शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

सुबह-सवेरे

सुबह-सवेरे
जब रजाई कुनमुना रही थी
चौखट पर खड़ी थी धूप
खिलखिला रही थी
वो झुग्गियों से आ रही थी
-केवलकृष्ण

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

करवट

अभी सब सो रहे हैं
सामने की वो टेबल, उस पर रखी किताबें
दीवार पर टंगा टेलीविजन
खिड़कियां, दरवाजे सब।
रातभर की चौकीदारी के बाद 
वो लट्टू भी उंघ रहा है
और मैंने अभी-अभी करवट बदली है।

टीssssटी हुट टीssssटी हुट
क्वांय क्वांय, क्वांय क्वांय
खिड़की के बाहर चीख रहा निशाचर
समेट रहा शायद निशाचरों को
चलो-चलो, भागो-भागो
हाथों में लट्ठ लिए सुकवा
इधर ही आ रहा है।

ये करवटों का वक्त है दोस्तों।
ये करवटों का असर है।

-केवलकृष्ण

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

बस अभी-अभी तो

बस अभी-अभी तो
जागा सुकवा
आखें मलता अभी अभी ।
बस अभी-अभी तो
सोचा सुकवा
बस अभी अभी तो।
बस अभी अभी तो पौ फटी।
बिखरी लाली अभी अभी
बस अभी-अभी तो उगी कविता
बस अभी-अभी
-केवलकृष्ण