शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

जिस वक्त मर रहा था मैं

मर रहा था मैं
जिस वक्त
और कोई नहीं था पास
सिवा तुम्हारे


डूबती जा रही थी चेतना
टूटती जा रही थी सांसे
सिरहाने पर बैठी तुम
खामोश थी, बिलकुल खामोश


न रूदन, न क्रंदन
न एक कतरा आंसू
जानती थी मर रहा हूं मैं
फेर रही थी ऊंगलियां
मेरे बालों में चुपचाप


जाने क्या हुआ
तुम्हारी ऊंगलियों से
निकली तेज रौशनी
आलोकित हो गया तब
पूरा का पूरा ब्रह्मांड
अदभुत प्रकाश वह
अदभुत, अदभुत, अदभुत


झनझना उठा मस्तिष्क
बुझी चेतना
हो उठी प्रज्वलित
जीवन के लिए आतुरता
लेने लगी हिलोरे
सिहर उठा था तब मैं-
अभी तो जीना है मुझे
तुम्हारे साथ
अभी तो जीना है मुझे
तुम्हारे लिए
कविता।




-केवलकृष्ण

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