शनिवार, 31 मई 2014

जो हालांकि होते हैं, पर नजर नहीं आते

जब अत्याचारी हो जाए सूरज
सूख जाएं नदियां
वीरान हो जाए धरती
और लगे कि सब कुछ खत्म हो गया
तब तुम
उन बीजों के बारे में सोचना
जो हालांकि होते हैं,
पर नजर नहीं आते।
उस बारिश के बारे में सोचना
जो होनी ही है,
किसी न किसी रोज।
और सोचना अपने बारे में।
अपनी जिंदा उम्मीदों के बारे में।
-केवलकृष्ण

रविवार, 11 मई 2014

साक्षात्कार

कितना अजीब लगता है
आइने के सामने खड़े होकर
यह सोचना 
कि ये चेहरा
कितना जाना पहचाना सा है.
अपनी ही गली में
खड़े होकर सोचना
कि शायद गुजरा हूं मैं भी कभी
यहीं से।
अपनी ही कविताओं को
किसी और की महसूस कर
बांचना।
अपने ही शब्दों को
अजनबी कर देना खुद से।
कितना अजीब लगता है
खुद से जुदा होकर
खुद का साक्षात्कार करना।
-केवलकृष्ण