी तीर्थ यात्रा काफी सुगम हो गयी है।

    इतिहास के पन्नों में गिरौदपुरी धाम

        ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार मानवता के पुजारी संत गुरू घासीदास जी का जन्म गिरौदपुरी में 18 दिसम्बर सन 1756 को हुआ था। युवा अवस्था में उन्होंने इसी गांव से लगभग छह किलोमीटर की दूरी पर घने जंगलों से परिपूर्ण छाता-पहाड़ के नाम से प्रसिध्द पर्वत पर कठोर तपस्या की और गिरौदपुरी पहुंचकर लोगों को सत्य, अहिंसा, दया, करूणा और परोपकार के उपदेशों के साथ मानवता का संदेश देने लगे। उपलब्ध अभिलेखों के अनुसार इस ऐतिहासिक घटना को यादगार बनाने के लिए समाज की ओर से जगद्गुरू गद्दीनशीन स्वर्गीय श्री अगम दास जी (पूर्व सांसद) द्वारा वहां लगभग 74 वर्ष पहले (वर्ष 1935 में) माघ-पूर्णिमा के दिन गुरू दर्शन मेले की शुरूआत की गयी। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि मेले की शुरूआत 1935 से भी पहले हो चुकी थी, लेकिन गुरू अगम दास जी ने समाज प्रमुखों से सलाह-मशविरा कर 1935 में जनसहयोग से विधिवत पाम्पलेट छपवा कर प्रचार-प्रसार के साथ इसे और भी अधिक सुव्यवस्थित रूप से आयोजित करना प्रारंभ किया था। लगभग तीन दशक बाद वर्ष 1966 में समाज प्रमुखों द्वारा आम सहमति से लिए गए निर्णय के अनुसार गुरू दर्शन मेला हर साल फाल्गुन शुक्ल पंचमी से सप्तमी तक आयोजित किया जा रहा है। राज्य सरकार की विशेष कार्ययोजना के तहत विकास कार्यो के फलस्वरूप इस गरिमामय मेले की रौनक और भी ज्यादा बढ़ गयी है। अब तो इस तीन दिवसीय वार्षिक मेले में आने वाले तीर्थ यात्रियों की संख्या दस लाख से पन्द्रह लाख तक पहुंच जाती है। मेले में श्रध्दालुओं के लिए बिजली, पानी, सड़क आदि जरूरी सुविधाओं की जरूरत लम्बे समय से महसूस की जा रही थी। रमन सरकार ने इस दिशा में तत्परता से कदम उठाया और लोगों की वर्षो पुरानी मांगे पूरी हुई।

    कुतुब मीनार : कुछ ऐतिहासिक तथ्य

        इतिहासकारों के अनुसार राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में कुतुब मीनार का निर्माण कुतुबुददीन एबक ने सन 1193 ईस्वी में प्रारंभ करवाया था, लेकिन निर्माण पूर्ण होने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गयी। उनके बाद इल्तुतमिश ने दिल्ली के शासक के रूप में इसके निर्माण को आगे बढ़ाया और इसमें तीन मंजिले जुड़वायी। कुतुब मीनार में किसी दुर्घटना के बाद सन 1386 ईस्वीं में उसका पुनर्निर्माण फिरोज शाह तुगलक के समय किया गया। कुछ इतिहासकारों के मुताबिक कुतुब मीनार का नाम कुतुबुददीन एबक के नाम पर हुआ, जबकि कुछ इतिहासकारों का यह कहना है कि इसका नामकरण बगदाद के संत कुतुबुददीन बख्तियार काकी के नाम पर हुआ, जो इल्तुतमिश के समय भारत आए थे। इल्तुतमिश उनसे काफी प्रभावित थे।
    (जनसंपर्क छग)

    51 वां सापेक्ष विनोदकुमार शुक्ल पर


     अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका सापेक्ष 51 वां अंक वरिष्ठ साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल के व्यक्तित्व पर केन्द्रित है। इस अंक में श्री शुक्ल के अप्रकाशित सम्पूर्ण उपन्यास 'हरी घास की छप्परवाली झोपड़ी' और 'बौना पहाड़' का समावेश है। सापेक्ष द्वारा अब तक सुप्रसिध्द साहित्यकार पदुमलाल-पुन्ना लाल बख्शी, छायावाद के कवि मुकुटधर पाण्डेय, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन एवं संत कबीर पर केन्द्रित अंक प्रकाशित किये जा चुके है। मुख्यमंत्री डा.रमनसिंह ने 51वें अंक का विमोचन किया। इस अवसर पर पत्रिका के संपादक महावीर अग्रवाल सहित संजीव बख्शी और अभय मिश्रा भी उपस्थित थे।

    रविवार, 12 दिसंबर 2010

    बांझ गाय देगी दूध

    छत्तीसगढ़ के पशु वैज्ञानिकों की शानदार कामयाबी

    छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के ग्राम अंजोरा स्थित पशु चिकित्सा एवं पशु पालन महाविद्यालय के पशु वैज्ञानिकों को गायों के बांझपन को दूर करने और पशुओं में गोलकृमि रोग निवारण की नयी तकनीक विकसित करने में शानदार कामयाबी मिली है। इन वैज्ञानिकों ने अपने गहन अनुसंधान के द्वारा एक ऐसी प्रणाली का आविष्कार किया है, जिससे अब बांझ गायों को दुधारू बनाया जा सकेगा। इसके साथ ही पशुओं में गोलकृमि (निमटोड) जैसी गंभीर बीमारी का निदान भी हो सकेगा। पशु वैज्ञानिकों द्वारा विकसित इन दोनों अनुसंधान तकनीकों के व्यवसायिक उपयोग के लिए हाल ही में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर और राष्ट्रीय अनुसंधान विकास निगम, नई दिल्ली के बीच अनुबंध भी किया गया है। 

              इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर के अंतर्गत संचालित पशु चिकित्सा एवं पशु पालन महाविद्यालय अंजोरा दुर्ग के पशुशरीर क्रिया विज्ञान विभाग द्वारा वर्ष 2004 से 2007 तक भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद नई दिल्ली द्वारा संचालित अनुसंधान परियोजना में किए गए शोघ में यह पाया कि बांझ गायों को भी दूधारू बनाया जा सकेगा। संस्थान के प्राध्यापक डॉ. जावेद खान के नेतृत्व में पशु वैज्ञानिकों के दल ने इसके लिए एक किट विकसित की है। जिसे पशु चिकित्सकों की मदद से मात्र चौबीस दिनों के उपचार से बांझ गायों को दुधारू बनाया जा सकेगा। इस तकनीक के उपयोग से यह भी पाया गया है कि नब्बे प्रतिशत गायों का बांझपन खत्म हो जाता है और वे भविष्य में गाभीन भी हो जाती है। इस तकनीक से बांझ गायों से प्राप्त दूध सामान्य गायों से प्राप्त दूध जैसा ही पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक होता है। इसी तरह महाविद्यालय के पशु परजीवी विभाग द्वारा पशुओं में गोलकृमि जैसे गंभीर रोग के निवारण के लिए जैविक उत्पाद विकसित किया गया है। इस जैविक उत्पाद का दवाई के रूप में उपयोग करने से गोल कृमि की समस्या से निजात पाया जा सकता है। गौरतलब है कि पशुओं में गोलकृमि परजीवी की समस्या भारत सहित विश्व के दूसरे देशों में भी एक गंभीर समस्या है। इस रोग से पशुओं में डायरिया हो जाता है। जिससे दुधारू पशुओं के दूध उत्पादन में कमी आ जाती है साथ ही उनके बच्चों की मौत भी हो जाती है। गोलकृमि के रोकथाम के लिए बाजार में सामान्यत: रसायनयुक्त एलोपैथी दवाईयां उपलब्ध है परंतु इससे इसका स्थायी निदान नही हो पाता। महाविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. पी. के. सान्याल के नेतृत्व में पशु वैज्ञानिकों के दल द्वारा किए गए अनुसंधान में यह पाया कि गोलकृमि (निमटोड) के नियंत्रण के लिए आथ्रोबोट्रायस ओलिगोस्पोरा और डुडिंगटोनिया फलेगरेन्स फफूंद उपयुक्त है। इस फफूंद के पावडर को दवाई के रूप में उपयोग करने से गोलकृमि की समस्या से निजात पाया जा सकता है। पशु वैज्ञानिकों द्वारा विकसित उपरोक्त दोनों अनुसंधान तकनीकों के व्यवसायिक उपयोग के लिए हाल ही में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर और राष्ट्रीय अनुसंधान विकास निगम, नई दिल्ली के बीच अनुबंध भी किया गया है। जिससे यह दवाईयां शीघ्र ही बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध हो सकेगी


    गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

    ये पत्रकार अलग तरीकों से कीमत वसूलना जानते हैं

    पंकज कुमार झा
    पंकज झा
    बात करीब तीन साल पुरानी है. अपने एक पत्रकार मित्र के माध्यम से एक लड़की से रायपुर में मिलना हुआ. परिचय के क्रम में पता चला कि किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में वो रायपुर में है और बस्तर अंचल में काम करना उसका ध्येय है. जल्द ही यह पता चला कि उसकी कम्पनी का नाम भले ही अलग हो, लेकिन मोटे तौर पर वह टाटा के लिए काम करती है. बकौल उस लड़की उसकी कम्पनी देश का सबसे बड़ा पीआर ऑर्गेनाइजेशन है.
    हालांकि जल्द ही हम दोनों को ये पता चल गया कि हम दोनों ही एक दूसरे के किसी काम के नहीं है. उसकी अपने से एक सामान्य अपेक्षा यह थी कि यहां के पत्रकारों-संपादकों से उसका परिचय कराऊं और टाटा के लोहंडीगुडा संयंत्र की कुछ ‘सकारात्मक’ खबरे छपाने में उसकी मदद करूं. थोडा-सा अनौपचारिक होने पर इस लेखक ने बिल्कुल यही सोचा कि भले ही मिलना-जुलना आप मित्रतावश ही करें, लेकिन कोई भी व्यक्ति इस बात का भरोसा नहीं करेगा कि बिना किसी आर्थिक स्वार्थ के कोई टाटा के लिए सिफारिश करेगा. बात आयी-गयी हो गयी. बाद में कुछ पत्रकारों को अपनी ‘स्टोरी’ की कीमत वसूलते, टाटानगर तक जा ऐश करते भी इस लेखक ने खूब देखा. खैर..उसको खुदा मिले हैं खुदा की जिसे तलाश...!
    तो अब जब देश के करोड़ों लोग वैष्णवी कम्युनिकेशन और उसकी मालिक देश की सबसे बड़ी दलाल नीरा राडिया के बारे में जान कर हतप्रभ हैं तो मात्र एक सवाल जेहन में आ रहा है कि जो बात अपने जैसे सामान्य व्यक्ति की समझ में आ गया था (कि टाटा के लिए काम करने वाली किसी एजेंसी की  वकालत करके आप पाक साफ़ तो बिलकुल नहीं दिख सकते) क्या वह बरखा दत्त जैसी आइकान को नहीं मालूम रहा होगा. आज जब बरखा अपनी बातचीत को ‘खबर’ प्राप्त करने की एक सामान्य प्रक्रिया कह रही है, खुद ये भी स्वीकार कर रही है कि नीरा से उसने झूठ बोला था तो उस पर तरस ही खाया जा सकता था. हालाकि अन्य लोगों के विचारों के उलट हम यह बिलकुल नहीं मानते हैं कि बरखा दत्त, वीर संघवी, प्रभु चावला जैसे लोगों ने नागरिकों का भरोसा तोड़ा है. देश के युवा अगर इन हस्तियों को अपना आदर्श मानते थे (या हैं भी ) तो कम से कम इसलिए तो बिल्‍कुल नहीं कि इन पत्रकारों में वो माखनलाल चतुर्वेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी, माधवराव सप्रे या चंदूलाल चंद्राकर की आत्मा देखते थे. युवाओं के आदर्श ये इसलिए हैं कि आज का हर युवा उन्हीं की तरह का लाइफस्टाइल वैसी ही जिंदगी जीना चाहता है, वैसा ही रौब और दाब चाहता है. सब को यह बेहतर पता है कि सत्ता की नजदीकियों, धनकुबेरों के सानिध्य को यूं ही जाया करने की बेवकूफी कोई नहीं करता. सब अलग-अलग तरीके से कीमत वसूलना जानते है. उनकी बुद्धिमता का मतलब ही यही है कि किस तरह अपने सात पुश्तों के लिए अय्याशी का सामन इकठ्ठा कर लिया जाए. अभी आए टेप प्रकरण में, जिसकी कई परतें अभी खुलनी बाकी है.
    गौर करने लायक बात यह है कि केवल नीरा राडिया का फोन टैप किया गया है. अगर जिन-जिन से उसकी बात हुई उन लोगों का फोन टैप किया जाता तब पता चलता कि ऐसे कितनी दलाल देश में भरे पड़े हैं और इन दलालों की दलाली कर क्या-क्या पाया है पत्रकारों ने. खैर, तो दिक्कत इन लोगों से बिल्कुल नहीं है. जब तक देश के भ्रष्ट तंत्र में कोई आमूलचूल एवं क्रांतिकारी परिवर्तन न लाया जाय, जब तक हज़ारों करोड़ रूपये हड़प लेने वाले लोगों को सौ रुपया काट लेने वाले जेबकतरे जितना भी दंड नहीं मिले, तब-तक तो यह सब यूं ही चलता रहेगा. आर्थिक अपराध का रूप बदलता रहेगा. दलालों के दुस्साहस में इजाफा होता रहेगा. अभी तक मंत्रियों से पहचान की बदौलत काम करवा लेने वाले लोग अब मंत्रियों को विभाग तक आवंटित कराने की औकात में आ गए हैं. पता नहीं आगे और क्या-क्या हो सकता है. तो पूरे कुंए में ही भांग पड़ी है. साथ ही लोग अब इस ‘नशे’ के अभ्यस्त भी हो गए हैं. जो सिस्टम के अंदर है वह मज़ा मार रहा है जो बाहर है वो भी सिस्टम की खिलाफत को भी अपना पेशा बनाए हुए है. किसी फिल्म के कलाकार की तरह जहां नायक और खलनायक सबको मेहनताना मिलना ही है. दिक्कत तो तब है जब देश को चूस कर अपना साम्राज्य खड़ा करने वाले लोग खुद को पाक-साफ़ करार देकर दूसरों को भ्रष्ट बताना चाहते हैं. गोया इस हमाम में वो अपना ‘काला गाउन’ पहन कर ही गए हों.
    टेप लीक होने से ऐन पहले रतन टाटा ने बिना संदर्भ के यह ‘रहस्योद्घाटन’ किया था कि वह एक मंत्री को पन्द्रह करोड़ रिश्वत नहीं देने के कारण अपना एयरलाइन शुरू नहीं कर पाए. एक देवदूत की तरह उन्होंने झट से ये भी प्रवचन दे डाला कि अगर वो घूस दे देते तो रात को सो नहीं पाते. उस भाषण के बाद टाटा की ठकुरसुहाती करने में बढ़-चढ़ कर लोगों ने अपना योगदान दिया. अपना सारा गाम्भीर्य और गरिमा ताक पर रख कर एक सरस्वती पुत्र कहे जाने वाले स्तंभकार ने तो शीर्षक ही दिया कि ‘टाटा की ईमानदारी के आगे सारा देश नतमस्तक.’ लेकिन जल्द ही लोगों को पता चल गया कि खुद को पाक-साफ़ बताने का कारण यह टेप ही था, जिसके लीक होने की जानकारी शायद उनको मिल गयी थी. अन्यथा इस तरह का संयोग बिल्कुल नहीं हो सकता कि आप बयान दें और एक सप्ताह के बाद रंगीनमिजाजी के साथ किया गया आपका सौदा जगजाहिर हो जाए. जिसने भी टाटा और राडिया की बातचीत पढ़ी या सुनी हो, वह बेहतर समझ सकता है कि केवल एक राजा को मंत्री बनाने में कितना बड़ा स्वार्थ था टाटा समूह का. हर तरह के सलाह या एजेंसियों की चेतावनी को दरकिनार कर राजा ने टाटा नमक का क़र्ज़ अदा किया. उसकी कम्पनी को 2 जी स्पेक्ट्रम 1658 करोड़ में आवंटित हुआ और अगले ही दिन इस सौदे का 27 प्रतिशत हिस्सा जापान की डोकोमो कम्पनी को 12,924 करोड़ की कीमत पर बेच दिया गया. ध्यान देने वाली बात यह है कि इस सौदे में केवल पैंतालीस मिनट का समय लगा. भाग लेने की इच्छुक कंपनियों को इतने ही समय में 1658 करोड़ का ड्राफ्ट एवं करीब दर्ज़न भर विभागों से अनापत्ति प्रमाण पत्र प्रस्तुत करना था.
    ज़ाहिर है जिन कंपनियों को सब कुछ मालूम होता वही इस बोली में हिस्सा ले सकते थे. तो केवल इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि देश के खजाने को हज़ारों करोड़ की चपत लगाने वाले इस साज़िश के लिए कितनी तैयारी की गयी होगी. और इस सौदे से सबसे बड़ा फायदा उठाने वाला व्यक्ति यदि ईमानदारी का ढिंढोरा पिटे तो इस दुस्साहस को क्या कहें, लेकिन शिकायत इन किसी से नहीं है. किसी भी आम नागरिक को आज यह अच्छी तरह मालूम है कि परदे के पीछे खेले जाने वाले खेल के बिना कोई इस तरह अरबों-खरबों का मालिक हो ही नहीं सकता. आज तो उद्योग लगाना काफी कुछ आसान कर दिया गया है, लेकिन आप तब की सोचिये जब एक छोटी  फैक्ट्री लगाने के लिए भी विभिन्न विभागों से कुल 72 अनापत्ति पत्र लेना होता था. तो जिस देश में मृत्यु प्रमाण पत्र लेने के लिए भी रिश्वत देनी पड़ती हो वहां कोई इस तरह पूरे ईमानदारी के साथ अपना व्यवसाय चला सकता है?
    खैर, चूंकि  यह दौर प्रतिमाओं के भंजन का है तो सवाल केवल सबसे ईमानदार माने जाने वाले, देश के मुखिया का है. अगर प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई सबूत अभी तक नहीं मिलने के कारण आप उनको ईमानदार मान भी लें, तो क्या इतिहास उन्हें इसलिए माफ कर देगा कि जब देश को बुरी तरह लूटा-खसोटा जा रहा था, बात चाहे कोमनवेल्थ घोटाले की हो, महंगाई घोटाले या फिर इस स्पेक्ट्रम घोटाले या दलाली की, कुर्सी से चिपक कर रहने मात्र के लोभ से देश को गर्त में जाते देख कर भी चुप रहने वाले मुखिया को आप ईमानदार कह सकते हैं? क्या कुर्सी लिप्सा का इससे बड़ा भ्रष्टाचार और कोई हो सकता है? प्रधानमंत्री जी, हालिया घटनाक्रम पर मुझे शाहजहां की याद आ रही है जो शासक होते हुए भी कहता था, ‘शेर भर शराब हो, पाव भर कबाब हो, नूरे जहां की सल्तनत खूब हो खराब हो.’ आप भी भले ही एक नयी नूर-ए-जहां  को अपना सब कुछ सौंप कर कुर्सी पर आनंद मना रहे हों, लेकिन जब वक्त आपसे भी गिन-गिन कर आपके आपराधिक तटस्थता का हिसाब मांगेगा, जब इतिहास का औरंगजेब आपको भी सवालों के काल कोठरी में कैद करेगा तब शाहजहां की तरह झरोखे से देख लेने को कोई ताजमहल भी आपसे पास नहीं रहेगा. दिनकर ने तो पहले ही घोषणा कर रखी है ‘जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध.'
    लेखक पंकज कुमार झा रायपुर से प्रकाशित 'दीप कमल' के संपादक हैं.
    (भड़ास 4 मीडिया से साभार)

    तिरंगे के साथ

    रायपुर में कांग्रेस ने तिरंगे के साथ मनाया सोनिया का जन्म दिन

    मौसम का एक और अजीब बदलाव

    मनोज व्यास

    रायपुर से मनोज व्यास
     ग्लोबल वार्मिंग या प्रदूषण ऐसी समस्या नहीं है कि चिमनियों ने एक दिन भयंकर धुआं उगला और दूसरे दिन बादल आ गए, बारिश हो गई। मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक रायपुर समेत राज्य में ताजा बारिश नार्थ-ईस्ट के सिस्टम का नतीजा है। लेकिन पर्यावरणविद कुछ अलग ही बात उठा रहे हैं। उनका कहना है कि रायपुर और आसपास मौसम में बदलाव कुछ ज्यादा तेजी से देखने में आ रहे हैं। खंडवर्षा या पाकेट रेन से राजधानी और आसपास का बेल्ट ज्यादा प्रभावित है। जानते हैं, पाकेट रेन के लिए हवा में कार्बन पार्टिकल्स की अधिकता भी बड़ी जिम्मेदार है। और रायपुर में इसकी कमी नहीं है।
    ठंड में गर्मी का रिकार्ड बनाने के बाद अचानक मानसून जैसे मौसम ने लोगों की उलझन बढ़ा दी है। दो दिन पहले तक ठंड ने दस्तक भी नहीं दी थी, लेकिन अचानक झमाझम बारिश के बाद शीतलहर के हालात हैं। विशेषज्ञ कहते हैं, बारिश के दिनों में न तो झड़ी लगी, न ही शहर भर में एक साथ झमाझम पानी गिरा। इस साल खंडवर्षा ही ज्यादा हुई है। जानकारों का कहना है कि उरला-सिलतरा इंडस्ट्रियल बेल्ट से बड़े पैमाने पर कार्बन पार्टिकल्स निकल रहा है। कार्बन के भी दो तरह के पार्टिकल्स हैं। इनमें से एक टेंपरेचर को एब्जार्ब कर लेता है, जिसकी वजह से ठंड का अहसास होता है, जबकि दूसरी तरह के पार्टिकल्स टेंपरेचर को बढ़ा देते हैं।
    दो दिन पहले ठंड के मौसम में सर्वाधिक तापमान रिकार्ड किया गया। बुधवार को बारिश के साथ चल रही ठंडी हवाओं ने लोगों को कंपा दिया था, उस दौरान भी शहर का तापमान सामान्य से 6 डिग्री सेल्सियस अधिक था। इन परिस्थितियों के लिए पर्यावरणविद प्रदूषण को प्रमुख कारण मान रहे हैं। पर्यावरण विशेषज्ञ इसे बड़े खतरे का संकेत मानते हैं। गौरतलब है कि प्रदूषण के बढ़ते ग्राफ ने राजधानी में ठंड पर ब्रेक लगा दिया है। कारखानों से निकलने वाले कार्बन कण सीधे तापमान को प्रभावित कर रहे हैं। गंभीर बात यह है कि प्रदूषण में कंट्रोल के बजाय आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है।
    पाकेट रेन का फंडा
    स्टील या थर्मल पावर प्लांट से निकलने वाले सक्रिय कार्बन व आयरन का क्षेत्रफल अन्य स्त्रोतों से निकलने वाले कार्बन व आयरन से दोगुना होता है। यह अपने बाहरी आवरण में धूल कणों में मौजूद जहरीली गैसों को चिपका लेता है। साथ ही वायुमंडलीय नमी के साथ क्रिया कर वर्षा की बंूदों को निर्धारित साइज से छोटा या बड़ा कर देता है। इसी वजह से खंडवर्षा या पाकेट रेन •ाी होती है।

    एक्सपर्ट कमेंट्स
    0 अभी नार्थ इस्ट मानसून का समय है। बंगाल की खाड़ी में तूफान की वजह से उत्तरी आंध्रप्रदेश के अलावा छत्तीसगढ़ में बारिश हो रही है। तापमान बढ़ने के लिए प्रदूषण जिम्मेदार होता।
    -डा. एएसआरएएस शास्त्री
    डायरेक्टर रिसर्च, कृविवि

    0 इंडस्ट्रियलाइजेशन से एट्मास्फियर में कार्बन पार्टिकल्स बढ़ रहे हैं। इसकी वजह से टेंपरेचर क•ाी कम, या अचानक ज्यादा हो जाता है। कार्बन की वजह से ही ऐसे चेंज नजर आ रहे हैं।
    -डा. शम्स परवेज
    प्रोफेसर, रविवि