शुक्रवार, 10 मई 2013

लाल पानी में दूध की धार

केवलकृष्ण
ढोलकाल के शिखर पर गणपति मुस्कुरा रहे हैं। बादलों से लिपटी बैलाडीला की पहाड़ियां उचक-उचक कर देख रही हैं। शंखनी-डंकनी मचल रही हैं। एक बार फिर इतिहास करवट ले रहा है। साल-सागौन के जंगलों में पहाड़ी मैंना नया ककहरा सीख रही है।
बीत गए वे दिन जब मुट्ठीभर अनाज के लिए मुंदहरे में आयती को कोसों दूर बचेली-दंतेवाड़ा आना पड़ता था। मंगीबाई को बादलों की बाट जोहनी पड़ती थी कि वे कब आएं और खेतों में बरसें। सोमली अब बैगा-गुनिया के ही भरोसे नहीं रहती। बुदरू को अब बड़े अस्पताल जाते हुए अपनी जेब नहीं टटोलनी पड़ती। रामलाल अब जानता है कि अपने बच्चे को पढ़ा-लिखा बड़ा आदमी बनाने का उसका ख्वाब अब कैसे सच हो सकता है। दंतेवाड़ा बदल रहा है। 
सहमे-सहमे लोगों के चेहरों पर तैरती मुस्कुराहटें, दहशतजदा आंखों में जिंदगी की चमक, बारूद की बदबू में पसीने की खुशबू...। हरी-हरी पत्तियों के पीछे झरने खिलखिला रहे हैं। 
किसने सोचा था कि जिस इलाके में नक्सलवादी स्कूलों को धमाकों से उड़ा रहे हों वहां के बच्चे किताब-कापियां थामें आसमान छूने निकल पड़ेंगे। बड़े-बड़े शहरों के महंगे स्कूलों को पछाड़ते हुए कवासी जोगी, कविता माड़वी जैसी बच्चियां सफलता के नये किस्से गढ़ेंगी। किसने सोचा था कि अखिल भारतीय इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा में   इस इलाके के 12 बच्चे एक साथ चयनित हो सकते हैं। लेकिन यह हुआ। यह सफलता की पहली किस्त है। दूसरी किस्त की प्रतिभाएं पोटा केबिनों में वर्जिश कर रही हैं। स्कूलों को बारूदों से उड़ा देने की नक्सली नीति का जवाब पोटा-केबिन दे रहे हैं। पक्की छत न सही, बांस-चटाई टीन-टप्पर ही सही। 12 पोटा केबिनों में किल्लोल गूंज रहा है, 44 और कतार में हैं। एर्राबोर-बांगापाल-पाकेला का हाथ थामे गादीरास-पालनार-तालनार नयी राह चल पड़े हैं। एक हाथ में कुदाल और दूसरे में किताबे थामे समझ रहे हैं कि कंप्यूटर के भीतर भी उनके लिए कितना सारा स्पेस है। 
लोहा-टीन-कोरंडम से भरी-पूरी धरती में विकास का पहिया तेजी से घूम रहा है। रोजगार ने नये साधन दरवाजे खोल रहे हैं। फैक्टरियां, परियोजनाएं दरवाजे खटखटा रही हैं और दंतेवाड़ा स्वागत के लिए तैयार खड़ा है। एजुकेशन सिटी का फूल हाथों में लिए। यहां पढ़कर बच्चे अपना कौशल तेज करेंगे। यहां पालिटेक्निक कालेज भी होगा, औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान भी, बालिकाओं के लिए कस्तूरबा गांधी विद्यालय, छू लो आसमान योजना का कन्या परिसर, आदिमजाति कल्याण विभाग का आश्रम, नक्सल हिंसा में अनाथ हुए बच्चों के लिए आस्था गुरुकुल,  दो आवासीय विद्यालय, राजीव गांधी शिक्षा मिशन के तहत बालिका छात्रावास, आदर्श विद्यालय और क्रीड़ा परिसर.........यानी कालेजों-स्कूलों-आश्रमों का शहर। और करीब चार हजार विद्यार्थी इस शहर के नागरिक होंगे। दंतेवाड़ा-जिले के प्रवेश द्वार गीदम में यह अनोखा शहर आकार ले रहा है। 
दुनिया देख रही है कि दंतेवाड़ा में शिक्षा की सड़कों का जाल किस तरह बिछता चला जा रहा है। डामर की सड़कों की धज्जियां उड़ाने वाले नक्सलवादी इन सड़कों के आगे बेबस हैं। वे घने जंगलों में हथियारों और गोले बारूद की फैक्टरियां लगा रहे हैं तो दूसरी ओर शोषण और अत्याचार को कुचलने सरकार अक्षर बांट रही है। शोषकों-अत्याचारियों से निपटने के सही तरीके सिखा रही है। निरक्षरता के अंधेरे रास्तों में दिये जला रही है। जिस दंतेवाड़ा की तुलना पिछड़ेपन को लेकर हुआ करती थी वह अधोसंरचना की अपनी परिकल्पना को लेकर विश्वभर में चर्चित है। प्रतिष्ठित ग्लोबल एडवाइजरी फर्म केपीएमजी ने एजुकेशन सिटी को दुनिया की 100 ऐसी अधोसंरचनाओं में शामिल किया है, जो अद्भुत हैं। अभिनव हैं। 
दंतेवाड़ा में शिक्षा की सड़क पर ही खुशहाली फर्राटे भरेगी। यहां की एक-एक ईकाई को शिक्षित और हुनरमंद बनाने की कोशिशों के परिणाम अब सतह पर हैं। यहां का गुजर-बसर कालेज अनोखा है। यह ऐसा कालेज है जो शिक्षितों के लिए भी है और अशिक्षितों के लिए भी। यहां सिखाया जाता है कि अपने हुनर से रोटी कैसे कमाई जा सकती है। नक्सल इलाके के बेरोजगार युवकों के लिए चमकते भविष्य की उम्मीदों का सूर्य बनकर दमक रहा है यह कालेज। 
इन खास योजनाओं के अलावा इलाके में शिक्षा के लिए वे तमाम योजनाएं भी संचालित हैं जो प्रदेश सरकार राज्यभर में चला रही है। वे तमाम सुविधाएं भी मुहैया करा रही हैं जो राज्यभर के छात्रों को मिल रही हैं। छात्रवृत्ति से लेकर साइकिल तक और छात्रावासों से लेकर कापी-किताबों तक वितरण बच्चों के बीच हो रहा है।
दुनिया देख रही है कि नक्सलवादियों की जड़ें पहचान लेने के बाद अब उसकी सफाई कैसे की जा रही है। भूख, गरीबी, अशिक्षा और अंधविश्वास को कैसे कुचला जा रहा है। भूख मिटाने यहां मुख्यमंत्री खाद्यान्न सहायता योजना के तहत कुल 65 हजार 509 राशन कार्ड जारी किए गए हैं। 131 उचित मूल्य की दुकानों में राशन सामग्री का भंडारण समय पर कर दिया जाता है। 36 ग्राम पंचायतों में ग्रेन बैंक स्थापित किए गए हैं। 11 धान खरीदी केंद्रों के माध्यम से किसानों से समर्थन मूल्य पर धान की खरीदी की जा रही है। धान खरीदी के मामले में दंतेवाड़ा न केवल लक्ष्य भेद रहा बल्कि नये कीर्तिमान भी स्थापित कर रहा है। वर्ष 2012-13 में लक्ष्य रखा गया था 10 हजार मिट्रिक टन धान की खरीदी का, जबकि खरीदी हुई 62 हजार 610 मेट्रिक टन। लक्ष्य से कई गुना ज्यादा। जिले में भी गरीबों और जरूरतमंदों को एक और दो रुपए किलो में चावल और 13 रुपए किलो शक्कर  मिल रहा है। यानी भूख के मोर्चे पर फतह। 
स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में भी इस जिले ने तरक्की की। अंधविश्वास छंटा तो लोग बैगा-गुनियाओं के चक्कर से मुक्त हुए। साल 2005-06 में जहां इस जिले में 16 डाक्टर थे, वहीं अब इनकी संख्या बढ़कर 23 हो गई है। सरकार ने 23 ग्रामीण चिकित्सा सहायकों की नियुक्ति डाक्टरों की कमी को पूरा करने के लिए की है। चरकदूत सेवा के जरिए बीहड़ और दुर्गम इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाई जा रही हैं। 10 ग्रामीण चिकित्सा सहायकों को मोटरसाइकिलें और स्वास्थ्य केंद्रों को मिनी एंबुलेंस प्रदाय किए गए हैं। 20 हजार 48 परिवारों का स्मार्ट कार्ड बनाया गया है। इनमें से 1240 लोगों ने इन कार्डों के जरिए निशुल्क इलाज कराया। आपात स्थिति से निपटने के लिए दंतेवाड़ा जिले में भी 108 संजीवनी एक्सप्रेस योजना शुरू की गई है। दूर-दराज के इलाकों में रहने वाले लोगों के इलाज के लिए मोबाइल मेडिकल यूनिटें शुरू की गई हैं। 
सिंचाई सुविधाओं के मामले में भी दंतेवाड़ा में अच्छी प्रगति हुई है। यहां कई सिंचाई परियोजनाएं स्थापित हुई हैं और कई पर काम चल रहा है। पिछले आठ सालों में खेती के रकबे में भी खासा इजाफा हुआ है। यह 90.691 हजार हेक्टेयर से बढ़कर एक लाख एक हजार हेक्टेयर हो चुका है। अब यहां के किसान भूमि समतलीकरण कर रहे हैं, आदर्श कृषि फर्मों की स्थापना कर रहे हैं, कुएं खुदवा रहे हैं, नलकूप स्थापित करा रहे हैं, पंप लगवा रहे हैं और अपने खेतों तक बिजली के खंबे गड़ा रहे हैं। मुर्गीपालन के आधुनिक तरीके और पशुपालन में मुनाफे का सही गणित उन्होंने सीख लिया है। 
....यानी माई दंतेश्वरी का आशीष बरस रहा है। लाल नदी का पानी आहिस्ता-आहिस्ता दुधिया हो रहा है। ढोलकाल के शिखर पर गणपति मुस्कुरा रहे हैं। 

सोमवार, 6 मई 2013

बहुत पुरानी बात नहीं, एक गांव था...


केवलकृष्ण
अभी दिन ही कितने हुए हैं। सवा साल ही तो। किसी इलाके में इतनी थोड़ी अवधि में किसी बड़े परिवर्तन की उम्मीद कैसे की जा सकती है। लेकिन उम्मीदों से परे भी घटित हुआ है कोंडागांव में। यदि इसे चमत्कार कह दें तो यह शब्द भी छोटा पड़ जाएगा। चमत्कार कहना उस वैज्ञानिक सोंच और दूरदृष्टि को नजरअंदाज कर देना भी होगा, जिसकी वजह से नक्सलवादियों से पीड़ित इस इलाके के लोग अब खुद को मुक्ति-पथ पर पा रहे हैं।
वह तारीख 1 जनवरी 2012 थी, जब पिछड़ेपन के धुंधलके को पोंछकर विकास के दर्पण में कोडागांव ने अपना चेहरा देखा। उसने अपना अस्तित्व महसूस किया। आइने में अपने दोनों हाथ देखे, हाथों की ताकत देखी, पूरा शरीर देखा, पूरा का पूरा कोंडागांव देखा। इस इलाके को याद है कि 9 साल पहले हालात कैसे थे फिर कैसे बदलाव की शुरुआत हुई। और कैसे फिर पूरा का पूरा कोंडागांव बदल गया। असल क्रांति और किसे कहते हैं। अंधरे का छंट जाना, रौशनी का बिखर जाना। 9 सालों में कोंडागांव एक गांव से कस्बे और कस्बे से जिले में बदल गया। 9 साल तक विकास की कोख में पल रहा शिशु अब जन्म ले चुका है। विकास की ऊंगलिया थामे चलना सीख चुका है और चलना ही नहीं अब वह दौड़ने भी लगा है।
किसी इलाके के 5 लाख 78 हजार से ज्यादा लोगों के पते में अब कोंडागांव तहसील के रूप में नहीं, जिले के रूप में दर्ज होता है। इसमें छुपी अनुभूति वही महसूस कर सकता है, जिसके लिए यह परिवर्तन हुआ है। लेकिन इस अनुभूति से भी बड़ी अनुभूतियां वे महसूस करते होंगे। अब इस जिले के अपने भूगोल और सामाजिक परिस्थितियों के हिसाब से विकास की योजनाएं तैयार करने वाला प्रशासनिक अमला यहीं तैनात है। अब इस इलाके की समस्याओं को दिगर इलाकों से पृथक कर चिन्हित किया जाता है और उनके निराकरण की रणनीति तैयार की जाती है। सरकार से मिलने वाले धन का उपयोग अब क्षेत्र की जरूरते पूरी करने के लिए पहले से कहीं बेहतर हो पाता है। ऐसे में तस्वीर तो बदलेगी ही।
कोंडागांव का कस्बे से जिले में बदल जाना उस प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसकी शुरुआत पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के साथ शुरू की थी। बड़े इलाकों का छोटे इलाकों में प्रशासनिक विभाजन। यह पुराना अनुभव था कि बड़े इलाकों में विकास की प्रक्रिया केवल प्रशासनिक केंद्रों के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह जाती है। दूर-दराज के इलाके अछूते ही रह जाते हैं। वे उपेक्षा और पिछड़ेपन का शिकार होते हैं। राज्य निर्माण के बाद अटलबिहारी वाजपेयी के सूत्र से समस्याओं के गणित को हल करने की शुरुआत हुई। बड़े जिलों का छोटे जिलों के रूप में विभाजन शुरु हुआ। आज छत्तीसगढ़ में 27 जिले हैं और कोंडागांव उन्हीं में  से एक है। थोड़ी सी अवधि में इस जिले ने विकास के नये आयामों को छू लिया है। वनवासियों के कल्याण के लिए सरकार ने जो योजनाएं बनाईं, उन्हें धरातल में उतारने में यह जिला अव्वल रहा है। जंगल की जमीन पर पीढियों से खेती-किसानी कर भरण-पोषण करने वाले वनवासी परिवारों को तरह-तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। उनका कब्जा गैरकानूनी माना जाता था और इसीलिए उन्हें समय-समय पर प्रशासनिक कार्रवाई का सामना करना पड़ता था। जिस जमीन पर वे काबिज थे, न तो उस पर वे कोई ऋण ले सकते थे और न ही वे दिगर सुविधाएं हासिल कर पाते थे जो सामान्य भूस्वामी हांसिल करता है। यह बड़ी मुसीबत थी। जिस जमीन को बुजुर्गों ने उन्हें सौंपा था, उसे ही लोग पराई जमीन कहते। इस पीड़ा को सरकार ने महसूस किया और शुरू हुआ वनवासियों को जंगल की जमीन का मालिक बनाने का अभियान। अभियान तो पूरे प्रदेश में चला, लेकिन कोंडागांव जिले में सबसे ज्यादा 45 हजार 114 वनाधिकार मान्यता पत्र यानी पट्टे बांटे गए। यानी एक ऐसी समस्या को समूल नष्ट कर दिया गया, जिसे असंतोष में बदलकर नक्सलवादी अपना स्वार्थ साधा करते थे। सरकार ने पट्टे बांटकर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर ली। बल्कि इस ओर भी ध्यान दिया कि वनवासी अपनी काबिज भूमि के मालिक बनने के बाद आधुनिक तरीके से खेती करें, अच्छी आमदनी प्राप्त करके विकास की मुख्यधारा में अपना प्रवाह और तेज करें। 25 हजार 383 पट्टाधारियों को बीजों का वितरण किया गया। सिर्फ वनवासियों की ही नहीं अन्य तबके के वंचितों के लिए भी योजनाएं बनीं और उन पर अमल हुआ। 36 हजार 617 लोगों को गरीबी रेखा में मान्यता मिली और उनके कल्याण की योजनाएं उन तक पहुंचाई गई। जिनके पास घर नहीं थे ऐसे लोगों को इंदिरा आवास दिए गए। इनका आंकड़ा अब 18 सौ के पार हो चुका है।
कोंडागांव के जिला बन जाने का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि प्रशासन और आम लोगों के बीच की दूरी पट गई। अब अपनी सामान्य जरूरतों के हल के लिए उन्हें दूर नहीं जाना पड़ता। बड़े अफसरों और नेताओं का आना जाना बढ़ा तो योजनाओं के अमल पर निगरानी कड़ी हुई। नये दफ्तर खुले, नया अमला नियुक्त हुआ, नये निर्माण हुए, नये रोजगार खुले, नये अवसरों का सृजन हुआ। स्थानीय स्तर पर ही हो रही निगरानी का परिणाम है कि जिले में शिक्षा का स्तर सुधर गया है। प्रतिभाओं को उड़ान के लिए नया आकाश मिल गया। छोटा जिला होने की वजह से सरकार अब इस इलाके पर पहले से कहीं ज्यादा अच्छी तरह से ध्यान दे पा रही है। इलाके में स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में भी अच्छी तरक्की हुई है। नये अस्पताल खुले हैं और नया स्वास्थ्य अमला भी तैनात हुआ है। अब गंभीर बीमारी से ग्रस्त लोगों अथवा हादसों में घायल लोगों को तत्काल अस्पताल पहुंचाने की सुविधा उपलब्ध है। इससे अनेक जानें बचाई जा सकी हैं।

इस तरह कोंडागांव एक नये समाज का निर्माण कर रहा है। समस्याओं और असंतोष से मुक्त समाज का। असंतोष का खात्मा और अच्छी सुरक्षा व्यवस्था का ही परिणाम है कि यहां बड़ी नक्सली घटनाओं में 80 फीसदी तक गिरवाट आई है। जिले में नये थाने और चौकियां खुल गई हैं। नक्सली अब छिटपुट वारदात ही कर पाते हैं। पहले जहां नक्सलवादी बड़े दलों के रूप में वारदातों को अंजाम दिया करते थे अब उन्होंने स्माल एक्शन फोर्स बना रखे है, यह उनकी रणनीतिक मजबूरी का संकेत है।
समाज में सकारात्मक वातावरण का निर्माण होने से रचनात्मकता को बढ़ावा मिला है। टेराकोटा और बेलमेटल शिल्प के लिए यह इलाका पहले ही विख्यात रहा है। अब इन  कलाओं को और भी प्रोत्साहन मिल रहा है। नये विक्रय केंद्र खुल जाने से कलाकारों और शिल्पकारों को नया बाजार मिला है। आमदनी बढ़ गई है। यही वजह है कि नयी पीढ़ी भी इस हुनर को अपना रही है और इससे कोंडागांव की शानदार कला परंपरा को नया जीवन मिल गया है। इस इलाके में खेल प्रतिभाओं की भी कमी नहीं है। अब प्रदेश सरकार के प्रयासों से यहां स्टेडियम के निर्माण के लिए 6 करोड़ रुपए मिल गए हैं। इस तरह खेल के क्षेत्र में भी नये वातावरण का निर्माण हो रहा है।
कुल मिलाकर कोंडागांव अपने पैरों पर खड़ा हो गया है, उसने चलना सीख लिया है, बल्कि अब तो वह दौड़ने भी लगा है। पूत के पांव पालने में नजर आ रहे हैं। 

शुक्रवार, 3 मई 2013

ये छत्तीसगढ़ है मेरी जान


  •  केवल कृष्ण
गेंद उछली और धारणाओं के कोहरे को चीरती हुई निकल गई। बल्ले ने घूमकर ऐसा शाट लगाया कि अफवाहें, गलतफहमियां शीशे की तरह चूर-चूर होकर बिखर गईं। यह छत्तीसगढ़ का क्रिकेट है। दुनिया दंग है-ऐसा तो सोचा नहीं था, ऐसा तो देखा नहीं था और ऐसा महसूसा भी नहीं था पहले कभी।  जो कुछ भी था कल्पना से परे था। बहुत भव्य, शानदार, हैरतअंगेज, शांत, सभ्य और अनुशासित। जिस आईपीएल की तैयारी में बड़े-बड़े मेजबानों के पसीने छूट जाते हो, वह कितनी सहजता से निपट गया। राज्य बनने के बाद जो लोग कभी छत्तीसगढ़ नहीं आ पाए उनमें से ज्यादातर लोगों की कल्पना में यह इलाका अब भी वैसा ही था, जैसा उन्होंने सुन रखा था। इस कल्पना में या तो जंगल रहा, या पगडंडिया, वे लोग रहे जो अकाल से पीडित होकर महानगरों में पलायन करते रहे, वे लोग रहे जो नक्सलियों की बंदूकों से थरथर कांपते हुए अपना जीवन जी रहे हैं, सिर पर दिक्कतों की गठरी उठाए छत्तीसगढ़।...धारणाओं की सारी दीवारें भरभराकर गिर पड़ी। कुहासे से छंटकर सच्चाई सामने आई तो मिला आत्मविश्वास से दमकता हुआ सौम्य, सरल और ताकतवर छत्तीसगढ़। दो हाथों से स्वागत करने को आतुर बेखौफ लोग। जो रायपुर पड़ोसी प्रदेशों के लिए भी अनंजान था, वह दुनिया के नक्शे में सितारा बनकर दमक रहा है।
दुनिया टीवी स्क्रीन पर टकटकी लगाए इसकी ओर निहार रही है, शायद सोच रही है कि आखिर वो कौन सी चक्की है जिसकी बदौलत इसने करिश्मा कर दिखाया। जिस छत्तीसगढ़ को लोगों ने पिछड़ा कहा उसकी भव्यता के आगे महानगर फीके नजर आ रहे, जिसे डरा हुआ समझा वहां वे खिलाड़ी भी बेखौफ बाजारों और सड़कों में घूम रहे हैं, जो महानगरों में हाई सिक्यूरिटी के बिना चार कदम भी नहीं चल पाते। आईपीएल मैच के लिए आए मेहमान रायपुर के शापिंग माल में खरीदारी करते दिखे, मस्जिदों-मंदिरों में प्रार्थनाएं करते दिखे, गुपचुप के ठेलों पर अपनी आजादी का लुत्फ उठाते दिखे..यह उनके लिए हैरान कर देने वाला मंजर नहीं तो और क्या है। आईपीएल के चेयरमेन राजीव शुक्ला ने जब कहा कि अब छत्तीसगढ़ को हर साल आईपीएल की मेजबानी मिलेगी तो दुनिया ने महसूसा कि यह प्रदेश कितना ताकतवर हो चुका है। सिर्फ दो महीनों की तैयारी में आईपीएल जैसे कठिन आयोजन की तैयारी सहजता से कर लेने वाले इस प्रदेश में और भी बड़े आयोजनों की ताकत है और इसीलिए राजीव शुक्ला कहते हैं कि आने वाले समय में लीग टी-20 टूर्नामेंट के एक-दो मैच की मेजबानी भी छत्तीसगढ़ को दी जाएगी। ....राजीव ये बातें यूं ही नहीं कह दी। यहां उन्होंने स्टेडियम में घूम-घूम कर देखा कि इसकी खासियत क्या है। उन्होंने देखा कि यहां वे तमाम सुविधाएं उपलब्ध है जो बड़े स्टेडियमों में भी आमतौर पर उपलब्ध नहीं हुआ करतीं। राजीव ने शायद महसूस किया कि किसी प्रदेश में ऐसे स्टेडियम को अस्तीत्व में लाने के लिए कितना मनोबल और कितने ईमानदार संकल्प की जरूरत होती होगी। इसीलिए खुले मन से उन्होंने कहा-यह स्टेडियम तो मेलबोर्न जैसा है। 
      यह संयोग ही है कि डेयर डेविल्स के बल्लेबाज डेविड कार्नर को भी स्टेडियम मेलबोर्न जैसा ही लगा। वैसा ही खूबसूरत और सुविधापूर्ण। कामेंट्रेटर रविशास्त्री लाइव प्रसारण के दौरान जब भी सीधे स्टूडियो से जुड़कर सुनील गावस्कर और नवजोतसिंह सिद्धू से मुखातिब होते तो कहते मैं रायपुर के अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम से बोल रहा हूं, और यह उद्घोषित करते हुए उनकी आंखों की चमक देखते ही बनती थी। खिलाड़ियों और मेहमानों की लंबी फेहरिस्त है जो यहां के स्टेडियम की खूबसूरती और दर्शकों के अनुशासन पर मंत्रमुग्ध थे। दुनिया के 177 देशों में रायपुर से मैच का सीधा प्रसारण हो रहा था और एक एक दर्शक इन बातों को बार-बार सुन रहा था कि ये है नया रायपुर, ये है नया छत्तीसगढ़। इस बार यह बात न तो सरकार सुना रही थी और न ही अफसर। दूसरे देशों, दूसरे प्रदेशों से आए ऐसे लोग ये बातें कर रहे थे जिन्होंने घूम-घूम कर दुनिया देखी है। 
            ....तो क्या वास्तव में यह सब इतना सहज रहा होगा। छत्तीसगढ़ के लोग जानते हैं कि बीते दो महीनों में इस आयोजन के लिए कितनी कड़ी तैयारी करनी पड़ी। 65 हजार दर्शकों की क्षमता वाले इस बड़े स्टेडियम में खिलाड़ियों और आम लोगों की सुविधाओं और सुरक्षा का इंतजाम सहज नहीं रहा होगा। मैच पूरे अनुशासन के साथ निपटा और इसके खत्म होने के एक घंटे बाद ही भीड़ छंट गई, यह कड़ी तैयारी का ही नतीजा है। यह प्रशासनिक तालमेल का परिणाम है। पुलिस और प्रशासनिक अफसरों की लगातार बैठकों से यह संभव हो पाया है। यानी छत्तीसगढ़ के अफसरों की उस क्षमता को भी दुनिया ने देखा जिस क्षमता ने इसे पिछड़े छत्तीसगढ़ से आधुनिक छत्तसीगढ़ बना दिया। दुनिया ने देखा कि सरकार जब विकास की नीतियां और योजनाएं बनाती है तो वह कागजों में ही नहीं रह जातीं। 
...तो दुनिया ने बेखौफ, ताकतवर, निर्भिक और संपन्न छत्तीसगढ़ देखा। यहां की सरकार का मनोबल और नीयत देखी। यहां के अफसरों की मेहनत, योग्यता और क्षमता देखी। यहां अनंत संभावनाएं देखी। और इसीलिए अब आगे की चर्चा ये है कि इस आईपीएल के बाद यहां वन डे और टेस्ट क्रिकेट के लिए तैयारियां शुरू हो गई हैं। मुख्यमंत्री डा.रमनसिंह ने छत्तीसगढ़ क्रिकेट अकादमी के गठन के संकेत दिए हैं। इस बार क्रिकेट सुआ और कर्मा के साथ झूमा है आने वाले सालों में नाचेगा भी। 

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

भूलन कांदा अब कैमरे के सामने


संजीव बख्शी के बहुचर्चित उपन्यास भूलन कांदा पर आधारित फीचर फिल्म की तैयारी शुरू हो चुकी है। लोकेशन की तलाश है। छत्तीसगढ़ में यह विश्वास प्रचलित है कि जंगलों में बसे हुए गांवों के लोग अक्सर भूलनकांदा की चपेट में आ ही जाते हैं। एक बार जो इसकी चपेट में आ गया उसे तब तक अपना गांव-घर याद नहीं आता जब तक कोई दूसरा व्यक्ति उसे स्पर्श न कर दे। वह जंगल में ही भटकता रह जाता है। उपन्यास का कथानक छत्तीसगढ़ के कमार आदिवासियों के जनजीवन पर आधारित है। फिल्म की तैयारी कर रहे निर्देशक मनोज वर्मा कहते हैं-असल में उपन्यास में भूलन कांदा एक प्रतीक भी है। पूरा समाज इस भूलनकांदा की चपेट में है और भटक रहा है। इसे स्पर्श की जरूरत है।-मनोज इससे पहले भी कई व्यावसायिक छत्तीसगढ़ी फिल्में निर्देशित कर चुके हैं। इनमें बइरी, टूरा लफंगा, तहूं दीवाना महूं दीवानी, मि.टेटकूराम जैसी फिल्में शामिल हैं, जिनकी गिनती सफल फिल्मों में हुआ करती है। लेकिन भूलनकांदा बनाते हुए वे बार-बार सत्यजीत रे की पाथेर पंचाली को याद करते हैं। वे कहते हैं कि पाथेर पंचाली और भूलनकांदा में एक समानता यह है कि दोनों में ही कोई भी नकारात्मक चरित्र नहीं है। परिस्थितियां ही नकारात्मक होती चली जाती हैं। इसलिए इस फिल्म को परदे पर उतारना अलग ही अनुभव होगा। लगातार छत्तीसगढ़ी फिल्में बना चुके मनोज इसे हिंदी में बनाना चाहते हैं। व्यावसायिक खतरों को नापने-तौलने के बावजूद। इसकी शूटिंग छत्तीसगढ़ के ही गांवों में करना चाहते हैं। इसे आर्ट फिल्म की तरह बनाना चाहते हैं। वे कहते हैं-भूलनकांदा पर काम करना कठिन है, फिर भी मैं इसे करूंगा और मुझे यकीन है कि मैं कर लूंगा।