शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

भूलन कांदा अब कैमरे के सामने


संजीव बख्शी के बहुचर्चित उपन्यास भूलन कांदा पर आधारित फीचर फिल्म की तैयारी शुरू हो चुकी है। लोकेशन की तलाश है। छत्तीसगढ़ में यह विश्वास प्रचलित है कि जंगलों में बसे हुए गांवों के लोग अक्सर भूलनकांदा की चपेट में आ ही जाते हैं। एक बार जो इसकी चपेट में आ गया उसे तब तक अपना गांव-घर याद नहीं आता जब तक कोई दूसरा व्यक्ति उसे स्पर्श न कर दे। वह जंगल में ही भटकता रह जाता है। उपन्यास का कथानक छत्तीसगढ़ के कमार आदिवासियों के जनजीवन पर आधारित है। फिल्म की तैयारी कर रहे निर्देशक मनोज वर्मा कहते हैं-असल में उपन्यास में भूलन कांदा एक प्रतीक भी है। पूरा समाज इस भूलनकांदा की चपेट में है और भटक रहा है। इसे स्पर्श की जरूरत है।-मनोज इससे पहले भी कई व्यावसायिक छत्तीसगढ़ी फिल्में निर्देशित कर चुके हैं। इनमें बइरी, टूरा लफंगा, तहूं दीवाना महूं दीवानी, मि.टेटकूराम जैसी फिल्में शामिल हैं, जिनकी गिनती सफल फिल्मों में हुआ करती है। लेकिन भूलनकांदा बनाते हुए वे बार-बार सत्यजीत रे की पाथेर पंचाली को याद करते हैं। वे कहते हैं कि पाथेर पंचाली और भूलनकांदा में एक समानता यह है कि दोनों में ही कोई भी नकारात्मक चरित्र नहीं है। परिस्थितियां ही नकारात्मक होती चली जाती हैं। इसलिए इस फिल्म को परदे पर उतारना अलग ही अनुभव होगा। लगातार छत्तीसगढ़ी फिल्में बना चुके मनोज इसे हिंदी में बनाना चाहते हैं। व्यावसायिक खतरों को नापने-तौलने के बावजूद। इसकी शूटिंग छत्तीसगढ़ के ही गांवों में करना चाहते हैं। इसे आर्ट फिल्म की तरह बनाना चाहते हैं। वे कहते हैं-भूलनकांदा पर काम करना कठिन है, फिर भी मैं इसे करूंगा और मुझे यकीन है कि मैं कर लूंगा।