कितना अजीब लगता है
आइने के सामने खड़े होकर
यह सोचना
कि ये चेहरा
कितना जाना पहचाना सा है.
अपनी ही गली में
खड़े होकर सोचना
कि शायद गुजरा हूं मैं भी कभी
यहीं से।
अपनी ही कविताओं को
किसी और की महसूस कर
बांचना।
अपने ही शब्दों को
अजनबी कर देना खुद से।
कितना अजीब लगता है
खुद से जुदा होकर
खुद का साक्षात्कार करना।
-केवलकृष्ण
आइने के सामने खड़े होकर
यह सोचना
कि ये चेहरा
कितना जाना पहचाना सा है.
अपनी ही गली में
खड़े होकर सोचना
कि शायद गुजरा हूं मैं भी कभी
यहीं से।
अपनी ही कविताओं को
किसी और की महसूस कर
बांचना।
अपने ही शब्दों को
अजनबी कर देना खुद से।
कितना अजीब लगता है
खुद से जुदा होकर
खुद का साक्षात्कार करना।
-केवलकृष्ण
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