शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

कंचे


तब
जब झुलसती धूप वाले-
दिन बीत चुके थे,
पड़ने लगी थी बारिश की फुहारें,
मुरम के उस लाल मैदान ने-
बदल लिया था रंग,
और एक मखमली कीड़े ने
शुरू कर दिया था रेंगना-
हरी हरी घांस पर।
तब
जब कुछ बीज अंकुरित हो रहे थे
फूट रही थी कुछ पत्तियां
भींच रखे थे मैंने अपनी मुठ्ठियों में
कुछ कंचे, जो तुमने मुझे दिए थे
जो अमानत थे तुम्हारी
और जिन्हें तुम्हें लौटाने के लिए वचनबद्ध था मैं।
तब
जब पड़ रही थी बारिश की फुहारें
हरिया रहा था मुरम का लाल मैदान
मेरे भीतर की हरितिमा-
तप्त हुई जा रही थी, तुम्हारे लौटने की प्रतीक्षा में।
भींची हुई मुट्ठियों को खोलकर
देखा था मैने तुम्हारी अमानतों को
फिर वहीं पर,
अंकुरित होते एक बीज के करीब,
बो दिया था उन्हें।
तुम नहीं लौटीं
मैदान पर ऊग आए हैं घर
उन्हीं में से एक में
ऊग आया हूं मैं
उन्हीं में से एक में
शायद कभी ऊग आओ तुम भी।
कंचे फूल रहे हैं।
-केवलकृष्ण